नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
|
333 पाठक हैं |
विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
[नेपथ्य में]
आइये महाराज! आइये।
कंचुकी : (कान लगाकर) अरे! महाराज तो इस ओर को ही आ रहे हैं। अब तुम लोग जाओ, और अपना-अपना काम करो।
दोनों : ठीक है।
[दोनों जाती हैं।]
[विदूषक और प्रतिहारी के साथ पश्चात्ताप निमग्न राजा का प्रवेश।]
कंचुकी : (राजा को देखकर) जो सुन्दर होते हैं वे किसी भी दशा में क्यों न हों, सभी दशाओं में वे सुन्दर ही लगते हैं। हमारे महाराज उदास होने पर भी सुन्दर ही लग रहे हैं।
क्योंकि-
उन्होंने अपने शरीर को सुशोभित करने के लिए जो भी आभूषण धारण किये हुए थे, वे सब उतार दिये हैं, केवल बायीं भुजा का भुजबन्द ही उनकी भुजा पर विद्यमान है। निरन्तर उसांसें लेते रहने के कारण उनके नीचे का ओष्ठ भी लाल-लाल हो गया है। अनमने होने के कारण रातभर जागते रहने से उनकी आंखें भी किस प्रकार अलसा-सी गई हैं।
इस प्रकार दुःखी होने पर भी वे वैसे ही दुबले से नहीं लग रहे जिस प्रकार तरासा हुआ महामणि यद्यपि छोटा हो जाता है किन्तु फिर भी चमक बढ़ जाने के कारण शोभायमान ही दीखता है।
सानुमती : (राजा को देखकर) यद्यपि शकुन्तला का तिरस्कार कर राजा ने उसका बड़ा निरादर किया है तदपि यदि शकुन्तला इस राजा के लिए तड़पती है तो वह बात भी समझ में आने लायक ही है। यह राजा तो बड़ा ही सुदर्शन है।
'राजा : (चिन्तातुर-सा घूमकर-) मृग के समान आंखों वाली वह मेरी प्रिया शकुन्तला उस समय जब बार-बार मुझे समझा रही थी, तब तो मैं सोता ही रहा, आंखें खुलीं ही नहीं। और अब देखो, केवल पश्चात्ताप का दुःख सहन करने के लिए यह उस समय सोया मेरा हृदय अब जाग उठा है।
सानुमती : क्या करें, बेचारी शकुन्तला का भाग्य ही कुछ ऐसा है।
विदूषक : (अलग ही) ओह! शकुन्तला के रोग ने तो हमारे महाराज को फिर से घेर लिया है। न जाने यह रोग इनका पिण्ड किस प्रकार छोड़ेगा।
कंचुकी : (महाराज के पास जाकर महाराज की जय हो! महाराज! प्रमद वन की भूमि को झाड़-बुहारकर साफ कर दिया है। अब आप जब तक भी चाहें उस सुरम्य स्थान की आनन्दमयी भूमि पर विश्राम करिये।
राजा : वेत्रवती! जाओ, मेरी ओर से अमात्य आर्य पिशुन से कहो कि मैं आज विलम्ब से उठा हूं इसलिए अभियोगों के निर्णय के लिए मेरा सभा-भवन में पहुंच पाना कठिन है।
प्रजा का जो कोई भी कार्य हो, उसे वे लिखकर यहीं मेरे पास भेज दें।
वेत्रवती : जैसी महाराज की आज्ञा।
[वेत्रवती जाती है]
|