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नकली गढ़

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : इण्डियन बुक बैंक प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :24
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6243
आईएसबीएन :81-8115-012-0

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राजस्थान की एक वीर गाथा है। कहते हैं कि एक बार चित्तौण के महाराज ने वैर-वश यह प्रण ठान लिया कि ‘जब तक बूंदीगढ़ को तबाह और बर्बा नहीं करता, तब-तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगा।’

Nakali Garh A Hindi Book Ravindranath Tagore

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नक़लीगढ़


राजस्थान की एक वीर गाथा है। कहते हैं कि एक बार चित्तौण के महाराज ने वैर-वश यह प्रण ठान लिया कि ‘जब तक बूंदीगढ़ को तबाह और बर्बा नहीं करता, तब-तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगा।’

राजा का यह दृढ़ प्रण-सुनकर सभी मंत्रीगण चिंतित हो उठे और बोले- ‘‘हाय महाराज, यह कैसा प्रण ठान लिया आपने ? बूंदीगढ़ ध्वस्त करना भला किसके बलबूते की बात है ? हाड़ा वीरों का बूंदीगढ़ सदा अजेय रहा है और रहेगा। यह कार्य साध्य नहीं है। अत: हठ छोड़िए।’’


राजा हठ ठाने रहे और बोले- ‘‘असाध्य हो चाहे साध्य, मैं सिद्ध करके रहूंगा। यह मेरा दृढ़ प्रण है।’’
बूंदीगढ़ चित्तौढ़ से कोई तीन कोस की दूरी पर ही था। वहाँ के हाड़ावंश के एक-एक वीर का बांकपन निराला था। दुर्ग की रक्षा में वे वीर प्राणपन से जुटे थे।

वहाँ के हामू राजा ने सारे गढ़ को फौजी छावनी बना रखा था। किसकी मजाल थी कि जो गढ़ की तरफ टेढ़ी नजर डाल सके, गढ़ को जीतना तो दूर की बात रही। स्वयं चित्तौण के राजा ने कई बार प्रयत्न करके देख लिया था, परख लिया था कि बूंदीगढ़ को जीतना नाकों चने चबाना था।


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