विभिन्न रामायण एवं गीता >> भगवती गीता भगवती गीताकृष्ण अवतार वाजपेयी
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गीता का अर्थ है अध्यात्म का ज्ञान ईश्वर। ईश्वर शक्ति द्वारा भक्त को कल्याण हेतु सुनाया जाय। श्रीकृष्ण ने गीता युद्ध भूमि में अर्जुन को सुनाई थी। भगवती गीता को स्वयं पार्वती ने प्रसूत गृह में सद्य: जन्मना होकर पिता हिमालय को सुनाई है।
प्रथमोऽध्यायः : भगवती गीता
नारद उवाच
बूहि देव महेशान यथा सा परमेश्वरी।
बभूव मैनकागर्भे पूर्णभावेन पार्वती।।1।।
नारद ने कहा-हे शिव। परमेश्वरी सती जिस प्रकार अपने पूर्णावतार में पार्वती रूप से मेनका के गर्भ में आयीं उस कथा को कृपापूर्वक कहिए।।1।।
श्रुतं बहुबुराणेषु ज्ञायतेऽपि च यद्यपि।
जमकर्मादिकं तस्यास्तथापि परमेश्वर।।2।।
हे परमेश्वर! यद्यपि उन जगदम्बा के जन्म-कर्मादि की कथा अनेक पुराणों में सुनी है और मालूम भी है।।2।।
श्रोतु समिष्यते त्यत्तो मतस्य वेत्सि तत्त्वतः।
तद्वदस्व महादेव विस्तरेण महामते।।3।।
हे महामते! उस कथा को मैं आपसे भली भाँति सुनना चाहता हूँ क्योंकि आप ही इस वृत्तान्त को अच्छी तरह जानते हैं। हे महादेव! अतः कृपा कर विस्तारपूर्वक वह कथा कहें।।३।।
श्री महादेव उवाच
त्रैलोक्यजननी दुर्गा ब्रह्मरूपा सनातनी।
प्रार्थिता गिरिराजेन तत्पत्न्या मेनयापि च।।4।।
महोग्रतपसा पुत्रीभावेन मुनिपुगंव।
प्रार्थिता च महेशेन सतीविरहदुःखिता।।5।।
प्रययौ मेनकागर्भे पूर्णब्रह्ममयी स्वयम्।
ततः शुभदिने मेना राजीवसदृशाननाम्।।6।।
सुषुवे तनयां देवीं सुप्रभा जगदम्बिकाम्।
ततोऽभवत्पुष्पवृष्टिः सर्वतो मुनिसत्तम।।7।।
श्रीमहादेव जी ने कहा-मुनिश्रेष्ठ! गिरिराज तथा उनकी पत्नी मेना ने त्रैलोक्यजननी. सनातनी एवं ब्रह्मस्वरूपा दुर्गा देवी की अति उग्र तपस्या करके उनको पुत्री रूप में पाने की प्रार्थना की थी। भगवान शंकर ने भी सती के विरह से दुखी होकर उन्हें प्राप्त करने की प्रार्थना की थी। इसलिये ब्रह्मरूपा जगदम्बिका स्वयं मेना के गर्भ में पधारी। तत्पश्चात् देवी मेना ने शुभ दिन कमल सदृश मुखवाली, सुन्दर प्रभायुक्त, जगज्जननी भगवती को पुत्री रूप में जन्म दिया। हे मुनिश्रेष्ठ। उस क्षण सर्वत्र पुष्पवर्षा होने लगी।।4-7।।
पुण्यगन्धो वबौ वायुः प्रसन्नाश्च दिशो दश।
तथाद्रिराजः श्रुत्या तु पुत्रीं जातां शुभाननाम्।।8।।
तरुणादित्यकोट्याभां त्रिनेत्रां दिथ्यरूपिणीम्।
अष्टहस्तां विशालाक्षीं चन्द्रार्थकृतशेखराम्।।9।।
मेने तां प्रकृतिं सूक्ष्मामाद्यां जातां स्थलीलया।
तदा हृष्टमना भूत्या विप्रे भ्यो प्रददां बहु।।1०।।
धनं वासांसि च मुने दोग्ध्रीर्गाश्च सहस्रशः।
द्रष्टुं प्रतिययौ चाशु बन्धुभिः परिवारितः।।11।।
दसों दिशाओं में प्रसन्नता छा गयी अर्थात् दिव्य प्रकाश फैल गया तथा सुगन्धित पवन चलने लगा। जब पर्वत राज ने सुना कि उनके भवन में सुन्दर मुखाकृति वाली कन्या ने जन्म लिया है जो सहस्रों मध्याह्न काल के सूर्य सदृश तेजस्विनी, तीन नेर्त्रो वाली, दिव्यरूपा, विशाल नयनों वाली, आठ भुजाओं वाली तथा ललाट पर अर्धचन्द्र को धारण किये हुए है तब उन्होंने समझ लिया कि सूक्ष्मा परा प्रकृति ने ही अपनी लीला (माया) से उनके यहाँ अवतार लिया है। मुनि नारद। पर्वत राज ने आनन्दित होकर विर्प्रो को प्रचुर धन, वस्त्र, तथा हजारों दुधारू गायें प्रदान कीं। तद्नन्तर वे बन्धु-बान्धवों सहित शीघ्र ही कन्या को देखने भवन में पहुँचे।।8-11।।
ततस्तमागतं ज्ञात्वा गिरीन्द्रं मेनका तदा।
प्रोवाच तनयां पश्य राजन् राजीवलोचनाम्।।12।।
आवयोस्तथसा जाता सर्व भूतहिताय च।
ततः सोऽपि निरीक्ष्मैनां ज्ञात्वा तां जगदम्बिकाम्।।13।।
प्रणम्य शिरसा भूमौ कृताज्जलिपुटः स्थितः।
प्रोवाच वचनं देवीं भक्त्या गद्गद्या गिरा।।14।।
पर्वतराज हिमालय को आया जानकर मेना ने कहा-राजन्! अपनी कमलाक्षी पुत्री को देखें। ये हम दोनों की कठोर तपस्या का फल है तथा सभी जीवी के कल्याण हेतु अवतरित हुई हैं। तब उन पर्वतराज ने भी कन्या को देखकर उसे जगदम्बिका रूप में ही जाना। पृथ्वी पर सिर झुकाकर प्रणाम करते हुए दोनों हाथ जोड़कर भक्तिपूर्वक गद्गद वाणी से देवी से बोले।।12-14।।
हिमालय उवाच
का त्वं मातर्विशालाक्षि चित्ररूपा सुलक्षणा।
न जाने त्वामहं वत्से यथावत्कथयस्व माम्।।15।।
हिमालय ने कहा-माँ! विशालाक्षी! इस अद्भुत विचित्र रूप में आप कौन हैं? पुत्री! मैं आपको नहीं जान पा रहा हूँ। मुझे यथावत् अपना वृतान्त कहिए।।15।।
श्री देव्यूवाच
जानीहि मां परां शक्ति महेश्वरकृताश्रयाम्।
शाश्वतैश्वर्यविज्ञानमूर्ति सर्वप्रवर्तिकाम्।।16।।
ब्रह्मविष्णुमहेशादि जननीं सर्वमुक्तिदाम्।
सृष्टिस्थितिविनाशानां विधात्रीं जगदम्बिकाम्।।17।।
अहं सर्वान्तरस्था च संसारार्णवतारिणी।
नित्यानन्दमयी नित्या ब्रह्मरूपेश्वरीति च।।18।।
युवयोस्तपसा तुष्टा पुत्रीभावेन लीलया।
जाता तव गृहे तात बहुभाग्यवशात्तव।।19।।
श्री भगवती (देवी) ने कहा-परमेश्वर शिव की आश्रिता मुझको पराशक्ति जानो। मैं सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन करती हूँ एवं शाश्वत् ज्ञान और ऐश्वर्य की मूर्ति हूँ। मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि की जननी हूँ सृष्टि-स्थिति तथा विनाश का विधान करने वाली, मुक्ति देने वाली जगदम्बिका हूँ। मैं सबकी अन्तरात्मा के रूप में स्थित हूँ तथा संसार सागर से उद्धार करने वाली हूँ। मुझको नित्यानन्दमयी ब्रह्मरूपा नित्या महेश्वरी जानो। तात्! तुम दोनों की तपस्या से तुष्ट होकर मैंने स्वलीला से तुम्हारी पुत्री होकर तुम्हारे घर में जन्म लिया है। तुम बहुत भाग्यशाली हो।।16-19।।
हिमालय उवाच
मातस्त्वं कृपया गृहे मम सुता जातासि नित्यापि यद-
भाग्यं मे बहुजन्मजन्मजनितं मन्ये महत्पुण्यदम्।
दृष्टं रूपमिदं परात्यरतरां मूर्तिं भवान्या अपि,
माहेशीं प्रति दर्शयाशु कृपया विश्वेशि तुभ्यं नमः।।2०।।
हिमालय ने कहा-माता! आपने नित्या होकर भी कृपापूर्वक मेरे घर में पुत्री रूप में अवतार लिया है, यह मेरे बहुत से जन्मों में किये गये पुण्यों का ही सुफल है, इसे मैं अपना सौभाग्य स्वीकार करता हूँ। मैंने आपका यह रूप देख लिया, अब आप परात्पर भगवती का दिव्य शङ्कर प्रियारूप मुझको कृपा सहित शीघ्र ही दिखला दें। हे विश्वेश्वरी! आपको नमस्कार है।।2०।।
श्री देव्युवाच
ददामि चक्षुस्ते दिव्यं पश्य मे रूपमैश्वरम्।
छिन्धि हत्संशयं विद्धि सर्वदेवमयीं पितः।।21।।
श्री भगवती देवी ने कहा-पिताजी! प्रथम मैं आपको दिव्य नेत्र प्रदान करती हूँ जिनसे मेरे ऐश्वर्य (प्रभाव) शाली रूप के दर्शन कर आप अपने हृदय का सन्देह हटा लीजिये तथा मुझको ही सर्वदेवमयी जानिये।।21।।
श्री महादेव उवाच
इत्युक्त्वां तं गिरिश्रेष्ठं दत्त्वा विज्ञानमुत्तमम्।
स्वरूपं दर्शयामास दिव्यं माहेश्वरं तदा।।22।।
श्री महादेव जी नारद से कहने लगे-इस प्रकार कहकर गिरिराज हिमालय को दिव्य दृष्टि प्रदान कर जगज्जननी ने अपने अलौकिक दिव्य महेश्वर स्वरूप के दर्शन दिये।।22।।
शशिकोटिप्रभं चारुचन्द्रार्धकृतशेखरम्।
त्रिशूलवरहस्तं च जटामण्डितमस्तकम्।।23।।
भयानकं घोररूपं कालानलसहसभम्।
पञ्चवक्तं त्रिनेत्रं च नागयज्ञोपवीतिनम्।।24।।
द्वीपिचर्माम्बरधरं नागेन्द्रकृतभूबणम्।
एवं विलोक्य तदूपं विस्मितो हिमवान्पुनः।।25।।
भगवती का वह ज्योतिर्मयरूप करोड़ों करोड़ चन्द्रमाओं की आभा से सम्पन्न था, उनके मस्तक पर अर्धचन्द्र की मनोहर रेखा विद्यमान थी। उनके हाथ में श्रेष्ठतम त्रिशूल तथा मस्तक पर जटाएँ शोभा पा रहीं थीं। सहस्रों कालाग्नि की प्रभा सदृश उनका रूप भयानक और उग्र था। उनके पाँच मुख तथा तीन नेत्र थे, उन्होंने सर्प का यज्ञोपवीत धारण किया हुआ था। व्याध्रचर्म को धारण किये हुए एवं सर्वोत्तम सर्पो के आभूषण से शोभित उनके उस दिव्य रूप का अवलोकन कर हिमवान अति चकित हुए-।।23-25।।
प्रोवाच वचनं माता रूपमन्यत्यदर्शय।
ततः-संहृत्य तद्रूपं दर्शयामास तत्क्षणात्।।26।।
रूपमन्यमुनिश्रेष्ठ विश्वरूपा सनातनी।
शरच्चन्द्रनिभं चारुमुकृटोज्जवलमस्तकम्।।27।।
शंखचक्रगदापद्यहस्तं नेत्रत्रयोज्जवलम्।
दिव्यमास्याम्बधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।।28।।
योगीन्द्रवृन्दसंवशं सुचारु चरणाम्बुजम्।
सर्वतः पाणिपादं च सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।।29।।
दृष्ट्वा तदेतत्परमं रूपं स हिमवान् पुनः।
प्रणम्य तनयां प्राह विस्मयोत्फुल्ललोचनः।।३०।।
उस समय माता मेना ने उनसे कहा कि मुझे अपना दूसरा रूप दिखाइये। तब जगदम्बा ने अपनें उस माहेश्वर रूप को तिरोहित करके उसी क्षण अपना अन्य रूप प्रकट कर दिया। मुनि श्रेष्ठ उन सनातनी विश्वरूपा जगदम्बा की प्रभा शरत्कालीन चन्द्र सदृश थी, सुन्दर मनोहर किरीट से उनका मस्तक प्रकाशमान था। वह अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्य लिये हुए र्थी। उनके सुन्दर तीन नेत्र थे। उन्होंने दिव्य वस्त्र, माला तथा गन्धानुलेप धारण कर रखा था। वह योगीन्द्रवृन्द से वन्दनीय थी, उनके चरण कमल अति सुन्दर थे तथा हाथ, पैर, आँख, मुख, सिर आदि दिव्य विग्रह से वे समस्त दिशाओं को व्याप्त किये थी। इस तरह के परमाद्धत उस दिव्य रूप को देखकर हिमवान ने अपनी पुत्री को पुनः प्रणाम किया तथा आश्चर्य पूर्ण विस्फारित नेत्रों से उनको देखते हुए वह कहने लगे।। 26-३०।।
हिमालय उवाच
मातस्तवेदं परमं रूपमैश्वरमुत्तमम्।
विस्मितोऽस्मि समालोक्य रूपमन्यह्मदर्शय।।31।।
त्वं यस्य सो ह्यशोव्यो हि धन्यश्च परमेश्वरि।
अनुगृहीष्व मातर्मां कृपया त्वां नमो नमः।।32।।
हिमालय ने कहा-माता! आपका यह श्रेष्ठ रूप भी परम ऐश्वर्य से सम्पन्न है जिसको देखकर मैं विस्मित् हूँ। मुझे तो किसी दूसरे रूप के ही दर्शन कराइये। परमेश्वरी! आप जिसकी आश्रय हैं वह व्यक्ति अवश्य ही अशोच्य और धन्य है। हे माँ! कृपया मुझ पर अनुगृह कीजिए, आप को बारम्बार नमस्कार है।।31-32।।
श्री महादेव उवाच
इत्युक्ता सा सदा पित्रा शैलराजेन पार्वती।
तद्रूपमपि संहत्य दिव्यं रूपं समादधे।।३3।।
नीलोत्पलदलश्यामं वनमालाविभूषितम्।
शंखचक्रगदापद्यमभिव्यक्तं चतुर्भूजम्।।३4।।
एवं विलोक्य तद्रूपं शैलानामधिपस्ततः।
कृताञ्जलिपुटः स्थित्या हर्षेण महता युतः।।३5।।
स्तोत्रेणानेन तां देवीं तुष्टाव परमेश्वरीम्।
सर्वदेवमयीमाद्या ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकान्।।36।।
थी महादेव जी ने कहा-अपने पिता हिमालय के ऐसा कहे जाने पर जगदम्बा पार्वती ने अपने उस दिव्य रूप को तिरोहित कर पुनः एक दिव्य रूप धारण किया। नील कमल सदृश सुन्दर श्यामवर्ण एवं वनमाला से सुशोभित उस रूप की चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा एवं पद्य शोभित हो रहे थे। भगवती के उस रूप का दर्शन कर पर्वतराज हाथ जोड़कर अत्यधिक हर्षित हो ब्रह्मा, विष्णु और शिवस्वरूपा सर्वदेवमयी उन आदि शक्ति जगदम्बा का इस स्तोत्र से स्तवन करने लगे।।33-३6।।
हिमालय उवाच
मातः सर्वमयि प्रसीद परमे विश्बेशि विश्वाश्रये,
त्यं सर्वं नहि किंचिदस्ति भुवने तत्वं त्यदन्यच्छिवे।
त्वं विष्णुर्गिरिशस्त्वमेव नितरां धातासि शक्तिः परा,
कि वर्ण्यं चरितं त्वचिन्त्य चरिते ब्रह्मासाद्यगम्यं मया।।37।।
हिमालय ने कहा-माँ! आप प्रसन्न हों, आप परमशक्ति हैं, आपमें ही सब समाहित हैं, आप ही इस नश्वर चराचर संसार की अधिष्ठत्री तथा परम आश्रय हैं। हे शिवे! आप ही सब कुछ हैं, इस त्रिलोक में आपके अतिरिक्त दूसरा कोई तत्त्व विद्यमान नहीं है, आप ही ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश हैं आप ही पराशक्ति हैं। आपकी अचिन्त्य माया (लीला) का वर्णन मैं किस प्रकार करूँ? जिसका ब्रह्मादि देव भी पार नहीं प्राप्त कर सकते हैं।।37।।
त्वं स्याह्मखिलदेवतृप्तिजननी विश्वेशि त्वं वै स्वधा,
पितृणामपि तृप्तिकारणमसि त्वं देवदेवात्मिका।
हव्यं कव्यमपि त्वमेव नियमो यज्ञस्तपो दक्षिणा,
त्वं स्वर्गादिफलं समस्त फलदे देवेशि तुभ्यं नमः।।३8।।
हे माँ विश्वेश्वरी! आप स्वाह रूप से समस्त देवताओं की तृप्तिकारिका, स्वधा रूप से पितरों की तृप्ति कारिका तथा शिवप्रिया हैं। आप ही हव्य एवं कव्य हैं। आप ही नियम, यज्ञ, तप तथा दक्षिणा हैं। आप ही स्वर्गादि को देने वाली हैं। सभी कर्मो का फल देने में आप ही सक्षम हैं। महादेवी आपको प्रणाम है।।38।।
रूपं सूक्ष्मतम परात्परतरं यद्योगिनो विद्यया,
शुद्धं ब्रह्ममय वदन्ति परमं मातः सुदृप्तं तव।
वाचा दुर्विषयं मनोऽतिगमपि त्रैलोक्यबीजं शिवे,
भक्त्याहं प्रणमामिदेवि वरदे विश्वेश्वरि त्राहि माम्।।39।।
हे माता! जिस आपके पर से भी परतर सूक्ष्मतम रूप का योगिजन शुद्ध ब्रह्म के रूप में वर्णन करते हैं, शिवे! आपका वह मोहक रूप मन-वाणी हेतु अगम्य और त्रैलोक्य का मूल कारण है। वर देने वाली भगवती! मैं आपको भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ। हे विश्वेश्वरी! मेरी रक्षा करें।।39।।
उद्यन्सर्यसहस्रभां मम गृहे आतां स्वयं लीलया,
देवीमष्टभुजां विशालनयनां बालेइमौलिं शिवाम्।
उद्यत्कोटिशशाङ्ककान्तिनयना बालां त्रिनेत्रां परां
भक्त्या त्वां प्रणमामि विश्वजननीं देवि प्रसीदाम्बिके।।4०।।
जगदम्बे! आप सहस्रों उदीयमान सूर्यों सदृश आभा वाली, अष्ट भुजाओं वाली, विशाल नयनों वाली तथा मस्तक पर चन्द्र रेखा से भूषित हैं, आप कल्याणकारिणी ने लीलापूर्वक स्वयं मेरे घर में जन्म लिया है। उदीयमान करोड़ों चन्द्रमाओं की शीतलकान्ति से सम्पन्न नेत्रों वाली, त्रिनेत्र वाली, बालस्वरूपा आप भगवती जगज्जननी को मैं भक्ति पूर्वक प्रणाम करता हूँ आप प्रसन्न हों।।4०।।
रूपं ते रजताद्रिकान्तिविमलं नागेन्द्रभूषोज्ज्वलम्
घोरं पञ्चमुखाम्बुजत्रिनयनैभींमैः समुद्भासितम्।
चन्द्रार्धाक्डितमस्तकं धृतजटाजूटं शरण्ये शिवे
भक्त्याहं प्रणमामि विश्वजननि त्वां त्वं प्रसीदाम्बिके।।41।।
हे शिवे! आप का रूप रजत (चाँदी) पर्वत की कान्ति के तुल्य उज्ज्वल है, आपने सर्पराज का सुन्दर भूषण धारण किया है। दुष्टों के लिये भयोत्पन्न करने वाले पाँच मुख सरोजों तथा भयानक तीन नेत्रों से आप सुशोभित हैं। अर्धचन्द्र सहित जटाजूट को आपने मस्तक पर धारण कर रखा है। शरण देने वाली विश्व जननी! आपको भक्ति-पूर्वक मैं प्रणाम करता हूँ। अम्बिके! आप प्रसन्न हों।।41।।
रूपं शारदचन्द्रकोटिसदृशं दिव्याम्बरं शोभनं
दिव्यैराभरणैर्विराजितमलं कान्त्या जगन्मोहनम्।
दिव्यैर्बाहुचतुष्टयैर्युतमहं वन्दे शिवे भक्तितः,
पादाब्जं जननि प्रसीद निखिलब्रह्मादिदेवस्तुते।।42।।
भगवती! करोड़ों शरद् काल के चन्द्र सदृश उज्ज्वल रूप और दिव्य वस्त्राभूषणों से आप शोभित है। आपका विश्वमोहन रूप चार अलौकिक भुजाओं से शोभा पा रहा है, ब्रह्मादि सभी देवगण आपका स्तवन करते हैं। हे माँ भवानी! आपके चरणकमलों मैं मैं भक्ति पूर्वक प्रणाम करता हूँ आप प्रसन्न हों।।42।।
रूपं ते नवनीरदद्युतिरुचिफुल्लाब्जनेत्रोज्ज्वलम्
कान्त्या विश्वविमोहनं स्मितमुखं रत्नाङ्गदैर्भूषितम्।
विभ्राजद्वनमालयाविलसितोरस्कं जगत्तारिणि,
भक्त्याहं प्रणतोऽस्मि देवि कृपया दुर्गे प्रसीदाम्बिके।।43।।
हे दुर्गे! श्याम मेघ की आभा युक्त नये तथा खिले हुए कमल सदृश उज्ज्वल नेत्रवाला आपका रूप अपनी कान्ति से समस्त जगत को विमोहित करने वाला है। आपके मुख पर सदा मुस्कान सुशोभित है, आपके कण्ठ में वनमाला तथा अङ्गों पर रत्नजटित अंगदादि भूषण शोभित हो रहे हैं। संसार का उद्धार करने वाली देवी! मैं आपको भक्तिर्द्वक प्रणाम करता हूँ। अम्बिके! कृपया आप प्रसन्न हो।।43।।
मातः कः परिवर्णितु तव गुण रूपं च विश्वात्मकम्,
शक्तो देवि जगत्त्रये बहुगुणैर्देवोऽथवा मानुषः।
सत् किं स्वल्पमतिर्ब्रवीमि करुणां कृत्वा स्वकीयैर्गुणै-
नों मां मोहय मायया परमया विश्वेशि तुभ्यं नमः।।44।।
हे भगवती! आपके विश्वात्मक रूप और गुण को पूर्णतः वर्णन करने में त्रिलोक में देवता अथवा मनुष्य कोई भी समर्थ नहीं है, तब मैं अल्पबुद्धि उसका कैसे वर्णन करूँ। आप अपने स्वाभाविक गुणों से मुझ पर करुणा करते हुए अपनी परम माया से मुझे मोहित न करें। विश्वेश्वरी! आप को नमस्कार है।।44।।
अद्य मे सफलं जन्म तपश्च सफलं मम।
यत्त्वं त्रिजगतां माता मत्पुत्रीत्वमुपागता।।45।।
धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं मातस्त्वं निजलीलया।
नित्यापि मद्गृहे जाता पुत्रीभावेन वै यतः।।46।।
किं बुवे मेनकायाश्च भाग्यं जन्मशतार्जितम्।
यतस्त्रिजगतां मातुरपि माता भवेत्तव।।47।।
आज मेरा जन्म एवं तप सफल हुआ जो त्रिलोक माता आप मेरी पुत्री रूप में पधारी हैं। मैं धन्य तथा कृतार्थ हुआ जोकि आपने नित्या प्रकृति होकर भी स्वलीला से पुत्री भाव से मेरे घर में जन्म लिया। मैं मेना के भाग्य की भी क्या सराहना करूँ जिनको अपने सैकड़ों जन्मों के संचित पुण्यों के फल से त्रिलोक माँ की भी माता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हैं।।145-47।।
श्री महादेव उवाच
एवं गिरीन्द्रतनया गिरिराजेन संस्तुता।
बभूव सहसा चारूपिणी पूर्ववसुने।।48।।
मेनकापि विलोक्यैवं विस्मिता भक्ति संयुता।
ज्ञात्वा ब्रह्ममयीं पुत्रीं प्राह गद्गद्या गिरा।।49।।
श्री महादेव जी ने कहा-नारद! इस भाति पर्वतराज हिमालय द्वारा प्रार्थना किये जाने पर पर्वतराज पुत्री सहसा पूर्व की भांति सुन्दर रूप में हो गयीं। मेना भी यह देखकर विस्मित् हुईं तथा स्वपुत्री को ब्रह्मस्वरूपिणी समझकर गद्गद वाणी से भक्तिपूर्वक इस प्रकार कहने लगीं।।48-49।।
मेनकोवाच
मातः स्तुति न जानामि भक्तिं वा जगदम्बिके।
तथाष्यहमनुग्राह्या त्वया निजगुणेन हि।।5०।।
त्वया जगदिदं सृष्टं त्यमेवैतस्थ्यप्रदा।
सर्वाधारस्वरूपा च सर्वव्याप्याधितिष्ठसि।।51।।
मेनका ने कहा-माता जगदम्बिका! मैं न तो आपकी स्तुति करना जानती हूँ और न ही भक्ति, फिर भी आप अपने करुणामय स्वभाव से मुझ पर कृपा करती रहें। आप ही इस विश्व की सृष्टि (रचना) करती हैं। आप ही समस्त कर्मों का फल प्रदायिनी हैं। आप सबका आधार हैं। आप ही सर्वव्यापिनी हैं।।5०-51।।
श्री देव्युवाच
त्वया मातस्तथा पित्राष्यनेनाराधिता ह्यहम्।
मह्मोग्रतपसा पुत्री लब्धुं मां परमेश्वरीम्।।52।।
युवयोस्तपसस्तस्य फलदानाय लीलया।
नित्या लब्धवती जन्म गर्भे तव हिमालयात्।।5३।।
श्री भगवती (देवी) ने कझ-माता! आपने एवं पिताजी ने उग्र तपस्या से मुझ परमेश्वरी को पुत्री रूप में पाने हेतु आराधना की थी। आप दोनों के उस तप का फल देने हेतु ही लीलापूर्वक मैंने नित्या प्रकृति होकर भी हिमालय द्वारा आप के गर्भ से जन्म लिया है।।52-53।।
थी महादेव उवाच
ततो गिरीन्द्रस्तां देवीं प्रणिपत्य पुनः पुनः।
पप्रच्छ ब्रह्मविज्ञानं प्राञ्जलिर्मुनिसत्तम।।54।।
श्री महादेव जी ने कहा-हे मुनि श्रेष्ठ! तब पर्वतराज हिमालय ने उन भगवती देवी को पुनः पुनः प्रणाम करके हाथ जोड़कर ब्रह्म विज्ञान जानने की जिज्ञासा प्रकट की।।52-53।।
हिमालय उवाच
मातस्त्वं बहुभाग्येन मम जातासि कन्यका।
ब्रह्माद्यैर्दुर्लभा योगिदुर्गम्या निजलीलया।।55।।
अहं तव पदाम्भोजं प्रपन्नोऽस्मि महेश्वरि।
यद्याञ्जसा तरिष्यामि संसारापारवारिधिम्।।56।।
यस्मात्कालस्य कालस्त्वं महाकालीति गीयसे।
तस्मात्त्वं शाधि मातमां ब्रह्यविज्ञानमुत्तमम्।।57।।
हिमालय ने कहा-माता। आप बड़े सौभाग्य से मेरी पुत्री के रूप में जन्मी हैं, यह आपकी लीला है, क्योंकि आप ब्रह्मादि देवगण तथा योगियों के लिये भी अगम्य एवं दुर्लभ हैं। हे महेश्वरी। मैं आपके चरणकमलों की शरण में हूँ। माता! आप काल की भी काल हैं, इसी से आपको भक्त महाकाली पुकारते हैं। आप मुझे कृपा सहित उस श्रेष्ठ ब्रह्मविद्या का उपदेश (शिक्षा) दें जिससे मैं इस अपार जगज्जलधि को सहजतापूर्वक पार कर जाऊँ।।55-57।।
श्री पार्वत्युवाच
श्रुणु तात प्रवक्ष्यामि योगसारं महामते।
यस्य विज्ञानमात्रेण देही ब्रह्ममयी भवेत्।।58।।
गृहीत्वा मम मन्त्रान्वै सदगुरोः सुसमाहितः।
कायेन मनसा वाचा मामेव हि समाअयेत्।।59।।
मच्चितो भद्गतप्राणो मत्रामजपतत्यरः।
मत्प्रसंगो मदालापो मद्गुणश्रवणे रतः।। 6०।।
भवेन्मुमुक्षु राजेन्द्र मयि भक्तिं परायणः।
मदर्चाप्रीतिसंसक्तमानसः साधकोत्तमः।।61।।
थी पार्वती जी ने कहा-पिताजी! महामते! सुनें, आपको मैं उस योग का सार बता रही हूँ जिसके ज्ञान मात्र से प्राणी ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। किसी सद्गुरु से मेरे मन्त्र को प्राप्त कर स्थिर चित्त हो साधक को शरीर-मन तथा वाणी से मेरा आश्रय लेना चाहिए। मुमुक्षु श्रेष्ठ साधक को मुझ में ही चित्त एवं प्राण को लगाना चाहिए, सदा तत्परता से मेरे नाम का जप करे, मेरे गुण और लीला कथाओं को ध्यान से सुनता रहे, वह मुझसे वार्तालाप करने वाला हो तथा मुझसे सतत् सम्बन्ध बनाये रखे। हे पर्वतराज! वह श्रेष्ठ साधक मेरी भक्ति में परायण होकर अपना चित्त मेरे पूजन के प्रति अनुरक्त रखे।।58-61।।
पूजायज्ञादिकं कृर्याद्यथाविधिविद्यानत।
श्रुतिस्मृत्युदितैः सम्यक्स्वणांश्रमवर्णितैः।।62।।
सर्वयज्ञतपोदानैर्मामेव हि समर्चयेत्।
ज्ञानात्संजायते भुक्तिर्भक्तिर्ज्ञानस्य कारणम्।।63।।
धर्मात्संजायते भक्तिर्धर्मो यज्ञादिको मतः।
तस्मात्युमुक्षुर्थर्मार्थ ममेदं रूपमाश्रयेत्।।64।।
साधक को श्रुत एवं स्मृति में प्रतिपादित अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार विधि-विधान से मेरा पूजन तथा यज्ञादि पूर्ण करने चाहिए। समस्त यज्ञ, तप तथा दान से मेरा ही अर्चन करे। ज्ञान से मुक्ति होती है, भक्ति से ज्ञान होता है, धर्म से भक्ति का उदय होता है। यज्ञादि धर्म के रूप हैं। अतः मोक्षार्थी को धर्मरूपी यज्ञार्चन हेतु मेरे इस रूप का आश्रय लेना चाहिए।। 62 -64।।
सर्वाकाराहमेवैका सच्चिदानन्द विग्रह्म।
मदंशेन परिच्छिन्ना देहाः स्यर्गौकसां पितः।।65।।
तस्मान्मामेव विध्युक्तैः सकलैरेव कर्मभिः।
विभाव्य प्रयजेद् भक्त्या नान्यथा भावयेत्सुथीः।।66।।
पिताजी! समस्त आकारों में एकमात्र मैं ही विद्यमान हूँ। स्वर्ग के देवता मुझ सच्चिदानन्द रूपा के अंश से ही उत्पन्न है इसलिए वेदोक्त सम्पूर्ण कर्मी से भक्तिपूर्वक मेरा अर्चन करना चाहिए। सुधी पुरुष (समझदार) को अन्यथा नहीं सोचना चाहिए।।65-66।।
एवं वियुक्तकर्माणि कृत्या निर्मलमानसः।
आत्मज्ञानसमुद्युक्तो अक्षः सततं भवेत्।।67।।
इस भांति अनासक्तभाव से कर्मो को पूर्ण करके विशुद्ध अन्तःकरण वाले मुमुक्ष (मोक्ष चाहने वाले) साधक को आत्मज्ञान के लिये सदैव प्रयास करना चाहिए।।67।।
घृणां वितत्य सर्वत्र पुत्रमित्रादिकेध्वपि।
वेदान्तादिषु शास्त्रेषु संनिविष्टमना भवेत्।।68।।
कामादिकं त्यजेत्सर्वं हिंसां चापि विवर्जयेत्।
एवं कृत्वा परां विद्या जानीते नात्र संशयः।।69।।
यदैवात्मा महाराज प्रत्यक्षमनुभूयते।
तदैव जायते मुक्तिः सत्यं सत्यं ब्रवीमि ते।।7०।।
पुत्र-मित्रादि के सम्बन्धों में आसक्त न होकर वेदान्तादि शास्त्रों के अभ्यास में एकाग्रचित्त रहना चाहिए। इस प्रकार के साधक को काम, क्रोध, लोभादि विकारों का, सभी प्रकार की हिंसा का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिए। ऐसा करने से साधक को निश्चय ही पराविद्या का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। महामते! जिस क्षण इस आत्मा की प्रत्यक्षानुभूति होती है उसी क्षण मुक्ति हो जाती है। यह निःसन्देह सत्य बात आपके लिए मैं बता रही हूँ।।68-7०।।
किंत्येतदुर्लभं ताल मद्भक्तिविमुखात्मनाम्।
तस्माद्धक्तिः परा कार्या मयि यलामुमुहभिः।।71।।
पिताजी! मेरी भक्ति से विमुख प्राणियों हेतु यह प्रत्यक्षानुभूति अत्यन्त दुर्लभ है। अस्तु मोक्ष साधकों को प्रयत्नपूर्वक मेरी भक्ति में ही रम जाना चाहिए।।71।।
त्वमप्येवं महाराज मयोक्तं कुरु सर्वदा।
संसार दुःखैरखिलैर्बाध्यसे न कदाचन।।62।।
महाराज। आप भी मेरे द्वारा बताये अनुसार करेंगे तब जगत के सभी दुःखों से कभी बाधित नहीं होंगे।
ऊँ श्रीभद्भगवती गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री पार्वतीहिमालय संवादे विज्ञानयोगोपदेशवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः।
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