नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
कण्व : (आशीर्वाद देते हुए) जो-जो मैंने तुम्हारे लिए इच्छा की है वह सब तुम्हें प्राप्त हो।
शकुन्तला : (सखियों के पास जाकर) सखियों! आओ, तुम दोनों एक साथ मेरे गले लग जाओ।
सखियां : (गले लगकर) सखी! देखो, यदि वे राजा तुम्हें पहचानने में भूल करें तो, उनके नाम वाली यह जो अंगूठी तुम्हारे पास है वह तुम उनको दिखा देना।
शकुन्तला : क्यों, ऐसा क्यों कह रही हो? तुम्हारी इस सन्देह भरी बात ने तो मेरे जी में खटका-सा लगा दिया है।
सखियां : नहीं, नहीं, डरो मत। प्रेम में तो इस प्रकार होता ही है।
शार्ङरव : देवि! दिन बहुत चढ़ आया है। अब आप जल्दी करिये।
शकुन्तला : (आश्रम की ओर मुख करके) तात! अब आश्रम के फिर कब दर्शन हो पायेंगे?
कण्व : सुनो-
चारों ओर फैली इस पृथ्वी की जब तुम बहुत दिन तक सौत बनकर रह लोगी और राजा दुष्यन्त को जब उनके समान ही अद्वितीय वीर पुत्र प्रदान कर, उसको राज्य और कुटुम्ब का भार सौंपकर
जब तुम अपने पति के साथ भ्रमण के लिए राजभवन से बाहर निकलोगी तो उस समय इस शान्त आश्रम में आकर सुख से निवास करना।
गौतमी : वत्से! विदा की घड़ी बीतती जा रही है। अब पिताजी को वापस जाने दो।
(महर्षि कण्व से) आप अब लौट जाइए, अन्यथा यहां रहने पर तो यह यों ही कुछ-न-कुछ पूछती ही रहेगी।
कण्व : वत्से! जाओ। अब हमें भी अपनी तपस्या में लगना है, उसके लिए विलम्ब हो रहा है।
शकुन्तला : (एक बार फिर पिता से भेंट करके) आप तो यों ही तप के कारण बहुत दुबले हो गए हैं, इसलिए आप मेरी किसी प्रकार की चिन्ता मत करियेगा।
कण्व : (निःश्वास छोड़कर) वत्से! वलि के लिए तुमने जो नीवारकण बोये थे, कुटी के द्वार पर जब तक उनके अंकुर दिखाई देते रहेंगे, तब तक मेरा शोक किसी प्रकार भी कम नहीं हो सकता। जाओ, तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो।
[साथियों के साथ शकुन्तला का प्रस्थान।]
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