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गजलें और शायरी >> खानाबदोश

खानाबदोश

अहमद फराज

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 617
आईएसबीएन :9789350641798

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अहमद फराज की चुनिंदा गज़लें.....

Khanabadosh - A hindi Book by - Ahmad Faraz खानाबदोश - अहमद फराज

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उर्दू के सबसे लोकप्रिय और चर्चित शायर उनकी शायरी और शोहरत की बुलन्दियों हिन्दुस्तान में भी शिखर पर हैं। लाहौर,कराची,दिल्ली और लन्दन तक उनकी गजलों और नज्मों को बड़े शौक से पढ़ा और सुना जाता है। दरअसल उनकी शायरी आम लोगों के दुःख दर्द,हँसी-खुशी, राग-विराग की अभिव्यक्ति हैं। खानाबदोश में उर्दू में अब तक अहमद फराज के प्रकाशित दस गजल-संग्रहों के अलावा उनकी ताजातरीन गज़लों और नज्मों को भी शामिल किया गया है। खानाबदोश फराज साहब की शायरी की मुकम्मल किताब है।

अहमद फ़राज़


मुझे इसका ऐतराफ़ करते हुए एक निशात-अंगेज़ फ़ख़्र महसूस होता है कि जिस शायरी को मैंने सिर्फ़ अपने जज़्बात के इज़हार का वसीला बनाया था इसमें मेरे पढ़ने वालों को अपनी कहानी नज़र आई और अब ये आलम है कि जहाँ-जहाँ भी इन्सानी बस्तियाँ हैं और वहाँ शायरी पढ़ी जाती है मेरी किताबों की माँग है और गा़लिबन इसलिए दुनिया की बहुत सी छोटी-बड़ी जु़बानों में मेरी शायरी के तर्जुमे छप चुके हैं या छप रहे हैं। इस मामले में मैं अपने आपको दुनिया के उन चन्द ख़ुशक़िस्मत लिखने वालों में शुमार पाता हूँ जिन्हें लोगों ने उनकी ज़िन्दगी में ही बे-इन्तिहा मोहब्बत और पज़ीराई बख़्शी है।

हिन्दुस्तान में अक्सर मुशायरों में शिरकत से मुझे ज़ाती तौर पर अपने सुनने और पढ़ने वालों से तआरुफ़ का ऐज़ाज़ मिला और वहाँ के अवाम के साथ-साथ निहायत मोहतरम अहले-क़लम ने भी अपनी तहरीरों में मेरी शेअरी तख़लीक़ात को खुले दिल से सराहा। इन बड़ी हस्तियों में फ़िराक़, अली सरदार जाफ़री, मजरूह सुल्तानपुरी, डॉक्टर क़मर रईस, खुशवंत सिंह, प्रो. मोहम्मद हसन और डॉ. गोपीचन्द नारंग ख़ासतौर पर क़ाबिले-जिक्र हैं। इसके अलावा मेरी ग़ज़लों को आम लोगों तक पहुँचाने में हिन्दुस्तानी गुलूकारों ने भी ऐतराफ़े-मोहब्बत किया, जिनमें लता मंगेशकर, आशा भोंसले, जगजीत सिंह, पंकज उधास और कई दूसरे नुमायाँ गुलूकार शामिल हैं।

फ़राज़ की शायरी


यों तो 1947 में देश का जो बँटवारा हुआ उसने बहुत सारी चीज़ें जैसे भूगोल, आबादी, नदी-पर्वत बाँट दिए, पर कुछ ऐसा भी रहा आया जो बंट नहीं सका। उसमें भाषा, साहित्य और कलाएँ शामिल हैं। सौभाग्य से उनकी परंपरा में अधिक जीवट और सख़्ती होती है और राजनीति का उन पर एक हद से ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़ता। उन्हें निरी राजनीति न बदल सकती है, न मिटा या बाँट सकती है। उर्दू भाषा इस प्रसंग में एक अविभाजित भाषा है जैसे कि पंजाबी और सिंधी भी। उनमें भारत पाकिस्तान की सरहदों के दोनों ओर बोला-बरता-लिखा जाता है।

अहमद फ़राज़ उर्दू के एक समर्थ, सजग और जीवन्त कवि हैं। उनकी कविता जितनी पाकिस्तानी है उतनी ही भारतीय। ऐसा इसलिए कि उर्दू में दोनों देशों के बीच बँटवारा नहीं साझा है। हम यहाँ यह याद कर सकते हैं कि पाकिस्तान बनने के बाद वहाँ के अब तक के सबसे बड़े कवि फ़ैज अहमद फ़ैज़ की भारत में लोकप्रियता और प्रतिष्ठा रही है। उसका एक कारण तो निश्चित ही कविता में उनकी शार्षस्थानीयता है लेकिन दूसरा कारण यह भी रहा है कि राजनैतिक शत्रुता और द्वंद्व के बावजूद कविता और कविता के रसिकों ने, उर्दू-हिन्दी की साहित्यिक बिरादरी ने उनके अभिप्रायों, मुहावरों, लयों और छवियों, लहजे और भंगिमाओं में, उत्सुकताओं में हमेशा ऐसा कुछ पाया जो उनका अपना भी है। जैसे फ़ैज़ में वैसे ही अब अहमद फ़राज़ में यह साफ़ पहचाना जा सकता है कि सरहदों के पार और उनके बावजूद, हमारे समय में हम जिन प्रश्नों, अन्तर्विरोधों, तनावों, बेचैनियों और जिज्ञासाओं से घिरे हैं, उन्हें यह कविता सीधे और निहायत आत्मीय आवाज़ में सम्बोधित करती है। एक बार फिर यह कविता इस सच्चाई का इज़हार है और एसर्शन भी। सरहदों के किसी भी तरफ़ आदमी का सुख-दुःख, उसकी तकलीफ़ बयान करने की कठिनाइयाँ एक जैसी हैं। यह कविता हमें आवाज़ देती है, अपने हालात से हमें गहरे वाक़ि़फ़ कराती है, हमारे सपनों और दुःख-दर्द को सामने लाती है। वह कोशिश करती है कि भाषा कविता के माध्यम से वहाँ जाने का जोखिम उठाए जहाँ वह पहले नहीं गई थी। यह ऐसी रची गई दुनिया भी है जिसमें हमारी साझा परम्परा की कई अन्तर्ध्वनियाँ सजह ही सक्रिय हैं-मीर और ग़ालिब की आवाज़ें जब-तब इन कविताओं के बीच में, उसकी पंक्तियों के बीच की चुप्पियों में सुनी जा सकती हैं, अगर हम ठीक से कान धरें।

फ़राज़ की कविता ज़िन्दादिल कविता है, उसमें हमेशा एक क़िस्म की स्फूर्ति है; तब भी वह किसी रूमानी अवसाद में डूबी है। वह ऐसी कविता भी है, जो आदमी और उसके बेशुमार रिश्तों की दुनिया को कविता के भूगोल में स्मरणीय ढंग से विन्यस्त करने की चेष्टा करती है। भले उतनी उदग्र न हो जितनी, मस्लन पाब्लो नेरुदा या कि फ़ैज़ की कविता रही है, वह इसी परंपरा में है जिसमें प्रेम और क्रान्ति में, रूमानी सच्चाई और सामाजिक सच्चाई में बुनियादी तौर पर कोई विरोध भाव नहीं है। उसकी आधुनिकता परम्परा का विस्तार है, उसका अवरोध नहीं। वह अपने समय से जो रिश्ता बनाती है वह सीधा-सादा न होकर ख़ासा जटिल है। वह समय को निरी समकालीनता के बाड़े से निकाल कर उसे थोड़ा पीछे और कुछ आगे ले जानी वाली कविता है।

कविता की एक ज़िम्मेदारी है कि वह हमें सच्चाई के वे पहलू दिखाए जो आमतौर से जीने के झंझट में फँसे होने की वजह से हमारी नज़र से या तो ओझल हो जाते हैं या कि जिन्हें हम आपाधापी में भूल जाते हैं। कविता शायद ही किसी को बेहतर आदमी बनाती हो, पर वह यह एहसास ज़रूर गहरा और मर्मस्पर्शी कराती है कि किसी भी समय में आदमी होने का क्या आशय है। बल्कि वह आदमी की हालत के कई आशय हमें दिखाती है। कविता यह सब भाषा के रचाव-दबाव से ही करती है। अहमद फ़राज़ की कविता यह सब बख़ूबी करती है। उनकी ज़ुबान में मिठास और अपनी दुनिया में रचे-बसे होने की अनुगूँजें हैं। ज़रूरी होने पर बेबाकी, तीखापन और तंज़ भी है। उसमें उर्दू की अपनी समृद्ध परम्परा की कृतज्ञ याद है। उसमें लयों, बहरों, छन्दों की आश्चर्यजनक विविधता और क्षमता है। सबसे बढ़कर उसमें खुलापन है, जो अहमद फ़राज़ के इन्सानी तौर पर भरे पूरे और चौकन्ने होने का सबूत है। वह मित्र-कविता है जो हमसे आत्मीयता और आत्मविश्वास के साथ बात करती है और हमारे विश्वास आसानी से जीत लेती है।

इस संचयन में कवि की दस पुस्तकों से चुनकर कविताएँ दी गई हैं। कुछ ऐसी कविताएँ भी हैं, जो अभी तक किसी पुस्तक में संग्रहीत नहीं हुई हैं।


हर्फ़े-ताज़ा की तरह क़िस्स-ए-पारीना1 कहूँ
कल की तारीख़ को मैं आज का आईना कहूँ

चश्मे-साफ़ी से छलकती है मये-जाँ तलबी
सब इसे ज़हर कहें मैं इसे नौशीना2 कहूँ

मैं कहूँ जुरअते-इज़हार हुसैनीय्यत है
मेरे यारों का ये कहना है कि ये भी न कहूँ

मैं तो जन्नत को भी जानाँ का शबिस्ताँ3 जानूँ
मैं तो दोज़ख़ को भी आतिशकद-ए-सीना4 कहूँ

ऐ ग़मे-इश्क़ सलामत तेरी साबितक़दमी
ऐ ग़मे-यार तुझे हमदमे-दैरीना5 कहूँ

इश्क़ की राह में जो कोहे-गराँ6 आता है
लोग दीवार कहें मैं तो उसे ज़ीना कहूँ

सब जिसे ताज़ा मुहब्बत का नशा कहते हैं
मैं ‘फ़राज़’ उस को ख़ुमारे-मये-दोशीना7 कहूँ
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1. गुज़रा हुआ, पुराना क़िस्सा 2. शर्बत 3. शयनागार 4. सीना या छाती की भट्ठी 5. पुराना मित्र 6. मुश्किल पहाड़ 7. ग़ुजरी रात की शराब का ख़ुमार

न कोई ख़्वाब न ताबीर ऐ मेरे मालिक
मुझे बता मेरी तक़सीर ऐ मेरे मालिक

न वक़्त है मेरे बस में न दिल पे क़ाबू है
है कौन किसका इनागीर1 ऐ मेरे मालिक

उदासियों का है मौसम तमाम बस्ती पर
बस एक मैं नहीं दिलगीर2 ऐ मेरे मालिक

सभी असीर हैं फिर भी अगरचे देखने हैं
है कोई तौक़3 न ज़ंजीर ऐ मेरे मालिक

सो बार बार उजड़ने से ये हुआ है कि अब
रही न हसरत-ए-तामीर ऐ मेरे मालिक

मुझे बता तो सही मेहरो-माह किसके हैं
ज़मीं तो है मेरी जागीर ऐ मेरे मालिक

‘फ़राज़’ तुझसे है ख़ुश और न तू ‘फ़राज़’ से है
सो बात हो गई गंभीर ऐ मेरे मालिक
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1. लगाम थामने वाला 2. ग़मगीन 3. गले में डाली जाने वाली कड़ी

तेरा क़ुर्ब था कि फ़िराक़ था वही तेरी जलवागरी रही
कि जो रौशनी तेरे जिस्म की थी मेरे बदन में भरी रही

तेरे शहर से मैं चला था जब जो कोई भी साथ न था मेरे
तो मैं किससे महवे-कलाम1 था ? तो ये किसकी हमसफ़री रही ?

मुझे अपने आप पे मान था कि न जब तलक तेरा ध्यान था
तू मिसाल थी मेरी आगही2 तू कमाले-बेख़बरी रही

मेरे आश्ना3 भी अजीब थे न रफ़ीक़4 थे न रक़ीब5 थे
मुझे जाँ से दर्द अज़ीज़ था उन्हें फ़िक्रे-चारागरी6 रही

मैं ये जानता था मेरा हुनर है शिकस्तो-रेख़्त7 से मोतबर8
जहाँ लोग संग-बदस्त9 थे वहीं मेरी शीशागरी रही

जहाँ नासेहों10 का हुजूम था वहीं आशिक़ों की भी धूम थी
जहाँ बख़्यागर11 थे गली-गली वहीं रस्मे-जामादरी12 रही

तेरे पास आके भी जाने क्यूँ मेरी तिश्नगी13 में हिरास1अ था
बमिसाले-चश्मे-ग़ज़ा14 जो लबे-आबजू15 भी डरी रही

जो हवस फ़रोश थे शहर के सभी माल बेच के जा चुके
मगर एक जिन्से-वफ़ा16 मेरी सरे-रह धरी की धरी रही

मेरे नाक़िदों17 ने फ़राज़’ जब मेरा हर्फ़-हर्फ़ परख लिया
तो कहा कि अहदे-रिया18 में भी जो खरी थी बात खरी रही
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1.बात करने में मग्न 2. जानकारी, चेतना 3. परिचित 4. मित्र 5. शत्रु 6. उपचार की धुन 7. टूट फूट 8. ऊपर, सम्मानित 9. हाथ में पत्थर लिए हुए 10. उपदेश देने वाले 11.कपड़ा सीने वाले 12. पागलपन की अवस्था में कपड़े फाड़ने की रीत
13.प्यास 1अ. आशंका निराशा 14.हिरन की आँख की तरह 15.दरिया के किनारे 16.वफ़ा नाम की चीज़ 17. आलोचक 18. झूठा ज़माना


यूँ तुझे ढूँढ़ने निकले के न आए ख़ुद भी
वो मुसाफ़िर कि जो मंज़िल थे बजाए ख़ुद भी

कितने ग़म थे कि ज़माने से छुपा रक्खे थे
इस तरह से कि हमें याद न आए खुद भी

ऐसा ज़ालिम कि अगर ज़िक्र में उसके कोई ज़ुल्म
हमसे रह जाए तो वो याद दिलाए ख़ुद भी

लुत्फ़ तो जब है तअल्लुक़ में कि वो शहरे-जमाल1
कभी खींचे कभी खिंचता चला आए ख़ुद भी

ऐसा साक़ी हो तो फिर देखिए रंगे-महफ़िल
सबको मदहोश करे होश से जाए ख़ुद भी

यार से हमको तगाफ़ुल का गिला है बेजा
बारहा महफ़िले-जानाँ से उठ आए ख़ुद भी
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1. महबूब

आज फिर दिल ने कहा आओ भुला दें यादें
ज़िंदगी बीत गई और वही यादें-यादें

जिस तरह आज ही बिछड़े हों बिछड़ने वाले
जैसे इक उम्र के दुःख याद दिला दें यादें

काश मुमकिन हो कि इक काग़ज़ी कश्ती की तरह
ख़ुदफरामोशी के दरिया में बहा दें यादें

वो भी रुत आए कि ऐ ज़ूद-फ़रामोश1 मेरे
फूल पत्ते तेरी यादों में बिछा दें यादें

जैसे चाहत भी कोई जुर्म हो और जुर्म भी वो
जिसकी पादाश2 में ताउम्र सज़ा दें यादें

भूल जाना भी तो इक तरह की नेअमत है ‘फ़राज़’
वरना इंसान को पागल न बना दें यादें

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1.जल्दी भूलने वाला 2. जुर्म की सज़ा

बुझा है दिल तो ग़मे-यार अब कहाँ तू भी
मिसाले साया-ए-दीवार1 अब कहाँ तू भी

बजा कि चश्मे-तलब2 भी हुई तही3 कीस:4
मगर है रौनक़े-बाज़ार अब कहाँ तू भी

हमें भी कारे-जहाँ5 ले गया है दूर बहुत
रहा है दर-पए आज़ार6 अब कहाँ तू भी

हज़ार सूरतें आंखों में फिरती रहती हैं
मेरी निगाह में हर बार अब कहाँ तू भी

उसी को अहद फ़रामोश क्यों कहें ऐ दिल
रहा है इतना वफ़ादार अब कहाँ तू भी


मेरी गज़ल में कोई और कैसे दर आए
सितम तो ये है कि ऐ यार अब कहाँ तू भी

जो तुझसे प्यार करे तेरी नफ़रतों के सबब
‘फ़राज़’ ऐसा गुनहगार अब कहाँ तू भी
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1.दीवार के साये की तरह 2. इच्छा वाली आँख 3. ख़ाली 4. झोली, कटोरा, प्याला 5. दुनिया, ज़माने वाला कार्य 6. तकलीफ़ और मुसीबत पहुँचाने पर प्रतिबद्ध

मैं दीवाना सही पर बात सुन ऐ हमनशीं मेरी
कि सबसे हाले-दिल कहता फिरूँ आदत नहीं मेरी

तअम्मुल1 क़त्ल में तुझको मुझे मरने की जल्दी थी
ख़ता दोनों की है उसमें, कहीं तेरी कहीं मेरी

भला क्यों रोकता है मुझको नासेह गिर्य:2 करने से
कि चश्मे-तर मेरा है, दिल मेरा है, आस्तीं मेरी

मुझे दुनिया के ग़म और फ़िक्र उक़बा3 की तुझे नासेह
चलो झगड़ा चुकाएँ आसमाँ तेरा ज़मीं मेरी

मैं सब कुछ देखते क्यों आ गया दामे-मुहब्बत में
चलो दिल हो गया था यार का, आंखें तो थीं मेरी

‘फ़राज़’ ऐसी ग़ज़ल पहले कभी मैंने न लिक्खी थी
मुझे ख़ुद पढ़के लगता है कि ये काविश4 नहीं मेरी

1. हिचकिचाहट, देरी, फ़िक्र, संकोच 2. रोना, विलाप, 3. परलोक 4. प्रयास




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