नेहरू बाल पुस्तकालय >> भोलू और गोलू भोलू और गोलूपंकज बिष्ट
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प्रस्तुत है कहानी भोलू और गोलू....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह भी कोई जिंदगी है।
यह छोटे भालू की कहानी है। सदा उदास रहने वाले भालू की। वह सर्कस में काम
करता था। उसका कोई दोस्त नहीं था। न ही वह किसी के साथ खेल पाता था। वह
दोस्ती करता भी तो किससे ? सर्कस जगह-जगह घूमता रहता। एकाध महीने से
ज्यादा कहीं नहीं रुकता था। जब किसी शहर में उनका तमाशा खत्म हो जाता तो
छोटे भालू को बड़ी खुशी होती। तब उसे एक पिंजरे में बंद कर दिया जाता था,
वह बुरा नहीं मानता था। हाथियों, घोड़ों, बकरियों, शेरों आदि के साथ उसे
भी रेल के डिब्बे में लाद दिया जाता।
वे छोटे भालू के आनन्द के दिन होते। इंजन सीटी मारता। पूरी सांस खींचकर जोर लगाता और हड़बड़ाकर डिब्बे चल पड़ते। पिंजरे एक दूसरे से टकराकर बज उठते। कभी कभी वह डर जाता। कहीं वह गिर तो नहीं जायेगा ? रेल चलने लगती ठंडी-ठंडी हवा लगती। डर धीरे-धीरे खत्म हो जाता। घर-मकान, आदमी-जानवर, शहर कस्बे एक के बाद एक पीछे को भागने लगते।। उसे बड़ा मजा आता। वह अपने पिंजरे से चारों ओर देखता जाता। नदी-नाले थे, पेड़-पौधे थे। वह रोने लगता और तब चुप होता जब रोल उसे लेकर उन पेड़ों-पहाड़ों से दूर निकल जाती।
यात्रा का खत्म होना उसे अच्छा नहीं लगता था। उतरते ही उसकी नाक में नकेल डाल दी जाती। मुँह पर पट्टी बाँध दिया जाता। सर्कस के अहाते के एक कोनें में उसका खूटा रहता था। अधिकांश समय उसे वहीं बंधा रहना पड़ता था।। सर्कस के विशाल तंबू, जानवरों के बदरंग पिंजरे और टीन की चादरों की चारदीवारी के अलावा, कोई नयी चीज नजर नहीं आती थी। यह भी कोई जिंदगी है—वह सोचा करता। न खेलना, न कूदना, हर समय बंधे पड़े रहो। यों उसकी उदासी बढ़ जाया करती। तब वह कई-कई दिनों तक गुमसुम पड़ा रहता। न किसी से बोलता न खेलता। यहां तक कि उसे खाना भी अच्छा नहीं लगता था।
वे छोटे भालू के आनन्द के दिन होते। इंजन सीटी मारता। पूरी सांस खींचकर जोर लगाता और हड़बड़ाकर डिब्बे चल पड़ते। पिंजरे एक दूसरे से टकराकर बज उठते। कभी कभी वह डर जाता। कहीं वह गिर तो नहीं जायेगा ? रेल चलने लगती ठंडी-ठंडी हवा लगती। डर धीरे-धीरे खत्म हो जाता। घर-मकान, आदमी-जानवर, शहर कस्बे एक के बाद एक पीछे को भागने लगते।। उसे बड़ा मजा आता। वह अपने पिंजरे से चारों ओर देखता जाता। नदी-नाले थे, पेड़-पौधे थे। वह रोने लगता और तब चुप होता जब रोल उसे लेकर उन पेड़ों-पहाड़ों से दूर निकल जाती।
यात्रा का खत्म होना उसे अच्छा नहीं लगता था। उतरते ही उसकी नाक में नकेल डाल दी जाती। मुँह पर पट्टी बाँध दिया जाता। सर्कस के अहाते के एक कोनें में उसका खूटा रहता था। अधिकांश समय उसे वहीं बंधा रहना पड़ता था।। सर्कस के विशाल तंबू, जानवरों के बदरंग पिंजरे और टीन की चादरों की चारदीवारी के अलावा, कोई नयी चीज नजर नहीं आती थी। यह भी कोई जिंदगी है—वह सोचा करता। न खेलना, न कूदना, हर समय बंधे पड़े रहो। यों उसकी उदासी बढ़ जाया करती। तब वह कई-कई दिनों तक गुमसुम पड़ा रहता। न किसी से बोलता न खेलता। यहां तक कि उसे खाना भी अच्छा नहीं लगता था।
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