नाटक एवं कविताएं >> भाग्य रेखा भाग्य रेखारामस्वरूप दुबे
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बाल साहित्य श्री एवं बाल साहित्य भूषण से विभूषित तथा बाल कविता के लिए विशिष्ट सम्मान से पुरस्कृत कविताएँ .....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भाग्य-रेखा
पढ़-लिख कर बाबू बनने का
सपना था सोहन का।
रोज शहर दौड़ा था लेकिन
काम न बनता उसका।।
एक दिवस सोहन बैठा था,
मुख नीचे लटकाये।
सिर के ऊपर हाथ धरा था,
आँसू थे टपकाये।।
उसकी यह हालत देखी तो
पिता बहुत चकराये।
बेटे को दुख हुआ सोचकर
मन ही मन घबराये।।
रहे देखते कुछ क्षण उसको,
फिर धीरे से बोले-
‘‘बेबस-से कब से बैठे हो,
अधर न अब तक खोले’’।।
‘‘मेरी तो किस्मत खोटी है-’’
सोहन लगा सुबकने।
और नयन से उसके फिर से
आँसू लगे टपकने।।
भटक रहा हूँ जगह-जगह पर,
काम न कोई मिलता।
पहिले ही यदि जाना होता,
कभी न लिखता-पढ़ता।।
आज सबेरे ही था मैंने
अपना हाथ दिखाया,
जिसे देखकर ज्योतिषी ने
मुझको यह बतलाया-
‘‘रेखाएँ हैं साफ बतातीं,
किस्मत तेरी खोटी।
कितना भी दौड़े-धूपे तू,
मिले न तुझको रोटी।।’’
‘‘नहीं-नहीं यह बात नहीं है’’-
कहा पिता ने उससे-
‘‘किस्मत की कुंजी उपाय है,
काम बनेगा जिससे।
रेखाएँ बदला करती हैं,
केवल अपने श्रम से।
काम बिगड़ जाते हैं सब ही,
केवल अपने भ्रम से।।
किस्मत को खोटेपन का भ्रम
मन से दूर भगाओ।
निर्धन ही धनवान बने हैं,
सोच-समझ मुस्काओ।।
सपना था सोहन का।
रोज शहर दौड़ा था लेकिन
काम न बनता उसका।।
एक दिवस सोहन बैठा था,
मुख नीचे लटकाये।
सिर के ऊपर हाथ धरा था,
आँसू थे टपकाये।।
उसकी यह हालत देखी तो
पिता बहुत चकराये।
बेटे को दुख हुआ सोचकर
मन ही मन घबराये।।
रहे देखते कुछ क्षण उसको,
फिर धीरे से बोले-
‘‘बेबस-से कब से बैठे हो,
अधर न अब तक खोले’’।।
‘‘मेरी तो किस्मत खोटी है-’’
सोहन लगा सुबकने।
और नयन से उसके फिर से
आँसू लगे टपकने।।
भटक रहा हूँ जगह-जगह पर,
काम न कोई मिलता।
पहिले ही यदि जाना होता,
कभी न लिखता-पढ़ता।।
आज सबेरे ही था मैंने
अपना हाथ दिखाया,
जिसे देखकर ज्योतिषी ने
मुझको यह बतलाया-
‘‘रेखाएँ हैं साफ बतातीं,
किस्मत तेरी खोटी।
कितना भी दौड़े-धूपे तू,
मिले न तुझको रोटी।।’’
‘‘नहीं-नहीं यह बात नहीं है’’-
कहा पिता ने उससे-
‘‘किस्मत की कुंजी उपाय है,
काम बनेगा जिससे।
रेखाएँ बदला करती हैं,
केवल अपने श्रम से।
काम बिगड़ जाते हैं सब ही,
केवल अपने भ्रम से।।
किस्मत को खोटेपन का भ्रम
मन से दूर भगाओ।
निर्धन ही धनवान बने हैं,
सोच-समझ मुस्काओ।।
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