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कथ्य तथ्य पथ्य

उमेश पाण्डे

प्रकाशक : भगवती पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6282
आईएसबीएन :81-7775-009-7

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कथ्य तथ्य पथ्य, प्राचीन ग्रंथों के आधार पर कुछ बहुत ही उपयोगी एवं कई क्षेत्रों में हमारे ज्ञान का वर्द्धन करने वाली सामग्री का समायोजन...

Kathya Tathya Pathya-A Hindi Book by Umesh Pande

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

मनुष्य प्रारम्भ से ही ज्ञान-पिपासु रहा है। उसे कहीं से भी, कुछ भी जानकारी प्राप्त होती है वह उस ज्ञान को, उस जानकारी को अवश्य ही ग्रहण करता है। इस पुस्तक में मैंने प्राचीन ग्रंथों के आधार पर कुछ बहुत ही उपयोगी एवं कई क्षेत्रों में हमारे ज्ञान का वर्द्धन करने वाली सामग्री को समायोजित किया है और मुझे आशा है कि इस पुस्तक में वर्णित विभिन्न बातें अवश्य ही पाठकों के लिये उपयोगी एवं उनके ज्ञानवर्द्धन में सहायक होंगी। इस पुस्तक में मेरे शब्द कम हैं तथा हमारे कई प्राचीन ग्रंथों के शब्द अधिक। वास्तव में उन महान् ग्रंथों के शब्दों में अपने शब्दों की मिलावट कर उनकी आत्मा को नष्ट करने का दुस्साहस मुझ में नहीं था। मैं उन सभी गूढ़-ग्रंथों का उनके रचनाकारों, व्याख्याकारों, संपादकों तथा प्रकाशकों का हृदय से आभार प्रकट करता हूँ।

पुनः मैं भगवती पॉकेट बुक्स के श्री राजीवजी अग्रवाल का भी हृदय से आभारी हूँ जिनकी प्रेरणा से इस पुस्तक का सृजन सम्भव हुआ है। मैं अपने उन सभी वरिष्ठजनों तथा साथियों का भी आभार प्रकट करता हूँ जिन्होंने इस पुस्तक के लेखन के दौरान मुझे अपना अमूल्य सहयोग दिया।
पुनः पुस्तक के सम्बन्ध में आपके सुझाव, आलोचना इत्यादि का मुझे अवश्य ही इंतजार रहेगा।
पुस्तक की विषय-वस्तु इत्यादि के चयन और उसके प्रस्तुतिकरण इत्यादि में मैंने लोक रुचि का पर्याप्त ध्यान रखा है तथा यह प्रयास किया है कि सम्बन्धित सामग्री त्रुटिरहित आपके समक्ष पहुँचे। फिर भी यदि जाने-अनजाने कोई त्रुटि इसमें रह गई हो तो उसके लिये मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।

उमेश पाण्डे

इस पुस्तक के बारे में


मैंने पुस्तक कथ्य तथ्य पथ्य का आद्योपान्त अध्ययन किया और पाया कि पुस्तक अपने नाम के अनुकूल ही लिखी गई है और लेखक श्री उमेश पाण्डे का यह प्रयास सराहनीय है। पुस्तक में अनेक प्रकरण जो मानव जीवन के लिए आवश्यक हैं उनका समावेश किया गया है और उनके सम्बन्ध में विभिन्न ग्रन्थों में वर्णित उदाहरणों, श्लोकों का सरल भाषा में रूपान्तर भी किया गया है। पुस्तक में सरलता और पूर्णता का पूरा-पूरा घ्यान रखा गया है।

इस पुस्तक में यदि धर्म-कर्म, स्नान, आराधना, स्त्रोत,मंत्र, यज्ञ, भोजन और यात्रा आदि जनजीवन से सम्बन्धित प्रकरणों का समावेश किया गया है तो वहीं जड़ी-बूटी, तंत्र-मत्र, वास्तु, भूगर्भ, जल, रत्न, वृक्ष व वस्त्राभूषणों के सम्बन्ध में भी शास्त्रोक्त विधियों का सरल एवं बोधगम्य भाषा में वर्णन किया गया है।
मेरा पाठकों से अनुरोध है कि वे इस पुस्तक को प्रकरणवार ध्यान से पढ़ें, समझें और जीवन में उपयोग कर लाभ उठायें।

डॉ.हौसिला प्रसाद पाण्डे

1
धर्म प्रकरण


धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष मानव जीवन के चार स्तम्भ हैं। इनमें से भी मोक्ष का परम आधार धर्म ही है। हमारे शास्त्रों में उच्च आचार, विचार, चरित्र निर्माण, कर्म इत्यादि के निर्माणार्थ धर्म को ही आधार बनाया गया है। इसी धर्म से जुड़ी अनेकानेक बातों में से कुछ को यहाँ लिखा जा रहा है—


धृतिः क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।


अर्थात् जिस मनुष्य में धैर्य हो, क्षमा हो, जो विषयों में फँसा न हो, जो दूसरे की वस्तु को मिट्टी के समान समझता हो, जो भीतर-बाहर से स्वच्छ हो, जो इन्द्रियों को विषयों की ओर से रोकता हो, जो विवेकशील हो जो विद्वान हो, जो सत्यवादी, सत्यमानी और सत्यकारी हो, जो क्रोध न करता हो, वही पुरुष धार्मिक है। ये दस बातें यदि मनुष्य अपने अन्दर धारण कर ले तो वह न तो स्वयं दुख पावे, और न वह किसी को दुख दे सके।
वैशेषि शास्त्र के कर्ता कणाद मुनि ने धर्म की व्याख्या इस प्रकार की है-

यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः।

अर्थात् जिससे इस लोक और परलोक, दोनों में सुख मिले, वही धर्म है। इससे जान पड़ता है कि जितने भी सत्कर्म हैं, जिनसे हमको सुख मिलता है, और दूसरों को भी सुख मिलता है, वे सब धर्म के अन्दर आ जाते हैं
प्रायः ऐसा देखा जाता है कि, जो लोग धर्म छोड़ देते हैं, अधर्म से कार्य करते हैं, उनकी पहले वृद्धि होती है, परन्तु वही वृद्धि उनके नाश का कारण होती है। मनुजी ने कहा है—

अधर्मेषैधते तावत्तो भद्राणि पश्यति।
ततः यति समूलतस्तु विनश्यति।।

अर्थात् मनुष्य अधर्म से पहले बढ़ता है, उसको सुख मालूम होता है। (अन्याय से) शत्रुओं को भी जीतता है, परन्तु अन्त में जड़ से नाश हो जाता है। इसलिए धर्म की मनुष्य को पहले रक्षा करना चाहिए जो मनुष्य धर्म को मारता है, धर्म भी उसको मार देता है और जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है।
दरअसल धर्म की रक्षा तथा धर्म नीतियों का ही पालन करना मनुष्य का परम कर्तव्य है।
मनुष्य और पशु में यही तो भेद है कि, मनुष्य को ईश्वर ने धर्म दिया है, और पशुओं को धर्माधर्म का कोई ज्ञान नहीं। अन्य सब बातें पशु और मनुष्य के समान ही हैं। किसी कवि ने ठीक कहा है—

आहारनिद्राभयमैथुनं च, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम।।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो,, धर्मेणहीनाः पशुभि) समानाः।।

अर्थात् आहार, निद्रा, भय, मैथुन, इत्यादि सांसारिक बातें पशु और मनुष्य दोनों में ही समान हैं। एक धर्म ही मनुष्य में विशेष होता है, और जिस मनुष्य में धर्म नहीं वह पशु के तुल्य है।
इसलिए मनुष्य को चाहिए कि अपनी इस लोक और परलोक की उन्नति के लिए सदैव अच्छे गुणों को धारण करे। धर्म से जुड़ी विशिष्ट बातें निम्नानुसार हैं—
धृति या धैर्य धर्म का पहला लक्षण है। किसी कार्य को साहस पूर्वक प्रारम्भ कर देना, और फिर उसमें चाहे जितनी आपत्तियाँ आवें, उसको निर्वाह करके पार लगाना धृति या धैर्य कहलाता है।
महाभारत शांतिपर्व में व्यासजी ने इस प्रकार के धैर्यशाली पुरुष को हिमालय पर्वत की उपमा दी है—

न पंडितः कुप्यति नाभिपद्यते न चापि संसीदति न प्रहृष्यति।
न चापिकृच्छव्यसनेषु शौचते स्थितः प्रकृत्या हिमवानिवाचलः।।

अर्थात् ऐसा धैर्यशाली पंडित पुरुष न तो क्रोध करता है,, और न इन्द्रियों के विषयों में फँसता है, न दुःखी होता है और न हर्ष में फूलता है, चाहे जितने भारी संकट उस पर आकर पड़ें, पर वह घबड़ा कर कर्तव्य से नहीं डिगता—हिमालय की तरह अचल रहता है।
क्षमा धर्म का दूसरा लक्षण है। मनुष्य को भीतर-बाहर से कोई दुःख उत्पन्न हो, चाहे किसी दूसरे मनुष्य द्वारा वह दुःख उसे दिया गया है, और चाहे उसके कर्मों द्वारा ही उसे मिला हो, पर उस दुःख को सहन कर जाय, उसके कारण क्रोध न करे, और न किसी को हानि पहुँचावे—इसी का नाम क्षमा । दया, सहनशीलता, अक्रोध, नम्रता, अहिंसा, शान्ति इत्यादि सद्गुण क्षमा के साथी है । क्योंकि जिसमें क्षमा करने की शक्ति होती, उसी में ये सब बातें भी हो सकती हैं।
क्षमा से बड़े-बड़े शत्रु भी मित्र बन जाते हैं. नीति कहती है—

क्षमाशस्त्रं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति।
अतृणे पतितो वन्हिः स्वयमेव प्रणश्यति।।

अर्थात् क्षमा का हथियार जिसके हाथ में है, दुष्ट मनुष्य उसका क्या कर सकता है ? वह तो आप ही आप शांत हो जायेगा; जैसे-घासफूस से रहित पृथ्वी पर गिरी हुई आग आप ही आप शान्त हो जाती है।
दम धर्म का तृतीय गुण है। मन को इंद्रियों के वश में न होने देने का नाम दम है। मनुष्य के अन्दर मन इंद्रियों का राजा है। जिस तरफ मन इंन्द्रियों को चलाता है,. उसी तरफ इन्द्रियाँ अपने विषयों में दौड़ती हैं। इसलिए जब तक मन का बुद्धि द्वारा दमन नहीं किया जाय, तब तक इन्द्रियों का निग्रह नहीं हो सकता। इन्द्रियाँ इसके विषयों में फँसा कर मनुष्य का सत्यानाश कर देती हैं। भगवान् कृष्ण गीता में कहते हैं—

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनो मुविधीयते।
सदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भति।।

इन्द्रियाँ विषयों की ओर दौड़ती रहती हैं। ऐसी दशा में यदि मन भी इन्द्रियों के पीछे ही पीछे दौड़ता है, तो वह मनुष्य की बुद्धि का इस प्रकार नांश कर देता है, जैसे हवा नौका को पानी के अन्दर डुबा देती है। इसलिए जब कभी मन बुरी तरह से विषयों की ओर दौड़े—अपनी स्वाभाविक चंचलता को प्रकट करे, तभी उसको बुद्धि और विवेक से खींचकर उसकी जगह पर ही उसको रोक देवे।
किन्तु यह कार्य अत्यन्त कठिन है। गीता में कहा है—

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवट्दृढ़म्
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिष सुदुष्करम्।।

हे कृष्ण, यह मन बड़ा चंचल है। इन्द्रियों को विषयों की ओर से खींचता नहीं है, बल्कि और ढकेलता है। चाहे जितना विवेक से काम लो, फिर भी इसको जीतना कठिन है। विषयवासनाओं में बड़ा दृढ़ है। इसका निग्रह करना तो ऐसा कठिन है कि जैसे हवा की गठड़ी बाँधना।


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