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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

''फिर हमसे क्या नाराजगी रही...हमें खबर ही नहीं की?''

''ऐसा है, ''पिताजी के चेहरे पर कूटनीतिक मुस्कान उभरी, ''...जिनके पत्र आते रहते थे कुशल-क्षेम के...उनके नंबर थे मेरे पास।...हड़बड़ी में वहीं-वहीं खबर करवा सका...''

दोनों समधी कटकर रह गए। पिताजी ने बेहद नफासत से उन्हें उलाहना दे दिया था।

एक क्षण चुप रह बड़े समधी ने बात सँभालनी चाही, ''इन लोगों ने ऐसा व्यवहार रखा, हमें सपने में भी गुमान नहीं था। आप यदि एक बार भी पत्र डाल देते...''

''अरे! मैं तो समझता रहा, आप सब जानते होंगे?''

''नहीं जी...'' मामला सँभलता देख बड़े समधी में कुछ उत्साह जागा, ''...हमें आभास तक नहीं था।''

''अजीब बात है...'' पिताजी का स्वर थोड़ा भर्रा गया, ''...बहुएँ हर साल छुट्टियों में मायके पहुँच जाती थीं, आपने कभी पूछा नहीं-फिर सास-ससुर के पास कब जाती हो?''

''ज...जी-ई!''

''सास-ससुर की इच्छा नहीं होती अपने पोते-पोतियों से मिलने की?'' दोनों समधी और उनके परिजनों को काटो तो खून नहीं। पिताजी ने कितने संक्षिप्त शब्दों में बहुओं की सेवाहीनता का दुखड़ा बयाँ कर दिया था। सबके सिर झुक गए।

पिताजी की रुँधी आवाज़ अब थरथराने लगी थी, ''समधीजी।...बेटी से माँ-बाप यह जरूर पूछ लेते हैं-सास-ससुर का व्यवहार कैसा है?'...कभी ऐसा क्यों नहीं पूछते-'तुम्हारा व्यवहार उनके प्रति कैसा है?' पूछा आपने।''

समधियों के दिलो-दिमाग में सैकड़ों घंटे बजने लगे। वे तो उल्टे खुश होते थे-उनकी बेटी को कोई 'झंझट' नहीं है...'स्वतंत्र' है अपनी गृहस्थी में।   

...यदि उनकी बहू भी इसी भांति स्वतंत्र रहना चाहती तब!

वे काँप उठे। कुछ क्षणों की खामोशी के बाद दोनों समधियों ने अपने-अपने अश्रुपूर्ण चेहरे ऊपर उठाए, ''....अपनी बेटियों के वैसे व्यवहार के लिए हम क्षमा माँगते हैं। अब वे ऐसा कदापि नहीं करेंगी...''

''...खैर...इसे आजमाने की जरूरत नहीं पड़ेगी...'' पिताजी ने आदरपूर्वक उनके कँधों को थपथपाया, ''...मैंने दूसरे इंतज़ाम कर लिए हैं।''

और बारहवें के दिन इन 'इंतजामों' का खुलासा हुआ। कथा आरंभ होने के पूर्व बड़े फूफाजी ने घोषणा की, ''...यह मकान पिताजी ने हाई-स्कूल के छात्रावास के लिए दान कर दिया है। इसमें सोलह छात्र रह सकेंगे। माँ के गहने बेच पिताजी ने स्कूल के संयुक्त नाम से एफ.डी. करवा दी है...छात्रों से किराया और एफ.डी. का ब्याज...स्कूल पिताजी की देखभाल अच्छी तरह कर लेगा...उनके बाद यह सब स्कूल का हो जाएगा...''

सुनते ही मेघा-श्लेषा शर्म से गड़ गईं। अभी तक अपने दुर्व्यवहार से उन्होंने सास-ससुर के जीवन में जो अँधेरा किया था, उस अँधेरे की कालिमा कालिख बन कर उनके सुंदर चेहरों पर पुत गई थी।

 

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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