लोगों की राय

कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

335 पाठक हैं

‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

घर निकट आ गया था। दोनों ने घड़ी देखी। फिल्म का शो शुरू होने में दस मिनट थे। यदि दो मिनट में वे सोहनलाल को 'सांत्वना' दे दें तो फिल्म

उन्हें अभी मिल सकती थी। एक बार चेहरा दिखाने के बाद इत्ती भीड़ में किसे पता चलेगा कि अपन यहाँ हैं या टॉकीज में?

योजना बना वे भीड़ में घुस गए। दो मिनट में सब निबटाना था। किसी को इधर ठेल, किसी को उधर धकेल, धक्कमधुक्की करते हुए वे सोहनलाल के निकट पहुँच ही गए। चेहरे दोनों ने 'मातमी' बना रखे थे। सोहनलाल की पीठ पर हाथ रख वे बारी-बारी 'शोक प्रगट' करने लगे,' सुनकर बहुत दुख हुआ सोहनलाल।'

''हां, सोहनलाल, हमें तो विश्वास ही नहीं हुआ।''

''ऐसा नहीं होना था, कम-से-कम दो चार साल और रहना था...''

''दो-चार साल क्यों? कम-से-कम दस साल। दस साल की तो मैंने कल ही प्रार्थना की थी मंदिर में...''

वे दोनों शोक प्रगट कर रहे थे और सोहनलाल आँखें फाड़े उन्हें देख रहा था।

दोनों समझे सोहनलाल उनकी परफार्मेंस से बेहद इम्प्रेस्ड हैं। फिल्में देखने का यही तो फायदा हैं। दोनों उत्साहित हो अपना समस्त कौशल उँडेलने लगे, ''जब से सुना है-दिल गम से बेहाल है।''

''कुछ अच्छा नहीं लग रहा...''

''चारों ओर अँधेरा..., अरे, अरे...मेरी गर्दन। कौन है यार...किसने पकड़ी?''

''अरे...मेरी भी गर्दन...छोड़ यार...क्या करता है...अबे टूट जाएगी घोंचू, टिल्लू देख तो कौन है...''

''अरे कैसे देखूँ?'' टिल्लू पीड़ा से बिलबिलाया, ''मेरी भी...''

दोनों कसमखाने लगे। बड़ी मुश्किल से जोर लगा दोनों ने पीछे देखा?

''अरे बाप रें।'' देखते ही दोनों के होश फाख्ता हो गए। हाथीवाले लाला दाँत पीसते हुए दोनों की गर्दनें मसल रहे थे।

दोनों की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा। जिस वक्त दोनों वहाँ पहुँचे थे, लालाजी अंदर थे, और दोनों जब लालाजी का 'मातम' मना रहे थे, लालाजी बाहर आ गए।

''क्यों रे कछुओं...'' लालाजी ने दबाव बढ़ाया, ''यहाँ लोग मेरे बेटे के छूटने का जश्न मना रहे हैं...और तुम दोनों स्यापा कर रहे हो-छूट क्यों गया? दस-पाँच बरस और रहना था।''

''ई-ई-ई''? दोनों की घिग्घी बँध गई। दोनों चाहकर भी बोल नहीं पाए, ''...लालाजी हम सोहनलाल के जेल से छूटने का मातम नहीं मना रहे थे...हम तो आपके ही इस दुनिया से छूटने का स्यापा कर रहे थे...''

दोनों ने छूटने के लिए जोर लगाया-जय बजरंग बली। लालाजी उनसे भी बड़े भक्त थे। उनकी पकड़ रत्ती-भर कम नहीं हुई। लतखोरी का फिल्मी ज्ञान काम आया। उसने लालाजी को गुदगुदी की...लालाजी मचले...उधर टिल्लू ने भी की...दोनों करने लगे...लालाजी की पकड़ ढीली हुई...दोनों को मौका मिला...दोनों ने जोर लगाया....और लालाजी की पकड़ से छूट गए। किसी को इधर ठेल, किसी को उधर फेंक....भीड़ में सबको दबाते-कुचलते-उछलते वे भागे। जब तक कोई कुछ समझता, वे गलियों में से होते हुए बहुत दूर निकल गए।

दोनों हाँफते हुए एक बिजली के खंबे का सहारा ले सुस्ताने लगे। दोनों के सामने यह तो स्पष्ट हो चुका था-मरने वाले लाला कौन से हैं? लेकिन दो बार की गफलत ने उनका मूड कुछ इस कदर उखाड़ दिया था कि उन्होंने तीसरे लाला के घर जाने का विचार किया कैंसिल और पास की एक टॉकीज में जा, सारी चिंताएँ दूर छिटक फिल्म देखने बैठ गए।

 

0 0 0


...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai