नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
शकुन्तला : तात! आश्रम में चारों ओर गर्भ के भार से अलसाती हुई चलने वाली इस हरिणी को जब सुख से बच्चा हो जाये तब किसी के द्वारा यह प्रिय समाचार मेरे पास अवश्य भिजवा दीजिएगा। भूलिएगा नहीं।
कण्व : नहीं, नहीं। हम यह समाचार भेजना कभी नहीं भूलेंगे।
[सब चलने का अभिनय करते हैं।]
शकुन्तला : (चलने में रुकावट का अभिनय करती हुई) अरे, कौन मेरा आंचल पकड़कर खींच रहा है?
[पीछे घूमकर देखती है।]
कण्व : वत्से!
कुशा के कांटे से छिदे हुए जिसके मुख को ठीक करने के लिए उसे हिंगोट का तेल लगाया करती थीं, अपने हाथों से जिसको तुम नित्य मुट्ठी भर सांवे के दानों से पाला करती थीं, वही प्यारा तुम्हारा हिरण तुम्हारा मार्ग रोके खड़ा है।
शकुन्तला : वत्स! अरे, मैं तो तुम सबका साथ छोड़कर जा रही हूं। तू मेरे साथ कहां पीछे-पीछे आ रहा है। तेरी मां जब तुझे जन्म देकर मर गई थी, उस समय मैंने तुझे पाल-पोसकर बड़ा किया था। अब मेरे पीछे पिताजी तुम्हारी देखभाल करेंगे। जा, लौट जा।
[रोती हुई आगे बढ़ती है।]
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