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नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल

अभिज्ञान शाकुन्तल

कालिदास

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6162
आईएसबीएन :9788170287735

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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...

पंचम अंक

 

[राजा आसन पर विराजमान हैं और साथ ही विदूषक बैठा हुआ है।]


विदूषक : (कान लगाकर) वयस्क! सुनो तो, संगीतशाला की ओर कान लगाकर सुनो तो। कोई  बड़े ही मधुर स्वर में लय और तान सहित सुन्दर गीत गा रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है  मानो साक्षात् महारानी हंसपदिका स्वर-सन्धान कर रही हों।

राजा : तुम चुप रहो तो मैं सुनूं।

[नेपथ्य में गीत]

मधु के लोभी ओ मधह्नकर।
नये-नये मधु के लोभ में,
एक ही बार में
मधुर मंजरी रसाल की
चूम गये तुम।
कमल कोश में निवास करने
वाले ओ मधुकर!
क्यों तुमने मुझको
बिसार दिया।

राजा : वाह! इस राग में भी किस प्रकार प्रेम की धारा बहती लगती है।

विदूषक : किन्तु इस गीत-में जो व्यंग्य निहित है उसको भी समझने का प्रयास किया है  आपने?

राजा : (मुस्कुराते हुए) हां, मैं समझ गया हूं। महारानी से मैंने केवल एक बार ही प्रणय निवेदन किया है। क्योंकि आजकल मैं देवी वसुमती से प्रेम करने लगा हूं, उसी को आधार बनाकर यह गीत गाया जा रहा है। सखे माढव्य! तुम हंसपदिका के पास जाकर मेरी ओर से कहना कि आज तो तुमने बहुत ही मीठी चुटकी ली
है। उपालम्भ में बहुत निपुण हो।

विदूषक : (उठकर) जैसी आपकी आज्ञा। किन्तु मित्र! जिस प्रकार अप्सराओं के हाथों में पड़कर बड़े-बड़े वैरागी जन और ऋषि भी नहीं छूट पाते हैं, वैसे ही जब वे अपनी दासियों से मेरी  चोटी पकड़वाकर मुझे पीटने लगेंगी तो उस समय उनसे छुटकारा पाना मेरे लिए कठिन हो  जाएगा।

राजा : जाओ, सन्देश देने में जरा चतुराई से काम लेना।

विदूषक : दूसरा और कोई उपाय भी तो नहीं है, जाना ही पड़ेगा।

[विदूषक चला जाता है।]

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