नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
सानुमती : यह तो विरह का बड़ा ही विचित्र प्रकार है। पहले कुछ और था और अब कुछ और ही है। कैसा परस्पर विरोधाभास है इसमें।
राजा : मित्र! तुम समझ सकते हो कि इस समय मेरे हृदय पर क्या बीत रही है?
सुनो-
नींद न लगने के कारण मैं उससे स्वप्न में भी नहीं मिल पाता और सदा बहते रहने वाले ये आंसू उसे चित्र में भी भली प्रकार देखने नहीं देते।
सानुमती : शकुन्तला को छोड़कर तुमने हमारे मन में जो कसक भर दी थी, आज अपने इन वचनों से तुमने उस सबको धो डाला है।
[परिचारिका का प्रवेश]
चतुरिका : जय हो, महाराज की जय हो।
महाराज! चित्र सामग्री का डिब्बा लिये मैं इधर ही चली आ रही थी कि...
राजा : हां, तो क्या हुआ?
चतुरिका : उसी समय तरलिका के साथ महारानी वसुमति आईं और उन्होंने मेरे हाथ से डिब्बा लेकर कहा कि मैं स्वयं इसे आर्यपुत्र के पास पहुंचा आती हूं।
विदूषक : यह तुम्हारा सौभाग्य ही था कि उन्होंने तुम्हारी पिटाई नहीं की।
चतुरिका : महारानी की ओढ़नी तभी वृक्ष की डाली से उलझ गई और तरलिका उसको छुड़ाने में लगी थी कि मैं आपको यह समाचार देने के लिए इधर दौड़ी आई हूं।
राजा : लगता है कि महारानी का मुंह फूल गया है। बड़ी रुष्ट-सी इधर आ रही हैं। तब तो यही अच्छा होगा कि यह चित्र उनके सम्मुख न रहे। इसलिए इसको ले जाकर कहीं ऐसे स्थान पर छिपा दो जहां महारानी की दृष्टि इस पर न पड़ सके।
विदूषक : यह क्यों नहीं कहते कि हमें ही छिपा लो।
[चित्रपट लेकर उठता है।]
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