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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

उसके बाद डेढ़-दो वर्ष बीत गए। इस दरम्यान 6-7 मर्तबा मैं उधर से निकला। कंपनी का हेड ऑफिस मुंबई था। 2-3 दफ़ा कंपनी काम से जाते हुए शेष दफ़ा अपने नेटिव प्लेस खंडवा आते-जाते हुए। गाड़ी बदलते समय अनायास मेरी नज़रें प्लेटफार्म पर दौड़ने लगतीं, मगर हर बार निराशा हाथ लगती। धोंडू फिर कभी नज़र नहीं आया।

आज इस बच्चे को देख हठात धोंडू फिर याद आ गया।

बच्चे ने जूते चमका दिए थे। जेब से दो रुपये निकाल मैंने उसकी ओर बढ़ाए। मगर लेने का उपक्रम न कर वह मौन बैठा रहा। मैं पशोपेश में पड़ गया-भला और कितने लेगा? तभी गौर किया वह मुझे न देख, मेरे पीछे की ओर देख...मंद-मंद मुस्कुराए जा रहा है?

अब मैंने तुरंत मुड़कर पीछे देखा।...चंद कदमों के फासले पर धोंडू खड़ा मुस्करा रहा था। पहले से चुस्त-तंदरुस्त...कपड़े ठीक-ठाक, पाँव में जूते भी!

हैरत से मैं किलक पड़ा, ''अरे।...धोंडू तुम?''

''हाँ साहेबजी...'' आह्लाद में डूबा-सा धोंडू बढ़ा और मेरे पाँव छूने लगा। मैंने पकड़कर गले लगा लिया, ''बहुत खुशी हो रही है धोंडू तुम्हें देखकर...'' मेरा गला भर आया था, ''...मुझे खुशी है कि तुम अब भी डटे हुए हो...''

''हाँ साहेबजी...'' रोते हुए उसकी ओंखें चमकने लगीं, ''...और मैंने...मैंने आपका कर्जा...आपका कर्जा भी उतार दिया।''

''सच!''

''हाँ साहेबजी...'' वह रुँधे कंठ उस बच्चे को खींचकर मेरे पास लाया, ''...ये जॉनी है..., पहले ये भी..! अब मेरे साथ...'' उसका गला भर आया।

मेरी आँखों से आँसू बह चले। मैं गर्व से उन नन्हे कर्मयोगियों को देखता रहा...स्व-रोजगार का कितना सुंदर उदाहरण पेश किया था उन दोनों ने! मैंने पूरी शक्ति से दोनों को भींचकर हृदय से लगा लिया। हम तीनों की आँखें खुशी से चमक रही थीं।

 

 

 

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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