विभिन्न रामायण एवं गीता >> भगवती गीता भगवती गीताकृष्ण अवतार वाजपेयी
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गीता का अर्थ है अध्यात्म का ज्ञान ईश्वर। ईश्वर शक्ति द्वारा भक्त को कल्याण हेतु सुनाया जाय। श्रीकृष्ण ने गीता युद्ध भूमि में अर्जुन को सुनाई थी। भगवती गीता को स्वयं पार्वती ने प्रसूत गृह में सद्य: जन्मना होकर पिता हिमालय को सुनाई है।
भगवती का भूभार हरण हेतु कृष्णावतार
श्री महादेव जी ने नारद जी को बताया कि एक समय की बात है, परम कौतुकी भगवान शङ्कर कैलास शिखर पर एक सुन्दर मन्दिर में एकाना में पार्वती के साथ विहार कर रहे थे। पार्वती के सुन्दर रूप को देखकर शिव ने मन में विचार किया कि नारी जन्म तो मनोहर है। तभी पार्वती के मुखकमल का स्पर्श करके सर्वांग सुन्दरी भगवती से कहा-'परमेशानी! आपकी कृपा से मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हैं, फिर भी शर्वाणि! मेरी एक इच्छा और है उसे पूरा कर दीजिये।'' देवीजी ने कहा-"बताइये, आप की प्रसन्नता के लिये मैं उसे भी पूरा करूँगी।'' शिवजी ने कहा-''आप पृथ्वीतल पर कहीं भी पुरुष रूप से अवतीर्ण हों और मैं स्त्री रूप से अवतीर्ण होऊँगा। अभी मैं पति हूँ आप प्राणप्रिया वैसा ही दाम्पत्य प्रेम उस समय भी हो।'' श्रीदेवी जी ने कहा-''आप की प्रसन्नता हेतु मैं पृथ्वी पर वसुदेव के घर में पुरुष रूप में श्रीकृष्ण होकर अवतीर्ण होऊंगी, आप भी स्त्री रूप में
जन्म लें।'' शिवजी ने तत्सण कहा-''शिवे। स्वयं मैं आप की प्राणसदृश वृषभानु पुत्री राधा रूप में आप के साथ विहार करूँगा। मेरी आठों मूर्तियाँ भी सुन्दर नेत्रों वाली रुक्मिणी, सत्यभामा आदि पृथ्वी पर अवतार लेंगी।'' देवी ने शिवजी से कहा-''मैं आपकी सभी मूर्तियों से यथोचित विहार करूँगी। यह पुण्य उपाख्यान प्राणियों के पाप नाश करने वाला तथा पुण्य प्रदान करने वाला होगा। विजया और जया दोनों मेरी सखियाँ श्रीदामा और वसुदामा नाम वाले पुरुष होंगे। श्री विष्णु से मेरी प्रतिज्ञा है कि उस समय वह मेरे बड़े भाई होंगे। सदा मेरा प्रिय करने वाले, बलशाली तथा आयुध के रूप में हल लेने से बलराम नाम वाले होंगे। मैं पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर देवताओं का कार्य करके वापस चली आऊँगी।'' प्रेम भावना से शम्भु से ऐसी प्रतिज्ञा के कारण श्याम वर्ण वाले श्री कृष्ण के रूप में वे भगवती अवतीर्ण हुईं थी। इसमें भी भगवती की भद्रकाली मूर्ति ने वसुदेव के घर में पुरुष रूप में जन्म लिया। देवकी गर्भ से दो बाहुओं वाला सौम्यरूप लेकर वनमाला से शोभित श्रीवत्सचिन्ह को लिये सर्वाङ्गसुन्दर श्यामावतार हुआ। देवताओं का पाण्डव रूप में अवतार हुआ। भगवती अंश से कृष्णा (द्रौपदी) का जन्म हुआ। भगवती ने ब्रह्मा को पहले ही महाभारत में दुष्ट राजाओं के अन्त का भविष्य बता दिया था। एक समय प्रजापति कश्यप और अदिति ने भगवती की कठोर तपस्या कर भगवती से लीला जन्म वरदान में माँगा था जिसके फलस्वरूप कश्यप वसुदेव और अदिति कंस की बहन देवकी और रोहिणी ने दो रूपों में जन्म लिया। कंस देवकी के नवजात पुत्रों का वध कर देता था। देवी जी ने कहा-''मैं दो रूपों में पृथ्वी पर रोहिणी और यशोदा के गर्भ में जाऊँगी। एक ही समय में देवकी के गर्भ से पुरुष रूप में तथा यशोदा के गर्भ से स्त्री रूप में लीलापूर्वक उत्पन्न होऊँगी। तब वसुदेव मुझे गोकुल में यशोदा की गोद में रखकर और यशोदा के यहाँ से बालिका को लाकर कंस को दे दें। वह यह सब नही जान पायेगा।'' जन्म लेने पर बालक ने माता देवकी को बताया कि मैं जगत का संहार करने वाली आदिशक्ति परा विद्या हूँ। आपके पूर्वतप से प्रसन्न होकर भगवान शिव की सम्मति से मायामयी श्रेष्ठ पुरुषाकृति में आपके गर्भ से उत्पन्न हुई हूँ।
देवकी के द्वारा आश्चर्य व्यक्त करते हुए प्रार्थना करने पर बालक ने अपना देवी रूप दिखा दिया। कमलनयन श्रीकृष्ण तत्काल शवारूढ़, भयानक मुखाकृतिवाली भगवती काली रूप में प्रकट हो गये। उनकी चार भुजाएँ, तीन नेत्र, लपलपाती हुई भीषण जीभ थी। खुले लम्बे केशपाश से पीठ ढकी हुई तथा सुन्दर किरीट पहने हुईं थी। चित्राकर्षक वनमाला मुण्डमाला हो गई। बालक को काली रूप में देखकर देवकी ने वसुदेव को बुलाकर वह सुन्दर रूप दिखाया। इस रूप को देखकर वसुदेव की प्रार्थना पर भगवती ने अपना सौम्य और दस भुजाओं वाला रूप दिखाया जिसे देखकर वसुदेव ने स्तुति की-
त्वं माता जगतामनादिपरमा विद्यातिसूक्ष्मात्मिका
त्वं तावज्जनकोऽष्यनादिपुरुध पूर्णः स्वयं चिन्मयः।
स्वं विश्वासि तथैव विश्ववनिता विश्वाश्रया विश्वगा
त्वत्तोऽत्यन्नहि किंचिदस्ति भुवने विश्वेशि तुभ्यं नमः।।1।।
आप जगत की माँ हैं, अनादि हैं, पराविद्या हैं, अति सूक्ष्मस्वरूपिणी हैं, आप ही संसार के पिता भी हैं, आप पूर्ण चिन्मयस्वरूप साक्षात् अनादि पुरुष हैं। आप विश्वरूप हैं समस्त स्त्रियों के रूप र्मे आप ही प्रतिष्ठित हैं, आप विश्व का आश्रय हैं, आप विश्वव्यापिनी हैं, आप से अतिरिक्त अन्य कोई भी इस त्रिभुवन में नहीं है। विश्वेशि! आपको नमस्कार है।
त्वं सृष्टी चतुरानना स्थितिविधौ विष्णु: परात्मा प्रभुः
संहृत्यामतिभीमरूपचरितो रुद्रः पिनाकास्त्रधृक्।।1।।
तेषां सृष्टिविनाशपालनविधौ त्वं कालिकैका परा
नित्या ब्रह्ममयी प्रसीद परमे कृष्णे जगद्वन्दिते।।2।।
सृष्टि कार्य र्मे आप ही चतुर्मुख ब्रह्मा के रूप में हो, पालन में आप ही परमात्मा प्रभु विष्णु हो, तथा संहार कार्य में आप ही अत्यन्त भयानक रूप तथा चरित्र वाले पिनाकास्त्रधारी रुद्र रूप हो जाती हैं। उनके सृजन पालन तथा संहारकार्य में ब्रह्ममयी, परा तथा नित्य स्वरूपिणी एकमात्र आप कालिका ही हेतु हैं। जगद्वन्दिते! परमे! कृष्णे! आप मुझ पर प्रसन्न हों।
त्वं सूक्ष्मा प्रकृतिर्निराकृतिसुताख्याता जगदव्यापिनी
स्त्रीपुंक्लीबविभेदतस्लयि पुनः स्त्रीत्वाद्यभावः सदा।
तत्त्वं से न विदन्ति केचन जगत्यत्राम्बिके तत्कथं
शक्तः स्तोतुमहं भवामि परमं ब्रह्मा स्वयं मूढधीः।।३।।
आप सूक्ष्मा प्रकृति हैं, आप निराकार होते हुए भी मेरे यहां पुत्र रूप में प्रकट हुईं हैं, आप जगत् में व्याप्त हैं, आप में सदैव स्त्रीत्वादि का अभाव रहने पर भी आप स्त्री, पुरुष और नपुंसक भेद से संसार में व्याप्त हैं। इस जगत् में कोई भी आपका यथार्थ रहस्य नर्ही जान सकता तथा परमेष्ठी भगवान ब्रह्मा भी इसर्मे मूढ़बुद्धि हो जाते हैं। अम्बिके! मैं आप की स्तुति करने में भला कैसे समर्थ हो सकता हूँ।
नमोऽस्तु विश्वमोहिन्यै गौर्यै त्रिदशवन्दिते।
नमस्ते कृष्णरूपिण्यै मायापुरुषरूपिणी।।4।।
देवताओं द्वारा वन्दनीय भगवती! विश्व को मोहित करने वाली आप गौरी को नमस्कार है। मायापुरुष रूपिणी! कृष्णरूप धारण करने वाली भगवती को प्रणाम है। वसुदेव की इस स्तुति के बाद भगवती तत्णक्ष कमलनयन बालक रूप श्री कृष्ण हो गई तथा यशोदा के यहाँ पहुँचाना और वहाँ से कन्या लाना आदि की पूर्ण योजना वसुदेव को बता दी। वसुदेव ने भी वैसा ही किया। कंस द्वारा शिला पर कन्या को पछाड़ने के पूर्व ही वह हाथ से छिटककर आकाश में सिंह की पीठ पर बैठकर बोली-
दुष्ट! मैं ही अपने अंश से माया के प्रभाव से देवकी के गर्भ से उत्पन्न होकर गोकुल में नन्दगोप के घर में विराजमान हूँ।
एक दिन पूतना श्रीकृष्ण को देखने नन्द के घर आई। श्रीकृष्ण ने उसे देखते ही आँखें बन्द कर लीं। बालक की मनोहरता की प्रसंशा करके पूतना ने उसे गोद में उठा लिया। श्रीकृष्ण ने राक्षसी पूतना को पहचान कर ओष्ठके द्रारा प्राणों सहित दुग्धपान कर लिया। भूमि पर पड़ी उसके वक्षःस्थल पर भयानक मुखवाली, मुण्डमाला से सुशोभित दूसरी कालिका देवी के रूप र्मे विराजित होने लगे। भगवती काली ने क्षणार्ध में उसके शरीर से हटकर श्यामवर्ण बालक कृष्ण का रूप धर लिया। यह सब देखकर आश्चर्यचकित ब्रजवासी जनों ने श्री कृष्ण को परात्पर आद्या शक्ति के रूप में माना। तत्पश्चात् नन्द ने भगवती की विधिवत् पूजा की। दूसरी घटना है कि एक दिन एकान्त में बैठे श्रीकृष्ण को असुर तृणावर्त उड़ा ले गया। उसकी गोद में विराजमान श्रीकृष्ण मुसकराकर तत्क्षण ब्रह्मरूपिणी काली के रूप में प्रकट हो गये, वे बाघम्बर धारण किये थीं। उनकी गर्जना से वह मूच्छित होकर गिर पड़ा। तब भगवती काली ने खड्ग से उसका सिर काट कर पुनः बालक रूप ले लिया था।
उधर भगवान शिव वृषभानु के घर में अपनी लीला से स्त्री रूप में जन्म लेकर 'राधा' नाम से प्रसिद्ध हुए। वे राधा प्रतिदिन कमलनयन कृष्ण के पास जातीं और उनको गोद में लेकर आदर से देखा करती थी। श्री कृष्ण के साथ रोहिणी पुत्र बलराम, श्रीदाम और वसुदाम क्रीड़ा करते थे।
श्रीकृष्ण गोकुल में रहने लगे और गोपियों के साथ विहार करते। कभी राधिका जी कमल के समान पञ्चमुख भगवान शिव का सुन्दर रूप धारण कर लेती थीं और स्वयं श्री कृष्ण गौरी के रूप में होकर उनके साथ विहार करते, रास रचते रहते थे। श्रीकृष्ण स्वरूप परमेश्वरी ने स्त्री रूप शम्भु के साथ चीर हरण आदि महाक्रीड़ाएं भी की। भगवान शिव भी स्त्री रूप से आठ विग्रहों में होकर श्रीकृष्ण स्वरूपिणी भगवती की प्रतीक्षा करते हुए रहते थे। पाण्डव हस्तिानपुर में रहते थे। भगवान शम्भु के अंश से उत्पन्न रुक्मिणी स्वयंवर के पूर्व दुर्गा पूजन को सखिर्यो के साथ जा रही थीं। मार्ग में श्रीकृष्ण का स्मरण कर रही थीं। तभी कृष्ण ने आकर रुक्मिणी का हरण कर लिया। शिवांश से उत्पन्न जाम्बवती आदि अन्य सात कन्याओं को भी श्रीकृष्ण ने पत्नी रूप में ग्रहण किया।
कौरव और पाण्डवों में युद्ध की तैयारी होने लगी। एक समय पाण्डव भगवती कामाख्या के दर्शन हेतु गये जहाँ शिव जी ने तप किया था। पाण्डवों ने विधानपूर्वक देवी भगवती का पूजन किया और राज्य प्राप्ति का वर माँगा। भगवती ने प्रसन्न होकर कहा कि मैं अपनी मायालीला से श्रीकृष्ण रूप में और विष्णु अर्जुन के रूप में उत्पन्न हुए हैं। मैं कृष्ण रूप में तुम्हारी सहायता करूँगी। तब युधिष्ठिर ने परमेश्वरी की इस प्रकार स्तुति की-
युधिष्ठिर उवाच
नमस्ते परमेशानि ब्रह्मरूपे सनातनि।
सुरासुरजगद्वन्धे काभेश्वरि नमोऽस्तु से।।1।।
न ते प्रभावं जानन्ति वसाद्यास्त्रिदशेश्वराः।
प्रसीद जगतामाद्ये कामेश्वरि नमोऽस्तु ते।।2।।
अनादिपरमा विद्या देहिनां देहधारिणी।
त्यमेवासि जगद्वन्धे कामेश्वरि नमोग्स्तु ते।।3।।
त्यं बीजं सर्वभूतानां त्वं बुद्धिश्चेतना धृतिः।
त्यं प्रबोथश्च निद्रा च कामेश्वरि नमोऽस्तु ते।।4।।
त्वामाराध्य महेशोऽपि कृतकृत्यं हि मन्यते।
आत्मानं परमात्माऽपि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते।।5।।
दुर्वृत्तवृत्तसंसर्त्रि पापपुण्यक्लप्रदे।
लोकानां तापसंहत्रि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते।।6।।
त्वमेका सर्वलोकाना सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी।
करालवदने कालि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते।।7।।
प्रपन्नार्तिहरे मातः सुप्रसन्नमुखाम्बुजे।
प्रसीद परमे पूणे कामेश्वरि नभोऽस्तु ते।।8।।
त्वामाश्रयन्ति ये भक्त्या यान्ति चाश्रयतां तु से।
जगतां त्रिजगद्धात्रि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते।।9।।
शुद्धज्ञानमये पूणे प्रकृतिः सृष्टिभाविनी।
त्यमेव मातर्विश्वेशि कामेश्वरि नमोऽस्तु ते।।1०।।
युधिष्ठिर ने स्तुति की-
'ब्रह्मरूपा सनातनी परमेश्वरी! आपको नमस्कार है। देवों, असुरों एवं समस्त विश्व द्वारा वन्दित कामेश्वरी! आप को नमस्कार है। संसार की आदिकारण भूता कामेश्वरी! आपके प्रभाव को ब्रह्मादि देवेश्वर नहीं जानते हैं। आप प्रसन्न हों, आपको नमस्कार है। जगद्वन्द्व। आप अनादि, परमा, विद्या तथा देहधारिर्यो की देह को धारण करने वाली हैं। कामेश्वरी! आपको नमस्कार है। आप सभी की बीजरूपा हैं, आप ही बुद्धि, चेतना तथा धृति हैं, आप ही जागृति और निद्रा हैं, कामेश्वरी! आपको नमस्कार है। आप की आराधना करके परमात्मा शिव भी स्वयं को कृतकृत्य मानते हैं। कामेश्वरी। आपको नमस्कार है।
"दुराचारियों के दुराचरण का संहार करने वाली, पाप-पुण्य का फल देने वाली और समस्त लोकों के ताप का नाश करने वाली भगवती कामेश्वरी! आपको नमस्कार है। आप ही केवल सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि, स्थिति और विनाश करने वाली हैं। विकराल मुखवाली काली कामेश्वरी। आपको नमस्कार है। शरणागतों की पीड़ा का नाश करने वाली, कमल के समान सुन्दर एवं प्रसन्न मुखवाली माता! आप प्रसन्न हो, परमे! पूणे! कामेश्वरी! आपको नमस्कार है; जो भक्तिपूर्वक आप के शरणागत हैं, वे इस जगत् को शरण देने योग्य हो जाते हैं। तीनों लोकों का पालन करने वाली देवी कामेश्वरी! आपको नमस्कार है। आप शुद्ध ज्ञानमयी, सृष्टि को उत्पन्न करने वाली पूर्ण प्रकृति हैं। आप ही विश्वमाता हैं, कामेश्वरी! आप को नमस्कार है।''
पाण्डवों का वनवास काल था। भगवती युधिष्ठिर की स्तुति से प्रसन्न हो अज्ञातवास के लिये मत्स्य देश के राजा विराट का स्थान बताकर अन्तर्धान हो गई हैं। पाण्डव विराट नृप के यहाँ ख्य वेष में रहने लगे। वहाँ द्रौपदी का छद्य नाम सैरन्ध्री था। एक दिन राजा विराट के साले की कुदृष्टि सैरन्धी पर पड़ गई। उसने उसे अपने महल में बुलाया तथा शीलहरण की कुचेष्टा की। उस समय द्रौपदी ने शिवा की इस प्रकार स्तुति की-
द्रौपद्युवाच
देवि दुर्गे जगमातः सर्वरक्षणकारिणि।
प्रसीद त्वप्टपन्नानां दुःखदारिद्रधनाशिनी।।1।।
दुष्टस्तम्भिनि विश्वेशि कात्यायनि महेश्वरि।
विश्वमोहिनि विश्वेशे चितिरूपे नमोऽस्तु ते।।2।।
महामोहस्वरूपा त्वं शुद्धज्ञानस्वरूपिणी।
ये त्वां स्मरन्ति संसारे ते दुगार्त्रिस्तरन्ति हि।।3।।
पातिवत्यस्वरूपा त्वं साध्यीनां जगदम्बिके।
निस्तारय भयाद्धोराच्छङ्गरप्राणवल्लभे।।4।।
त्वमेव देवि दीनाना सदासि परमागति।
त्वामहं शरणं प्राप्ता त्राहि मां धोरसझटात्।।5।।
द्रौपदी ने प्रार्थना की-
''शरणागर्तो का दुःख-दारिद्रय विनाश करने वाली, सबकी रक्षा करने वाली जगज्जननी देवी दुर्गा! आप प्रसन्न हों! दुष्टों को स्तम्भित करने वाली, विश्व को मोहित करने कली, चैतन्यरूपिणी, विश्व की अधिष्ठत्री विश्वेश्वरी! कात्यायनी! महेश्वरी! आपको नमस्कार है। दुर्गा! आप मोहस्वरूपा और शुद्ध ज्ञान स्वरूपा हैं, विश्व में जो आपका स्मरण करते हैं वे संकटों से पार हो जाते हैं। जगदम्बिका! आप सती स्त्रियों की पतिव्रत्यस्वरूपा हैं, भगवान शङ्कर की प्राणप्रिया हैं! दारुण भय से मेरा ध्यार कीजिये।
देवी! आप दीनजनों की सदा परमगति हैं। मैं आपकी शरण में हूँ। भयानक संकट से मेरी रक्षा कीजिये।''
देवी ने द्रौपदी को निर्भय रहने का वरदान दिया और कीचक मारा गया। महाकाली कृष्ण रूप से अपनी सेना दुर्योधन को देकर स्वयं पाण्डवों के पास चली गई। युद्ध प्रारम्भ होने के पूर्व पाण्डवों ने विजय हेतु देवी की प्रार्थना की-
पाण्डवा ऊचुः
कात्यायनि त्रिदशवन्दितपादपद्ये
विश्वोद्धवस्थितिलयैकनिदानरूपे।
देवि प्रचण्डदलिनि त्रिपुरारिपलि
दुर्गे प्रसीद जगता परमार्तिह्मइन्त्र।।1।।
देवगणों द्वारा पूजित चरण कमलों वाली तथा संसार के उद्धव, पालन और संहार की कारणस्वरूपिणी कात्यायनी। भीषण दुष्टों का नाश करने वाली देवी! त्रिपुरारि पत्नी। संसार के महान् कष्टों को दूर करने वाली दुर्गा! प्रसन्न हों।
त्वं दुष्टदैत्यविनिपातकरी सदैव
दुष्टप्रमोहनकरी किल दुःखहन्त्री।
त्वां यो भजेदिह जगन्मयि तं कदापि
नो बाधते भवसु दुःखमचिज्यरूपे।।2।।
आप सदा दुष्ट दैत्यों का संहार करती हैं, दुष्टों को विमोहित करती हैं तथा भक्तों के दुःख का हरण करती हैं। जगद्व्यापिनी! अचित्त्वरूपा! जो प्राणी त्रिलोकी में आप की आराधना करता है उसे कोई कष्ट कभी भी पीड़ित नही करता।
त्वामेव विश्वजननीं प्रणिपत्य विश्व
ब्रह्मा सृजत्यवति विष्णुरहोत्ति शम्भुः।
काले च तान्सृजसि पासि विहंसि मात-
स्त्वल्लीलयैव नहि तेऽस्ति जनैर्विनाशः।।३।।
जगज्जननी आप भगवती को प्रणाम करके ही ब्रह्मा जगत की सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं, शिव संहार करते है। माँ! आप समय-समय पर स्वलीला से उनका (तीनों देवों का) भी सृजन, पालन और विनाश करती हैं किन्तु आपका नाश किसी से कभी नहीं होता।
त्वं यै स्मृता समरमूर्धनि दुःखहन्त्रि
तेषां तनून्नहि विशन्ति विपक्षबाणाः।
तेषां शरास्तु परगात्रनिमग्नपुंखा
प्राणान्यसन्ति दनुजेन्द्रनिपातकर्त्रि।।4।।
दुःखों का विनाश करने वाली भगवती! जो लोग युद्धक्षेत्र में आपका स्मरण करते हैं उनके शरीर में शत्रुओं के बाण प्रवेश नही कर पाते। अपितु श्रेष्ठ राक्षसों का संहार करने वाली देवी! शत्रुओं के शरीर में पूँछ तक प्रविष्ट होने वाले उनके बाण उन शत्रुओं के प्राण हर लेते हैं।
यस्त्वन्मनुं जपति घोररणे सुदुर्गे
पश्यन्ति कालसदशं किल सं विपक्षाः।
त्वं यस्य वै जयकरी खलु तस्य वक्ताद्
खह्माक्षरात्मकमनुस्तव निःसरेच्च।।5।।
जो मनुष्य अत्यन्त दुर्गम तथा भीषण युद्ध मे आपके मंत्र का जप करता है, शत्रुगणों को वह साक्षात् काल के समान दिखाई देता है। जिसके मुख से आप का ब्रह्माक्षरस्वरूप मन्त्र उच्चरित होता है आप निश्चित रूप से उसे विजय प्रदान करती हैं।
त्वामाश्रयन्ति परमेश्वरि ये भयेषु
तेषां भयं नहि भवेदिह वा परत्र।
तेभ्यो भयादिह सुदूरत एवं दुष्टा-
स्त्रस्ताः पलायनपराश्च दिशो द्रवन्ति।।6।।
हे परमेश्वरी! जो लोग भय की स्थितियों में आपका आश्रय ग्रहण करते हैं, उन्हें इस लोक में तथा परलोक में कहीं भी भय नहीं होता, दूर से ही उनसे भयभीत होकर दुष्ट जन त्रस्त होते हुए चारों दिशाओं में भाग खड़े होते हैं।
पूर्वे सुरासुररणे सुरनायकस्त्वां
सम्प्रार्थयन्नसुरवृन्दमुपाजघान।
रामोऽपि राक्षसकुलं निजधान तद्व-
त्त्वत्सेवनादृत इह्मस्ति जयो न चैव।।7।।
पहले देवासुर संग्राम में देवराज इन्द्र ने आपकी आराधना करके ही राक्षस समुदाय का संहार किया था तथा उसी भाति श्री रामचन्द्र ने भी आपकी उपासना करके राक्षस कुल का वध किया था। देवी। आप की आराधना के बिना यहाँ विजय सम्भव नहीं है।
तत्त्वा भजामि जयदा जगदेकवच्छां
विश्वाश्रयां हरिविरञ्चिसुसेव्यपादाम्।
त्वं नो विधेहि विजयं त्वदनुग्रहेण
शमूत्रिपात्य समरे विजयं लभामः।।8।।
अस्तु, हम विजय प्रदान करने वाली, संसार के प्राणियों द्वारा एकमात्र वन्दनीया, विश्व की आश्रय स्वरूपिणी, ब्रह्मा और विष्णु द्वारा भलीभाति पूजित चरणो वाली आप भगवती की आराधना करते हैं। आप हम लोगों को विजय प्रदान कर्रे, आप की कृपा से ही हम लोग संग्राम में शत्रुओं का संहार करके विजय प्राप्त करें। भगवती ने प्रसन्न होकर विजय का वर दिया। महाभारत युद्ध में पाण्डवों की विजय हुई।
एक समय ब्रह्माजी द्वारकापुरी आये और श्री कृष्ण से कहा- भगवान शम्मु की सम्मति से आप मायापुरुष के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुइं। शम्प्र ने अपने मन में जो अभिलाषा की थी उसे भी पूर्ण कर दिया। अब आप अपने धाम पहुंचकर अपना वास्तविक रूप धारण कीजिये। श्यामसुन्दर रूपिणी उन जगदीश्वरी ने स्वर्गारोहण का मन बनाकर मंत्रियों द्वारा पाण्डव आदि इष्टमित्रों को बुलाकर सागर तट पर एकत्र किया। श्रीकृष्ण विप्रों को धन देकर बलराम जी तथा स्त्रियों सहित सागर किनारे आ गये। नन्दी सिंह के द्वारा खींचा जाने वाला रत्नजड़ित रथ लेकर अन्तरिक्ष में आ गये। ब्रह्मा जी भी कई रथ लेकर अन्तरिक्ष में शोभायमान हो गये। कमलसदृश नेत्रों वाले श्रीकृष्ण अचानक काली रूप धारण कर सिंह द्वारा र्खीचे जाने वाले रथ पर आरूढ़ होकर देवताओं तथा मुनीश्वरों से वन्दित होकर कैलास के लिये प्रस्थान कर गये। समुद्र जल का स्पर्श कर द्रौपदी काली के विग्रह में समाविष्ट हो गइं। बलराम तथा अर्जुन भी सागर जल स्पर्श कर स्वदेह त्यागकर नव जलधर सदृश शंख, चक्र, गदा और पद्य से सुशोभित हो चतुर्भुज रूप में गरुड़ारूढ होकर वैकुण्ठको प्राप्त हुए। रूक्मिणी आदि आठ पटरानियाँ शिव विग्रह धारण कर अपने श्रेष्ठ लोक को चली गई। श्रीकृष्ण की अन्य स्त्रियां पूर्व की भाति भैरव रूप हो गईं। इस तरह श्यामसुन्दर रूपवाली भगवती पृथ्वी का भार मिटाने शिव की इच्छा से अवतरित हुइं थॉ, कार्य करके पुन : अपने लोक को प्राप्त हुई। जो जगदम्बिका के कृष्णावतार का चरित्र सुनते हैं, या पढ़ते हैं, वे अतुलनीय सुख प्राप्त कर अन्त में देवी पद प्राप्त करते हैं।
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- अपनी बात
- कामना
- गीता साहित्य
- भगवती चरित्र कथा
- शिवजी द्वारा काली के सहस्रनाम
- शिव-पार्वती विवाह
- राम की सहायता कर दुष्टों की संहारिका
- देवी की सर्वव्यापकता, देवी लोक और स्वरूप
- शारदीय पूजाविधान, माहात्म्य तथा फल
- भगवती का भूभार हरण हेतु कृष्णावतार
- कालीदर्शन से इन्द्र का ब्रह्महत्या से छूटना-
- माहात्म्य देवी पुराण
- कामाख्या कवच का माहात्म्य
- कामाख्या कवच
- प्रथमोऽध्यायः : भगवती गीता
- द्वितीयोऽध्याय : शरीर की नश्वरता एवं अनासक्तयोग का वर्णन
- तृतीयोऽध्यायः - देवी भक्ति की महिमा
- चतुर्थोऽध्यायः - अनन्य शरणागति की महिमा
- पञ्चमोऽध्यायः - श्री भगवती गीता (पार्वती गीता) माहात्म्य
- श्री भगवती स्तोत्रम्
- लघु दुर्गा सप्तशती
- रुद्रचण्डी
- देवी-पुष्पाञ्जलि-स्तोत्रम्
- संक्षेप में पूजन विधि