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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

लतखोरी ने सकपकाकर उसका सही नाम दुहराया। ''उल्लू नहीं टिल्लू। टी...टी. टट्टू का टिल्लू।''

''ओह!'' ललाइन झेंप गईं, ''आज तू आया! तेरे पिताजी नहीं आए?''

''जी, वो बीमार हैं।''

''ओह, तभी नहीं आए।''

''जी हाँ। वरना वे ही आते।''

''तू भी आ गया तो क्या गलत किया? तेरा घर है, आएगा नहीं?''

''क्यों नहीं आऊँगा?'' लतखोरी का स्वर दर्द में और डूब गया, ''सुख में, दुख में आदमी को अपने वालों के घर जाना ही चाहिए।''

उसके इस बेसिर पैर के उत्तर को सुन ललाइन ने मुँह बिचकाया, ''तूने कहा, तेरे पिताजी बीमार हैं। क्या हुआ उन्हें?''

''जी मलेरिया है। 'एक सौ चार' डिग्री का।''

''ओ! तेरे लालाजी के पास एक बहुत अच्छी बूटी थी इसकी...''

''लेकिन लालाजी तो...''

''ऊपर गए।''

''ऊपर!'' लतखोरी को लगा यही माकूल वक्त है रोने का। और वह दहाड़े मार कर रोने लगा, ''आँ-आँ-आँ''

यकायक हुए इस विस्फोट से ललाइन हक्का-बक्का रह गईं। इस पगले को क्या हो गया? उन्होंने अनुमान लगाया-पिता की बीमारी के कारण परेशान है और अब (लालाजी के ऊपर रहने के कारण) दवा मिलने में देरी

की सोच रो रहा है। वे उसे समझाने लगीं, ''अरे रे, बेटा इतना मत रो। जरा धीरज रख...''

''अरी अम्माँ, ऐसे वक्त कैसे धीरज रखूँ? आँ-आँ...''

वह और जोर से रोने लगा। ललाइन बेचारी घबराई। आस-पास कोई सुने तो क्या कहे? इस लड़के को हम पीट रहे हैं। वह टिल्लू की ओर देखने लगीं, ''तनिक तू समझा बेटा।''

टिल्लू तो मौका ही देख रहा था, लगे हाथ वह भी मातमपुरसी करने लगा, ''बहुत समझा लिया अम्माँजी, बहुत समझा लिया, रास्ते-भर समझाते आ रहा हूँ-'यह तो जीवन है, चलता रहता है'...मगर माने तब न?''

''बहुत कच्चे दिल का लड़का है...''

''तुम्हारी तरह 'पत्थर का दिल' नहीं है मेरा। आँ-आँ...'' वह मजे से रोने लगा।

''ओफ ओ'' ललाइन ने समझाना चाहा, ''फिर रोने लगा। जरा मेरी बात सुन बेटा। तेरे लालाजी दिल के मरीज, मैं बुढ़िया...पिछले 4-5 बरसों से चक्की सँभाल रही हूँ या नहीं?''

''हाँ।''

''मैं औरत होकर हिम्मत रख रही हूँ तू लड़का होकर...''

''अरी अम्माँ तुम 'उनकी औरत' होकर भले ही हिम्मत रख लो, मुझसे नहीं रखी जाती, आँ-आँ...'' वह पुनः रोने लगा।

''मर नासपीटे!'' ललाइन मन-ही-मन भुनभुनाईं'' बाप की बीमारी से परेशान बहुतों को देखा। यह तो जैसे आसमान सिर पर उठा रहा है? लालाजी आएँगे, खुद निपटेंगे इस पगले से।'' वह सुपारी-सरोता निकाल सुपारी काटने लगी।

लतखोरी ने जो यह देखा तो तार सप्तक में रोना अधूरा छोड़ आश्चर्य से सुपारी को देखने लगा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि बुढ़िया का पति मर गया और वह आराम से सुपारी कतर रही है? उसने पलटकर टिल्लू की ओर देखा? टिल्लू खुद भी आश्चर्य कर रहा था।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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