लोगों की राय

कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

335 पाठक हैं

‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

पूरे दफ्तर की बाझें खिल गईं। अब आएगा ऊँट पहाड़ के नीचे! सब बेसब्री से लतखोरीलाल के लौटने का इंतज़ार करने लगे।

आधे घंटे बाद लतखोरीलाल पधारे। बाँहें चढ़ी हुईं, मुँह में डबल पान दबा हुआ, होंठों पर कुटिल मुस्कान और चाल में शहंशाही शान! किसी विश्व-विजेता की भांति वे अकड़ते हुए अपनी टेबल पर आए। सबकी उत्सुक निगाहें उनकी ओर लगी हुई थीं। कुर्सी पर बैठने की बजाय वे एक टांग मोड़ टेबल पर अड़ गए और रूमाल से होंठों पर चू आया कत्था पोंछ पूरे दफ्तर को दर्प से निहारा। मुस्कुराकर अभी वे अपनी बहादुरी का बखान करने वाले थे कि कैसे बाँगड़ूजी का रंग उतार कर आए हैं, चपरासी ने नैन मटकाते हुए सूचना दी, ''बड़े साहब ने आते ही तलब किया है।''

''ऐं?'' लतखोरीलाल बिच्छू काढ़े-सा उछले। सहकर्मियों ने यत्नपूर्वक हँसी रोकी। आशंकित लतखोरीलाल ने तुरंत पान थूका और दौड़ते हुए केबिन में लपके।

सारे सहकर्मी अपनी-अपनी कुर्सियाँ छोड़ केबिन के दरवाजे से कान चिपकाकर खड़े हो गए। अंदर बड़े साहब लतखोरीलाल प र'आदतन गायब' रहने के लिए लाल-पीले हो रहे थे और लतखोरीलाल कान पकड़ सफाई पेश कर रहे थे।

दस मिनट बाद बड़े साहब ने लतखोरीलाल को छोड़ा। एक मेमो भी हाथों-हाथ थमा दिया, ''हस्ताक्षर कर ड्यूटी से फरार होने का!''

मुँह लटकाए पिटे पहलवान की मानिंद लतखोरीलाल बाहर आए। द्वार से कान सटाए खड़े सारे सहकर्मी भागकर अपनी-अपनी कुर्सियों में धँस गए। यद्यपि सबने फाइलों में मुँह छिपा अपनी-अपनी हँसी रोक रखी थी,

मगर दाँत किटकिटा रहे लतखोरीलाल को समझते देर नहीं लगी कि इन चुगलखोरों ने अंदर की एक-एक डाँट सुन ली है।''

घायल सर्प की तरह वे बल खाकर रह गए।

इत्तेफ़ाक से उसी समय पोस्टमैन का आना हुआ...पोस्टमैन नहीं हुआ, उनके सामने लहराता लाल कपड़ा हुआ...हड़काए साँड की तरह वे भड़क उठे। यही तो है वह खडूस जो बाँगड़ का पत्र लाया था। क्या जरूरत थी इसे मेरा कार्ड पत्र बोर्ड पर टाँगने की? बैठै ही बैठे उन्होंने खा जाने वाले स्वर में दहाड़ लड़ाई, ''अबे ओ पोस्टमन...इधर आ?''

अपने को इतने अपमानित ढंग से पुकारे जाने पर पोस्टमैन भड़क उठा, ''रे मिस्टर! तमीज़ से आवाज़ लगाइए। मैं आपका निजी नौकर नहीं हूँ, एक सरकारी मुलाजिम हूँ...''

''अबे तो कोई तोपचंद है?'' उसके प्रतिवाद पर अपमानित महसूस कर लतखोरीलाल और भी तीखे हो गए, ''पहली और आखिरी मर्तबा बोल रहा हूँ, मेरी डाक मेरी टेबल पर और सिर्फ मेरे हाथ में ही देकर जाया करो, इन सब चिट्ठियों के साथ मिलाकर देने की कोई जरूरत नहीं..., समझ गए?''

''देखिए मिस्टर! कोई रजिस्ट्री या बैरंग होगी तो ही हाथ में दी जाएगी, वरना दफ्तर के पते वाली चिट्ठियाँ दफ्तर के ढेर के साथ यहाँ इकट्ठी...''

''इकट्ठी के बच्चे, मैं तेरी शिकायत कर दूँगा...''

''शिकायत आप क्या, मैं आपकी कर दूँगा, अभी, इसी वक्त...आपके बड़े साहब को...'' और वह बड़े साहब के केबिन में जाने को मुड़ा।

लतखोरीलाल की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। वे घबराकर फौरन उसकी ओर लपके। पोस्टमैन मछली की भांति फिसल, उनके रोकते-रोकते भी बड़े साहब के केबिन में घुस गया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

लोगों की राय

No reviews for this book