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विभिन्न रामायण एवं गीता >> भगवती गीता

भगवती गीता

कृष्ण अवतार वाजपेयी

प्रकाशक : भगवती पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :125
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6276
आईएसबीएन :81-7775-072-0

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गीता का अर्थ है अध्यात्म का ज्ञान ईश्वर। ईश्वर शक्ति द्वारा भक्त को कल्याण हेतु सुनाया जाय। श्रीकृष्ण ने गीता युद्ध भूमि में अर्जुन को सुनाई थी। भगवती गीता को स्वयं पार्वती ने प्रसूत गृह में सद्य: जन्मना होकर पिता हिमालय को सुनाई है।

राम की सहायता कर दुष्टों की संहारिका

 

नारदजी ने शिवजी से जिज्ञासा प्रकट की कि प्रभो! शारदीय महापूजा जिसे भगवान विष्णु ने मनुष्य अवतार लेकर असमय में जगन्माता महेश्वरी की पूजा की थी उसे विस्तार से बताइये।

श्री महादेव जी ने कहा कि प्राचीनकाल में त्रैलोक्य जननी भगवती की प्रार्थना करके लंकेश रावण ने उनकी कृपा से तीनों लोकों को जीत लिया था। उसके भक्तिभाव से प्रसन्न होकर भक्तवत्सला भवानी उसकी नगरी में ही निवास करने लगी। जब तक तपस्या का पुण्य क्षीण नहीं हुआ तब तक अपनी योगिनियों के साथ जगदम्बा विजय दिलाते हुए वहीं रहीं। पुण्य क्षीण होने पर रामचन्द्र से पूजित रावण का विनाश कर लंका त्यागकर योगिनियों के साथ कैलास पर्वत पर चली गयीं। जब रावण तीनों लोकों को घमण्ड से अत्याचार करके पीड़ित करने लगा, तब ब्रह्मा ने विष्णु से कहा कि आप मनुष्य अवतार लेकर रावण का पुत्रों और बन्धवों सहित संहार करें। श्रीविष्णु ने कहा-''मैं दशरथ पुत्र रूप में उसका बान्धवों सहित संहार करूँगा। आप लोग वानरों के रूप में अवतार लेकर मेरी सहायता करें। वह दुष्टात्मा भक्तिपूर्वक विश्वजननी पराम्बा कात्यायनी की पूजा करता है। वे भगवती प्रसन्न होकर योगिनियों सहित लड़का में रहकर उसे विजय दिलाती हैं। यदि वे जगदम्बा मुझ पर प्रसन्न होकर लड़का त्याग दें, तभी रावण मरेगा। जगदम्बा की कृपा के बिना उसे जीतना असम्भव है।'' ब्रह्मा और विष्णु परस्पर निश्चय कर कैलास पर्वत पर गये जहां जगन्माता पार्वती शिव के साथ निवास करती हैं।

ब्रह्मा और विष्णु को आया देखकर शंकर ने उनका अभिनन्दन किया तथा आने का कारण पूछा। उन्होंने तब सम्पूर्ण वृत्तान्त बताया। तदनन्तर तीनों देव भगवती पार्वती के समीप गये। वहाँ प्रसन्नमुखकमल वाली महेश्वरी को देखकर तीनों देवों ने उनको दण्डवत् प्रणाम किया। देवों को प्रणाम करते देख तत्कण महादेवी जगदम्बा अपने परारूप में रत्नसिंहासन पर विराजमान हो गयीं। उनके अतरह भुजाएँ थीं। कण्ठ में सुन्दर हार सुशोभित था, मस्तक पर अर्द्धचन्द्ररेखा विराज रही तथा मुखकमल प्रसन्नता से चमकने लगा, सुन्दर दन्ति पंक्ति, मुस्कान युक्त मुखमण्डल, तीन नेत्र थे। विष्णु भगवान ने पृथ्वी से उकर हाथ जोड़कर कहा-"मां! पौलस्त्य (विश्रवा) पुत्र आपकी कृपा प्राप्त कर घमण्ड से त्रिलोक को पाड़ित कर रहा है। दशरथ पुत्र रूप में अवतार ले कर मैं उसका संहार करूँगा। किन्तु वह आपकी और महेश्वर की सेवा करता है। आप स्वयं लङ्केश्वरी होकर विराजमान हैं। पृथ्वी की रक्षा हेतु कोई उपाय बताइये।'' देवी ने कहा-'उसने मेरी और महेश्वर की पूजा की है। फलस्वरूप उसे सम्पदा मिली है। तपस्या का सम्पूर्ण फल वह पा चुका है। मैं स्वयं उसके संहार की सोचती हूँ। आप स्वयं अवतार लें। आप के मनुष्य रूप धारण करने पर मेरी अंशभूता लक्ष्मी आपकी सहायता करेंगी। रावण उनका बलपूर्वक अपहरण करेगा। भगवान शिव की अनुमति से मैं लङ्का का त्याग कर दूँगी। जब वह लक्ष्मी का अपमान करेगा तब विनाश होगा। आप जब मनुष्य रूप लेंगे तब वशिष्ठ आपको मन्त्र देंगे। उसके स्मरण से रावण के बाण आपको नहीं बेधेंगे। आप की विजय होगी। मेरी कृपा से आप दुस्तर समुद्र को लीलापूर्वक वानरों सहित पार कर लङ्का में प्रवेश करेंगे। रावण कुल का संहार और आपको विजयश्री एवं यश मिलेगा।'' विष्णु ने पुनः कहा-''आपको जो स्मरण करता है उसको किसी का भय नहीं है। मैं, शिव और यमराज उसकी रक्षा करते हैं।'' देवी ने भी पुनः कहा-"जो संसार को पीड़ित करता है वह मुझे ही पीड़ित करता है। संकट आने पर मुझे स्मरण करने वाले को जगत् फल न मिलकर पारलौकिक फल मिलता है और जो सदा मुझे स्मरण करता है उसकी मैं सदा ग्क्षा करती हूँ। मैं उसकी नगरी का त्याग करूँगी, युद्धभूमि में उसकी रक्षा नहीं करूँगी। अतः आप सदाशिव को प्रणाम कर मनुष्य रूप में अवतार लें।''

भगवती के वचन सुन प्रसन्न शिव ने विष्णु से कहा-"मैं वानर रूप से पवनपुत्र होकर जन्म लूँगा, आप की सहायता करूँगा, महासमुद्र को पार कर आप की पत्नी को खोज कर आप का सदैव को प्रेमभाजन बनूँगा। आपके सभी कठिन और दारुण कार्य करूँगा। मैं लङ्का में जब सूक्ष्म वानर रूप में प्रवेश करूँगा तब स्वयं लङ्केश्वरी लङ्का का त्याग कर देंगी।'' ब्रह्मा ने कहा-"मैं आप की सहायता हेतु अपने अंश से ऋक्ष योनि में महाबल और पराक्रम सम्पन्न पूर्व में ही जन्म ले चुका हूँ। सदैव अच्छ परामर्श दूँगा।'' धर्मराज लड़का में विभीषण रूप मै जन्म ले चुके हैं वह भी आप की सहायता करेंगे। आप चराचर की रक्षा करें'' भगवान विष्णु ने चार रूपों में दशरथ के घर अवतार लिया। भगवती लक्ष्मी ने भी राजा जनक के घर में परमसुन्दरी कन्या रूप में जन्म लिया-

लक्ष्यीश्चापि समुद्धय क्षितां परमसुन्दरी।
स्थित्या जनकराजस्य गेहे कन्यास्वरूपिणी।।

वनवास काल में रावण ने सीता का अपहरण कर लिया। सीता की खोज में दक्षिण दिशा की ओर महाबल और पराक्रम से युक्त हनुमान आदि वानर चल पड़े। वहाँ समुद्र तट पर सम्पाति मुख से विस्तारपूर्वक बात सुन समुद्र पार करनै पर विचारविमर्श हुआ। ऋक्षराज की बात सुनकर पराक्रमी हनुमान ने समुद्रपार कर सम्माकाल में लझा में प्रवेश किया। लड़का प्रवेश कर सात रात्रियों तक सीता को खोजा तब अशोक वाटिका में सीता के दर्शन कर कार्य पूरा किया।

हनुमान जी ने एक वृक्ष की चोटी पर चढ़कर देवी के अद्धत मन्दिर को देखने की लालसा से सभी ओर दृष्टिपात किया, तब पूर्व दिशा में एक सुन्दर मन्दिर देखा। उस स्वर्ण रचित मन्दिर में मणिमणिक्य जड़े थे उसके ऊपर सिंहध्वज लगा था जिसे देख हनुमान जी ने निश्चय किया यही देवी मन्दिर है। वहाँ जाकर सुरेश्वरी जगदम्बा के दर्शन किये, जो योगिनियां के साथ हँसती हुई नृत्य कर रही थीं। महादेवी की प्रदक्षिणा करके प्रणाम कर हनुमान भक्ति सहित त्रिलोक वन्दनीया जगदम्बा से कहने लगे-"हे विश्वेश्वरी! आप प्रसन्न हों। मैं राम का अनुचर हूँ। मैं जानकी रूप में अवतरित लक्ष्मी को खोजने लड़का में आया हूँ। आपकी प्रेरणा से विष्णु ने रामावतार लिया है। मैं भी शिव हूँ। वानर रूप में अवतार लेकर राम की सहायता कर रहा हूँ। आपने कहा था जब मैं लड़का में आऊँगा तब आप इस नगरी को त्यागकर अपने लोक को प्रस्थान कर जायेंगी। अतः आप इस नगरी का त्याग कर दें और जगत की रक्षा करें।'' देवी ने कहा-"वानर श्रेष्ठ! मैं रावण द्वारा किये गये सीता के अपमान से रुष्ट हूँ। मैं आप से यह बात सुनने को अभी तक यहाँ स्थित थी। अब इसे त्याग रही हूँ।'' इस प्रकार कहकर हनुमान के देखते देखते महेश्वरी भवानी अन्तर्धान हो गई। राम ने वानरों सहित श्रावण मास शुक्लपक्ष की दशमी को लड़का की ओर प्रस्थान किया। रावण से क्रोधित विभीषण ने भी राम की शरण ले ली।

युद्ध प्रारम्भ करने के पूर्व श्री राम ने महादेवी सुरेश्वरी भगवती का पूजन करने का मन में निश्चय किया, किन्तु वह प्रशस्त (उचित) समय नही था। समय दक्षिणायन का था। इस समय जगदम्बा शयन करती हैं, तब उस शक्ति का पितृरूप से पूजन का निश्चय किया। महामाया भगवती दक्षिणायन पक्ष में पितृरूप से विराजमान रहती है। श्रीराम ने देवी का स्मरण करते हुए पार्वण श्राद्ध किया तथा युद्ध प्रारम्भ कर दिया। परामर्श हेतु आये ब्रह्मा ने राम से कहा कि त्रैलोक्या माता जगदम्बा ब्रह्म स्वरूपा कात्यायनी की उपासना करें। वे भयहारिणी हैं। स्वयं अपराजित रहने वाली तथा विजय देने वाली हैं। दुर्गा की प्रार्थना करें। उनका स्मरण करते हुए भगवान शिव हलाहल विषपान करके मृत्युब्जय नाम से विख्यात हुए। वे दुष्टसंहारिणी है। उनका स्मरण और पूजन कीजिये।

उन जयप्रदा भगवती का स्मरण करते हुए युद्ध करें। श्रीराम ने ब्रह्मा से कहा कि यह कृष्ण पक्ष है शयन करती हुई महादेवी की मैं कैसे पूजा करूँ।

ब्रह्मा ने श्रीराम से एक घटना का उल्लेख किया कि जैसे भगवान शिव आज पञ्चानन हैं वैसे ही पहले मैं भी पाँच मुखवाला था। तब मैंने एक बार अहंकार में आकर क्रोधपूर्वक शिव से ऐसा कुछ कह दिया जिसे सुनकर क्रोधित शिव ने क्षण भर मै मेरा पाँचवाँ सिर काट दिया। इसके बाद एक समय मैं जगदम्बा को प्रणाम करने उनके नगर में गया। उसी समय महारुद्र भी महादुर्गा को प्रणाम करने पहुँचे। तभी तीनों देवता महादुर्गा के समीप एकत्र हुए। मैंने तब कहा-माँ आपकी कृपा से गर्वित शिव ने देव सभा में मेरा पाँचवा सिर किस अपराध से काटा? देवी ने कहा कि शुभ और अशुभ कर्म का फल मिलता है। मेरा न कोई प्रिय है और न अप्रिय। कर्म फल अवश्य भोगना पड़ता है। अपनी पुत्री सम्मा को कामेच्छ से रमण का जो विचार मन में आथा उसी का फल मिला था। शंकर का क्रोध निमित्त मात्र था। तीनों लोकों में धर्माधर्मविरोधियों को मैं ही एकमात्र नियंत्रण करती हूँ। ब्रह्मन्! आप का पाँचवाँ मुख हव्यवाहन (अग्नि) बना दिया गया, जिसमें आहुत देने पर सभी देवता शाश्वत तृप्ति करते हैं। तब हम तीनों ने उनको प्रणाम किया और कहा कि आप प्रसन्न हों। सभी ने स्तुति की-

शिव उवाच
संधर्तु शिरसा सुरेशि पदयो रेणनहं भक्तितो
गकयां न्यपतत् कियन्त इति ले सालोक्यसम्पादिनीः।
यस्यास्ते पदपद्यरेण्हुमहिमाष्येतादृशस्तां कथं
त्वां स्तोष्ये स्वगुणैः प्रपाहि जगता धात्रि प्रसीदाम्बिके।।1।।
देवि त्वत्पदङ्कजं हृदि मृत तेनैव दत्तेन वै
जित्वा मृत्युमशेषलोकभयद तत्कालसं बलात्।
पीतं यन्नवनीतवत्स हि गले चाद्यापि संराजते
दीप्तं जम्प्रनिभं सुरेशि जगता आत्रि प्रसीदाम्बिके।।2।।

शिवजी ने स्तुति की-'हरेश्वरि! आपके चरणकमल की रेणु को भक्तिपूर्वक सिर पर धारण करने का मैंने प्रयत्न किया, तब उसके कितने ही कण गंगा मे गिर गये? जिनसे वे गंगा जी सालोक्य मुक्ति को प्रदान करने वाली बन गयी। जिन आपके के चरण कमलों की रेणु की ऐसी महिमा है, उन आपका स्तवन मैं कैसे करूँ? जगद्धात्रि! आप अपने स्वभावगत गुणों से जगत का परित्राण करें, अम्बिके। आप प्रसन्न ही।।1।।देवि। आपका चरण कमल मैंने हृदय में धारण किया उसी के प्रभाव से बलपूर्वक मृत्यु को जीतकर मैं सभी लोकों को भय प्रदान करने वाले कालकूट विष को मक्खन की भाति पी गया। वह कालकूट आज भी मेरे गले में कान्तिमान जामुन की आभा लिये शोभायमान है। सुरेश्वरि! जगद्धात्रि। अम्बिके! आप प्रसन्न ही।।2।।''

विष्णु उवाच
यात्राब्धौ भुजगेश्वरस्य शिरसि शश्वच्छयिष्येऽम्बिके
लक्ष्मीवाण्यनुमोदितस्तनुबटस्यन्दैकविम्द्धवः।
सोऽप्न्तर्न विदंस्तवापि सुतरां त्वां था शिवे यत्नतः।
स्तोष्येऽहं स्थगुणेन पाहि जगतां थात्रि प्रसीदाम्बिके।।1।।
त्वां सूक्ष्मा प्रकृतिः परात्यरतरा विश्वंकहेतु शिवे
त्या जानन्ति परेण कोमऽपि जगता सृष्ट्यादिशक्त्या अपि।
त्वं माता जगतां त्र्यो ह्यपि सुताः कारुण्यदृष्टया कृपा-
मस्मांस्तु प्रविधाय पाहि जगता आत्रि प्रसीदाष्यिके।।2।।

विष्णु ने प्रार्थना की-"माता शिवे! आपके विग्रह से रिसते हुए बिन्दुमात्र से पैदा हुआ तथा लक्ष्मी और सरस्वती के अनुमोदन से क्षीरसमुद्र में शेषशय्या पर सतत् सोया रहने वाला मैं भी आपके वास्तविक स्वरूप को न जानते हुए प्रयत्न सहित आपका स्तवन करता हूँ। जगद्धात्री! आप अपने स्वाभाविक गुणों से जगत् का परित्राण करें, अम्बिके। आप प्रसन्न हों।।1।। शिवे! आप परात्परतरा सूक्ष्मा प्रकृति हैं तथा जगत की एकमात्र कारण हैं। आपको विज्ञजन संसार की सृष्टि आदि शक्तियों से भी परे जानते है। आप सम्पूर्ण जगत की माता हैं, और हम त्रिदेव आप के ही पुत्र हैं। आप हम पर करुणामयी दृष्टि से कृपा करें। जगद्धात्रि। जगत् का परित्राण करें। अम्बिके! आप प्रसन्न हों।।2।।''

ब्रह्मोवाच
स्तोत्रं ते न च वेद्यि नापि च परं रूपं न शील गुणान्
सम्बग्यच्च कियच्छुतीरितमहं जाने तथान्येऽपि या।
तद्वक्तैरपि कोटिभिर्बहुयुगं वक्तु न शक्तः शिवे
पाहि त्वं निजसद्गुणेन जगता धात्रि प्रसीदाम्बिके।।

ब्रह्मा जी ने कहा-''मैं न आपका स्तोत्र जानता हूँ न आपके श्रेष्ठ रूप को जानता हूँ और न ही आपके शील आदि गुणों को सम्यक् रूप से जानता हूँ। मैं तो आपके किंचित् गुणगण जो वेदों द्वारा वर्णित हैं उन्हीं को जानता हूँ दूसरे भी वही जानते हैं। उन आपके गुणगणों को करोड़ों मुखों से बहुत समय तक कहने में मैं समर्थ नहीं हूँ। शिवे! आप अपने स्वाभाविक सद्गुणों से जगत. की रक्षा करें। जगद्धात्रि! अम्बिके! आप प्रसन्न हों।''

देवी ने कहा-मनोहर रूप वाली सीता मन्दोदरी के गर्भ से उत्पन्न हुई थी, वह रावण की क्षेत्रजा पुत्री है। वह दुष्ट रमण लोभ से जब से सीता का अपहरण कर लाया है तभी से लड़का नष्ट है। जहाँ अधर्म होता है वहां जगदम्बा विपत्ति के रूप में निवास करती हैं।

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    अनुक्रम

  1. अपनी बात
  2. कामना
  3. गीता साहित्य
  4. भगवती चरित्र कथा
  5. शिवजी द्वारा काली के सहस्रनाम
  6. शिव-पार्वती विवाह
  7. राम की सहायता कर दुष्टों की संहारिका
  8. देवी की सर्वव्यापकता, देवी लोक और स्वरूप
  9. शारदीय पूजाविधान, माहात्म्य तथा फल
  10. भगवती का भूभार हरण हेतु कृष्णावतार
  11. कालीदर्शन से इन्द्र का ब्रह्महत्या से छूटना-
  12. माहात्म्य देवी पुराण
  13. कामाख्या कवच का माहात्म्य
  14. कामाख्या कवच
  15. प्रथमोऽध्यायः : भगवती गीता
  16. द्वितीयोऽध्याय : शरीर की नश्वरता एवं अनासक्तयोग का वर्णन
  17. तृतीयोऽध्यायः - देवी भक्ति की महिमा
  18. चतुर्थोऽध्यायः - अनन्य शरणागति की महिमा
  19. पञ्चमोऽध्यायः - श्री भगवती गीता (पार्वती गीता) माहात्म्य
  20. श्री भगवती स्तोत्रम्
  21. लघु दुर्गा सप्तशती
  22. रुद्रचण्डी
  23. देवी-पुष्पाञ्जलि-स्तोत्रम्
  24. संक्षेप में पूजन विधि

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