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मनोरंजक कथाएँ >> बात का धनी

बात का धनी

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : शारदा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6263
आईएसबीएन :81-85023-26-3

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बात का धनी आत्माभिमान की कहानी .......

Baat Ka Dhani A Hindi Book by Chatursen Shastri - बात का धनी - आचार्य चतुरसेन

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

केसरी सिंह की रिहाई

वसन्त का मौसम था। धूप निकल रही थी। महल की दीवारें पत्थर के टुकड़ों की थी, इनमें खिड़कियाँ लगीं हुई थी। जिनमें से होकर सूर्य का प्रकाश वहाँ पड़ रहा था। महल का फर्श स्वच्छ मकराने के पत्थरों का था। महाराणा मध्य-बिंदु की भाँति, बीच में एक शीतल पाटी पर बैठे थे।

उनका कद मझोला, मूँछें एक-आध पकी हुई थी, रंग सांवला, आँखें बड़ी-बड़ी थी। दाढ़ी नहीं थी वह बदन पर एक रेशमी बहुमूल्य चादर डाले थे। सिर पर दूध के झाग के समान सफेद पगड़ी थी, जिस पर एक बड़ा-सा लाल तुर्रा लगा था। गले में पन्ने का एक अत्यन्त मूल्यवान कण्ठा था। उनका सीना चौड़ा, उठान ऊँची और शरीर बलवान तथा फुर्तीला था। उसकी कमर में पीले रंग की धोती थी। उनके सिर के बाल काले और बड़ी-ब़ड़ी आंखें मस्ती में भरपूर थी।

महाराणा के दाहिने हाथ पर उनके ज्येष्ठ पुत्र कुमार भीमसिंह बैठे थे। दोनों के मध्य बीच-बीच में धीमे बातें हो रही थी। कुछ, सरदार कान लगाकर बातें सुन रहे थे और कुछ खाने में लगे हुए थे।

‘‘बादशाह आलमगीर से जो यह नई संधि हुई, यह हम दोनों के लिए शुभ है। अब देखना यही है कि धूर्त बादशाह उसका पालन करता भी है या नहीं।’’ महाराणा ने सहज गम्भीर स्वर में कुँवर भीम सिंह से कहा।
कुमार ने कुछ खिन्न होकर कहा, ‘‘रावरी जैसे मर्जी हुई, वहीं हुआ। परन्तु आलमगीर पर कभी विश्वास नहीं किया जा सकता वह पूरा धूर्त और दुष्ट आदमी है।’’

महाराणा ने जरा ऊंचे, किंतु मृदु स्वर से कहा-‘‘इस संधि से दो शत्रु परस्पर मित्र हो जाएगें। देश की बिगड़ी दशा सुधरेगी। कृषि-व्यापार और व्यवस्था ठीक होगी । देश में अमन-अमान कायम होगा।’’
एक सरदार ने खाते-खाते कहा, ‘‘घणी खम्मा अन्नदाता, हम तो चारों तरफ से लूट-मार और जुल्म के समाचार सुन रहे हैं। संधि हुए अभी एक मास भी नहीं हुआ।


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