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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

कुछ क्षणों के मौन के बाद साहब ने सहानुभूतिपूर्वक उन्हें निहारा, ''मुझे अत्यंत खेद है, बनवारीलालजी। कंपनी के इतने पुराने और ईमानदार मुलाजिम होने के बावजूद आपको परेशानियाँ उठानी पड़ीं। आप एक बार भी मुझसे मिल लेते...''

''आप इतना व्यस्त रहते हैं। महीने में पच्चीस-छब्बीस दिन अन्य ब्रांचों के दौरे...इत्तेफ़ाक से आज आप यहीं थे...''

''खैर! जो हुआ सो हुआ...'' मृदुल मुस्कान बिखेर साहब ने उन्हें आश्वस्त किया, ''अब आप रत्तीभर चिंता न करें। कल आपका काम निश्चित रूप से हो जाएगा।''

''सच साहब!'' आह्लाद से बनवारीलाल का गला हठात् रुँध गया। कृतज्ञतापूर्वक उन्होंने साहब के हाथ जोड़ लिए, ''बहुत-बहुत मेहरबानी होगी साहब आपकी। मेरा दिल ही जानता है, कितनी परेशानी होती है मुझे बार-बार गाँव से आने में?''

''गाँव से आने में?'' साहब एकदम चौंके, ''मैं समझा नहीं, कौन से गाँव से आने में? आप तो शायद रायपुर रहने लगे हैं न, अपने बड़े बेटे के पास?''

''...ज...जी!'' बनवारीलाल सहसा संकोच से गड़ गए।

''फिर ये गाँव?''

बनवारीलाल अटकने लगे, ''जी...वो चालीस-पैंतालीस किलोमीटर पर ग्राम माँचल है...जीरापुर से नौ किलोमीटर अंदर...''

''हाँ-हाँ...सुना तो है...नदी किनारे कोई पुरानी गढ़ी है...''

''जी हाँ वही। वहाँ खेती है छोटी-सी...साढ़े छह बीघा की।''

''अच्छा-अच्छा। उसे बटाई पर देने आए होंगे अभी रायपुर से?''

''जी-ई...'' बनवारीलाल संकोच से वहीं सोफे में धँस गए, ''....अ...आऽजकल...मैं...वहीं रहता हूँ।''

''वहाँ?'' साहब की आँखें आश्चर्य से फैल गईं, ''उस सुविधाहीन गाँव में?"

''बनवारीलाल सिर झुकाए अपने में और सिमट गए।

''मेरा ख्याल है, शायद बसें भी नहीं जाती वहाँ? तीन-चार किलोमीटर पैदल जाना होता है?''

'हाँ' में बनवारीलाल ने सिर हिलाया।

''फिर?...ऐसे सुविधाहीन गाँव में रहने की क्या सूझी आपको? रायपुर में मन नहीं लगा आपका?''

जवाब देने के बदले बनवारीलाल पूरी तरह गड़ गए। उनकी आँखों की कोरों पर आँसू चमकने लगे।

साहब गहरी नज़रों से अब भी उन्हें भाँप रहे थे। उन्होंने भेदते स्वर में उनके दिल को कुरेदा, ''आपने जवाब नहीं दिया बनवारीलालजी? रायपुर में मन नहीं लगा आपका?''

भला क्या जवाब देते बनवारीलाल? क्या अपने ही घर का दुखड़ा रो देते साहब के सम्मुख?...और वह भी अपनी ही औलाद के विरुद्ध? होंठ भींचे सिर झुकाए बैठे रहे।

साहब की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। उन्होंने बालकों के से कौतूहल से पूछा, ''आपके दो पुत्र और हैं न?...जबलपुर और इटारसी में?''

'हाँ' में बनवारीलाल ने हौले से सिर हिलाया।

''वे भी शायद अच्छे ओहदों पर हैं? खुद के बंगले हैं? उनके यहाँ गए थे?''

''जी!'' फटी धौंकनी-सी उनके गले से आवाज़ निकली।

''फिर वहाँ भी नहीं रहते? ऐसी कमजोर वृद्धावस्था में?...आपकी पत्नी को तो गठिया है न?''

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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