ओशो साहित्य >> भारत एक अनूठी सम्पदा भारत एक अनूठी सम्पदाओशो
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भारत केवल एक भूगोल या इतिहास का अंग ही नहीं है। यह सिर्फ एक देश, एक राष्ट्र, एक जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है। यह कुछ और भी है- एक प्रतीक, एक काव्य, कुछ अदृश्य सा-किन्तु फिर भी जिसे छुआ जा सके!
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ओशो के प्रमुख विचारों ने, ओजस्वी वाणी ने मनुष्यता के दुश्मनों पर,
संप्रदायों पर, मठाधीशों पर, अंधे राजनेताओं पर, जोरदार प्रहार किया।
लेकिन पत्र-पत्रिकाओं ने छापीं यो तो ओशो पर चटपटी मनगढंत खबरें या उनकी
निंदा की, भ्रम के बादल फैलाए। ये भ्रम के बादल आड़े आ गये। ओशो
और
लोगों के। जैसे सूरज के आगे बादल आ जाते हैं। इससे देर हुई। इससे देर हो
रही है। मनुष्य के सौभाग्य को मनुष्य तक पहुंचने में।
आशकरण अटल
भारत: एक अनूठी सम्पदा
भारत केवल एक भूगोल या इतिहास का अंग ही नहीं है। यह सिर्फ एक देश, एक
राष्ट्र, एक जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है। यह कुछ और भी है- एक प्रतीक,
एक काव्य, कुछ अदृश्य सा-किन्तु फिर भी जिसे छुआ जा सके ! कुछ विशेष
ऊर्जा-तरंगों से स्पंदित है यह जगह, जिसका दावा कोई और देश नहीं कर सकता।
इधर दस हजार वर्षों में सहस्त्रों लोग चेतना की चरम विस्फोट की स्थिति तक पहुँचे हैं। उनकी तरंगें अभी भी जीवंत हैं। उनका असर अभी भी हवाओं में मौजूद है। तुम्हें सिर्फ एक विशेष तरह की ग्राहकता की, संवेदनशीलता की, उस अदृश्य को गृहण करने की क्षमता की जरूरत है, जो इस अद्भुत भूमि को घेरे हुए है।
शायद यही एक मात्र मुल्क है जो बड़ी गहनता से चैतन्य के विकास में संलग्न रहा, किसी और चीज में नहीं। दूसरे सभी मुल्क और हजारों चीजों में व्यस्त रहे। लेकिन इस मुल्क का एक ही लक्ष्य, एक ही उद्देश्य रहा कि कैसे मनुष्य की चेतना उस बिन्दु तक उठ सके, जहां भगवत्ता से मिलन हो, कैसे भगवत्ता और मनुष्य करीब आएं !
और यह किसी इक्के-दुक्के आदमी की नहीं, करोड़ों-करोड़ों व्यक्तियों के जीवन की बात है। कोई एक दिन, महीना, या साल का सवाल नहीं, सहस्र वर्षों की सतत् साधना है। सम्भावत: इस देश में सब ओर एक अत्यन्त ऊर्जामय क्षेत्र निर्मित हो गया है, वह पूरी जगह पर छाया है। तुम्हें सिर्फ तैयार (संवेदनशील) होना है।
यह संयोग मात्र ही नहीं है कि जब भी कोई सत्य के लिए प्यासा होता है, अनायास ही वह भारत में उत्सुक हो उठता है, अचानक वह पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है।
सदियों से, सारी दुनिया के साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं; पर जो संवेदनशील हैं, उनके लिए इससे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्वी पर कहीं और नहीं है। लेकिन वह समृद्धि आंतरिक है।
इधर दस हजार वर्षों में सहस्त्रों लोग चेतना की चरम विस्फोट की स्थिति तक पहुँचे हैं। उनकी तरंगें अभी भी जीवंत हैं। उनका असर अभी भी हवाओं में मौजूद है। तुम्हें सिर्फ एक विशेष तरह की ग्राहकता की, संवेदनशीलता की, उस अदृश्य को गृहण करने की क्षमता की जरूरत है, जो इस अद्भुत भूमि को घेरे हुए है।
शायद यही एक मात्र मुल्क है जो बड़ी गहनता से चैतन्य के विकास में संलग्न रहा, किसी और चीज में नहीं। दूसरे सभी मुल्क और हजारों चीजों में व्यस्त रहे। लेकिन इस मुल्क का एक ही लक्ष्य, एक ही उद्देश्य रहा कि कैसे मनुष्य की चेतना उस बिन्दु तक उठ सके, जहां भगवत्ता से मिलन हो, कैसे भगवत्ता और मनुष्य करीब आएं !
और यह किसी इक्के-दुक्के आदमी की नहीं, करोड़ों-करोड़ों व्यक्तियों के जीवन की बात है। कोई एक दिन, महीना, या साल का सवाल नहीं, सहस्र वर्षों की सतत् साधना है। सम्भावत: इस देश में सब ओर एक अत्यन्त ऊर्जामय क्षेत्र निर्मित हो गया है, वह पूरी जगह पर छाया है। तुम्हें सिर्फ तैयार (संवेदनशील) होना है।
यह संयोग मात्र ही नहीं है कि जब भी कोई सत्य के लिए प्यासा होता है, अनायास ही वह भारत में उत्सुक हो उठता है, अचानक वह पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है।
सदियों से, सारी दुनिया के साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं; पर जो संवेदनशील हैं, उनके लिए इससे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्वी पर कहीं और नहीं है। लेकिन वह समृद्धि आंतरिक है।
।।1।।
धर्म का गहन धर्म का गहन तत्त्व
प्यारे ओशो !
श्रुति: विभिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना,
न एको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्
महाजनो येन गत: स पन्था:।।
न एको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्
महाजनो येन गत: स पन्था:।।
अर्थात् श्रुतियां विभिन्न हैं, स्मृतियां भी भिन्न हैं और एक भी मुनि के
वचन प्रमाण नहीं हैं। धर्म का तत्त्व तो गहन है। इसलिए उसे जानने के लिए
तो महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं, वही केवल मार्ग है। प्यारे ओशो ! महाजन
की पहचान क्या है ? उनके मार्ग पर चलने का अर्थ क्या है ? समझाने की
अनुकंपा करें।
आनंद किरण ! यह सूत्र अत्यन्त सारगर्भित है। श्रुति विभिन्ना। शास्त्र दो प्रकार के हैं- एक श्रुति और एक स्मृति। श्रुति का अर्थ होता है, प्रबुद्ध पुरुष से सीधा-सीधा सुना गया। जिन्होंने गौतम बुद्धि के पास बैठकर सुना और संकलित किया, वह श्रुति। जो महावीर के पास उठे-बैठे, जिन्होंने कबीर का सत्संग किया; जीवंत गुरु के पास प्रेम के सेतु बनाए; जिन्होंने समर्पण किया-और सुना: जिन्होंने अपनी बुद्धि को एक तरफ रख दिया हटाकर-और सुना; जिन्होंने स्वयं के तर्क को बाधा न देनी दी, स्वयं की जानकारियों को बीच में न आने दिया- और सुना; इस तरह जो शास्त्र संकलित हुए, वे हैं श्रुतियां। लेकिन फिर श्रुतियों को सुनकर जिन्होंने समझा, जैसे बुद्ध को आनन्द ने सुना और बुद्ध के वचन संकलित किए............इसलिए सारे बुद्ध-शास्त्र इस वचन से शुरू होते हैं: ‘मैंने ऐसा सुना है।’ आनंद यह नहीं कहता कि मैं ऐसा जानता हूँ; इतना ही कहता है कि मैंने ऐसा सुना है। पता नहीं ठीक भी हो, ठीक न भी हो। पता नहीं मैंने कुछ बाधा दे दी हो। मेरे विचार कि कोई तरंग आड़े आ गई हो। पता नहीं मेरा मन धुंधवा गया हो। मेरी आँखों में जमी धूल कुछ का कुछ दिखा गयी हो। मैंने कोई और अर्थ निकाल लिए हों, कि अर्थ का अनर्थ हो गया हो। इसलिए पता नहीं बुद्ध ने क्या कहा था; इतना ही मुझे पता है कि ऐसा मैंने सुना था।
यह बड़े ईमानदारी का वचन है कि मैंने ऐसा सुना है। नहीं कि बुद्ध ने ऐसा कहा है। बुद्घ ने क्या कहा था, यह तो बुद्ध जानें, या कोई बुद्ध होगा तो जानेगा। लेकिन फिर आनन्द ने जो संकलित किया, आज उसे भी ढाई हजार वर्ष हो गये। उसको लोग पढ़ रहे हैं, गुन रहे, मनन कर रहे हैं, चिंतन कर रहे हैं, उस पर व्याख्याएँ कर रहे हैं। ये जो शास्त्र निर्मित होते हैं, ये स्मृतियां।
ये तो जैसे कि कोई आकाश का चांद झील में अपना प्रतिबिम्ब बनाए और तुम झील को भी दर्पण में देखो तो तुम्हारे दर्पण में भी चांद का प्रतिबिम्ब बने- प्रतिबिम्ब का प्रतिबिम्ब। श्रुति तो ऐसे है जैसे चांद झील में छा गया और स्मृति ऐसे है जैसे झील की तस्वीर उतारी, कि झील को दर्पण में बांधा। स्मृति दूर की ध्वनि है, और दूर हो गयी। श्रुति भी दूर है, पर बहुत दूर नहीं; कम से कम गुरु और शिष्य के बीच सीधा-सीधा संबंध है। कुछ तो बात पते की कान में पड़ ही गयी होगी। सौ बातों में एक बात तो सार की पकड़ में आ गयी होगी। किसी संधि से, किसी द्वार से, किसी झरोखे से कोई किरण तो उतर ही गयी होगी। लेकिन स्मृति तो बहुत दूर है- प्रतिध्वनि की प्रतिध्वनि है।
यह सूत्र कहता है : श्रुति: विभिन्ना। यूं तो सुनने में ही बात बड़ी भिन्न भिन्न हो जाती है। अब जैसे तुम मुझे यहां सुन रहे, जितने लोग सुन रहे हैं उतनी श्रुतियां हो गयीं। मैं तो जो कह रहा हूं एक ही बात कर रहा हूँ। लेकिन तुम सुननेवाले तो अनेक हो, तुम्हारी अक्ल पृष्ठभूमि है, तुम्हारी अलग धारणा है, अलग विचार हैं। तुम अपने-अपने ढंग से सुनोगे। तुम्हारे ढंग, तुम्हारी शैली निश्चित रूप से जो तुम सुनोगे उसे प्रभावित करेगी। हिन्दू एक ढंग से सुनेगा, जैन दूसरे ढंग से, बौद्ध तीसरे ढंग से। दुनिया में तीन सौ धर्म हैं और तीन हजार सम्प्रदायों के कोई तीस हजार उप-सम्प्रदाय हैं। तुम अपनी-अपनी धारणाओं के जाल में बंधे हो। मेरी बात तुम तक पहुंचेगी, पहुंचते-पहुंचते ही कुछ की कुछ हो जाएगी। आस्तिक सुनेगा एक ढंग से, नास्तिक सुनेगा और ढंग से; दोनों के पास कान एक जैसे हैं, मगर कानों के भीतर बैठा हुआ मन और मन के संस्कार तो भिन्न-भिन्न हैं।
बुद्धि ने एक दिन कहा कि तुम जितने लोग हो उतने ही ढंग से मुझे सुन रहे हो, उतने ही ढंग से मेरी व्याख्या कर रहे हो। आनंद ने रात्रि उनसे पूछा कि मैं समझा नहीं। आप अकेले हैं, जो आप बोलते हैं हम वही तो सुनते हैं। अन्य कैसे हो जाएगा, भिन्न कैसे हो जाएगा ?
बुद्ध ने तीन नाम दिये आनन्द को और कहा : ‘कल इन तीनों से पूछना कि क्या सुना था। मैंने जब प्रवचन पूरा किया था और अन्तिम बात कही थी.......।’ रोज अपने प्रवचन के अंत पर बुद्ध कहते थे- ‘अब रात हो गयी, अब जाओ रात्रि का अंतिम कार्य करो।’ यह केवल एक संकेत था भिक्षुओं को कि अब जाओ, सोने के पहले ध्यान में उतरो और ध्यान में उतरते-उतरते ही निद्रा में लीन हो जाओ। क्योंकि सुषुप्ति में और समाधि में बहुत भेद नहीं है। सुषुप्ति मूर्च्छित समाधि है। समाधि जाग्रत सुषुप्ति है। इसलिए नींद को समाधि में बदल लेना सबसे सुगम उपाय है आत्मसाक्षात्कार का। जरा-सी बात जोड़नी है। सुषुप्ति का अर्थ है : जब स्वप्न भी नहीं रह जाते, ऐसी गहन निद्रा। जब सारे स्वप्न भी तिरोहित हो गये, जहां स्वप्न भी न बचे, विचार भी न बचे, वासना भी न बची, वहां मन भी न बचा, तो अ-मनी दशा हो गयी। लेकिन बेहोशी है होश नहीं है। सन्नाटा है, प्रगाढ़ मौन है। लेकिन काश, एक दीया और जल जाता, जरा-सा होश और होता ! काश, हम इस प्रगाढ़ शान्ति को देख भी लेते, पहचान भी लेते ! काश, हम जागे-जागे इसका अनुभव भी कर लेते ! इसलिए नींद के पहले का ध्यान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उसमें जो गहरा उतर जाए तो रातभर एक अखंडित धारा शून्य की भीतर चली जाती है, फिर सुषुप्ति दिखाई पड़ती है। और जब सुषुप्ति दिखाई पड़ती है तो वही समाधि है। देखनेवाला मौजूद हो तो सुषुप्ति समाधि है।
इसलिए बुद्ध ने.........रोज-रोज क्या कहना कि अब ध्यान करो, इतना ही कह देते थे प्रतीक कि अब जाओ रात्रि का अंतिम कार्य......अब दिवस पूरा हुआ, अब आखिरी काम कर लो और सो जाओ। उसको करते-करते ही सो जाओ।
बुद्ध ने आनंद से कहा : ‘कल तू, तीन व्यक्ति हैं, इनमें पूछ लेना कि उन्होंने क्या समझा जब मैंने यह वचन कहा था। वे तीनों मेरे सामने ही बैठे हुए थे और तीनों को देखकर ही मैंने समझा कि उन्होंने अलग-अलग समझा है।’
आनंद ने कल उन तीनों को पकड़ा और पूछा और कहा कि बुद्ध ने ही ये नाम दिये हैं। इसलिए सच-सच कहना, मैं नहीं पूछ रहा हूं जैसे उन्होंने ही ये पुछवाया है।
थोड़ा तो संकोच हुआ उन तीनों को, लेकिन फिर जब बुद्ध ने ही पुछवाया था तो अपना हृदय उघाड़ दिया। उनमें एक था भिक्षु- गहन साधना में लीन। उसने कहा, ‘और क्या समझूंगा ! यही समझा कि अब जाऊं, ध्यान में डूबूं और ध्यान में डुबा-डुबा ही निद्रा में उतर जाऊं। यही समझा। यही बुद्ध ने कहा था।’
दूसरे ने पूछा; वह एक चोर था। उसने कहा, ‘छिपाना क्या, छिपाऊं कैसे ? बुद्ध स्वयं पूछते हैं तो सत्य कहना ही होगा। जब बुद्ध ने यह वचन कहा तो मुझे याद आया कि अरे रात गहरी होने लगी, मेरे काम का समय हुआ, अब जाऊं, चोरी वगैरह करके जल्दी घर लौटूं और सोऊं।’ और तीसरी एक वेश्या थी- और जब आनंद ने उससे पूछा तो वह बहुत सकुचायी, बहुत लजायी। बड़ी प्रसिद्ध वेश्या थी—आम्रपाली, जो बाद में बुद्ध की भिक्षुणी बनी। बुद्ध की भिक्षुणी बनी, इससे जाहिर होता है कि एक प्रामाणिक स्त्री थी। सुकुचायी जरूर, लेकिन फिर सत्य उसने कहा, उसने कहा कि छिपाना कैसे, छिपाना नहीं हो सकता। उन्होंने पूछा है तो वही कहना होगा जो मेरे भीतर हुआ था। यही हुआ कि अब जाऊं, अपने व्यवसाय में लगूं। मेरा व्यवसाय तो वेश्या का व्यवसाय है।
तो एक ध्यान में लगा, एक चोरी करने निकल गया, एक अपनी वेश्यागिरी में संलग्न हो गयी। और बुद्ध ने तो एक ही बात कही थी।
आनंद किरण ! यह सूत्र अत्यन्त सारगर्भित है। श्रुति विभिन्ना। शास्त्र दो प्रकार के हैं- एक श्रुति और एक स्मृति। श्रुति का अर्थ होता है, प्रबुद्ध पुरुष से सीधा-सीधा सुना गया। जिन्होंने गौतम बुद्धि के पास बैठकर सुना और संकलित किया, वह श्रुति। जो महावीर के पास उठे-बैठे, जिन्होंने कबीर का सत्संग किया; जीवंत गुरु के पास प्रेम के सेतु बनाए; जिन्होंने समर्पण किया-और सुना: जिन्होंने अपनी बुद्धि को एक तरफ रख दिया हटाकर-और सुना; जिन्होंने स्वयं के तर्क को बाधा न देनी दी, स्वयं की जानकारियों को बीच में न आने दिया- और सुना; इस तरह जो शास्त्र संकलित हुए, वे हैं श्रुतियां। लेकिन फिर श्रुतियों को सुनकर जिन्होंने समझा, जैसे बुद्ध को आनन्द ने सुना और बुद्ध के वचन संकलित किए............इसलिए सारे बुद्ध-शास्त्र इस वचन से शुरू होते हैं: ‘मैंने ऐसा सुना है।’ आनंद यह नहीं कहता कि मैं ऐसा जानता हूँ; इतना ही कहता है कि मैंने ऐसा सुना है। पता नहीं ठीक भी हो, ठीक न भी हो। पता नहीं मैंने कुछ बाधा दे दी हो। मेरे विचार कि कोई तरंग आड़े आ गई हो। पता नहीं मेरा मन धुंधवा गया हो। मेरी आँखों में जमी धूल कुछ का कुछ दिखा गयी हो। मैंने कोई और अर्थ निकाल लिए हों, कि अर्थ का अनर्थ हो गया हो। इसलिए पता नहीं बुद्ध ने क्या कहा था; इतना ही मुझे पता है कि ऐसा मैंने सुना था।
यह बड़े ईमानदारी का वचन है कि मैंने ऐसा सुना है। नहीं कि बुद्ध ने ऐसा कहा है। बुद्घ ने क्या कहा था, यह तो बुद्ध जानें, या कोई बुद्ध होगा तो जानेगा। लेकिन फिर आनन्द ने जो संकलित किया, आज उसे भी ढाई हजार वर्ष हो गये। उसको लोग पढ़ रहे हैं, गुन रहे, मनन कर रहे हैं, चिंतन कर रहे हैं, उस पर व्याख्याएँ कर रहे हैं। ये जो शास्त्र निर्मित होते हैं, ये स्मृतियां।
ये तो जैसे कि कोई आकाश का चांद झील में अपना प्रतिबिम्ब बनाए और तुम झील को भी दर्पण में देखो तो तुम्हारे दर्पण में भी चांद का प्रतिबिम्ब बने- प्रतिबिम्ब का प्रतिबिम्ब। श्रुति तो ऐसे है जैसे चांद झील में छा गया और स्मृति ऐसे है जैसे झील की तस्वीर उतारी, कि झील को दर्पण में बांधा। स्मृति दूर की ध्वनि है, और दूर हो गयी। श्रुति भी दूर है, पर बहुत दूर नहीं; कम से कम गुरु और शिष्य के बीच सीधा-सीधा संबंध है। कुछ तो बात पते की कान में पड़ ही गयी होगी। सौ बातों में एक बात तो सार की पकड़ में आ गयी होगी। किसी संधि से, किसी द्वार से, किसी झरोखे से कोई किरण तो उतर ही गयी होगी। लेकिन स्मृति तो बहुत दूर है- प्रतिध्वनि की प्रतिध्वनि है।
यह सूत्र कहता है : श्रुति: विभिन्ना। यूं तो सुनने में ही बात बड़ी भिन्न भिन्न हो जाती है। अब जैसे तुम मुझे यहां सुन रहे, जितने लोग सुन रहे हैं उतनी श्रुतियां हो गयीं। मैं तो जो कह रहा हूं एक ही बात कर रहा हूँ। लेकिन तुम सुननेवाले तो अनेक हो, तुम्हारी अक्ल पृष्ठभूमि है, तुम्हारी अलग धारणा है, अलग विचार हैं। तुम अपने-अपने ढंग से सुनोगे। तुम्हारे ढंग, तुम्हारी शैली निश्चित रूप से जो तुम सुनोगे उसे प्रभावित करेगी। हिन्दू एक ढंग से सुनेगा, जैन दूसरे ढंग से, बौद्ध तीसरे ढंग से। दुनिया में तीन सौ धर्म हैं और तीन हजार सम्प्रदायों के कोई तीस हजार उप-सम्प्रदाय हैं। तुम अपनी-अपनी धारणाओं के जाल में बंधे हो। मेरी बात तुम तक पहुंचेगी, पहुंचते-पहुंचते ही कुछ की कुछ हो जाएगी। आस्तिक सुनेगा एक ढंग से, नास्तिक सुनेगा और ढंग से; दोनों के पास कान एक जैसे हैं, मगर कानों के भीतर बैठा हुआ मन और मन के संस्कार तो भिन्न-भिन्न हैं।
बुद्धि ने एक दिन कहा कि तुम जितने लोग हो उतने ही ढंग से मुझे सुन रहे हो, उतने ही ढंग से मेरी व्याख्या कर रहे हो। आनंद ने रात्रि उनसे पूछा कि मैं समझा नहीं। आप अकेले हैं, जो आप बोलते हैं हम वही तो सुनते हैं। अन्य कैसे हो जाएगा, भिन्न कैसे हो जाएगा ?
बुद्ध ने तीन नाम दिये आनन्द को और कहा : ‘कल इन तीनों से पूछना कि क्या सुना था। मैंने जब प्रवचन पूरा किया था और अन्तिम बात कही थी.......।’ रोज अपने प्रवचन के अंत पर बुद्ध कहते थे- ‘अब रात हो गयी, अब जाओ रात्रि का अंतिम कार्य करो।’ यह केवल एक संकेत था भिक्षुओं को कि अब जाओ, सोने के पहले ध्यान में उतरो और ध्यान में उतरते-उतरते ही निद्रा में लीन हो जाओ। क्योंकि सुषुप्ति में और समाधि में बहुत भेद नहीं है। सुषुप्ति मूर्च्छित समाधि है। समाधि जाग्रत सुषुप्ति है। इसलिए नींद को समाधि में बदल लेना सबसे सुगम उपाय है आत्मसाक्षात्कार का। जरा-सी बात जोड़नी है। सुषुप्ति का अर्थ है : जब स्वप्न भी नहीं रह जाते, ऐसी गहन निद्रा। जब सारे स्वप्न भी तिरोहित हो गये, जहां स्वप्न भी न बचे, विचार भी न बचे, वासना भी न बची, वहां मन भी न बचा, तो अ-मनी दशा हो गयी। लेकिन बेहोशी है होश नहीं है। सन्नाटा है, प्रगाढ़ मौन है। लेकिन काश, एक दीया और जल जाता, जरा-सा होश और होता ! काश, हम इस प्रगाढ़ शान्ति को देख भी लेते, पहचान भी लेते ! काश, हम जागे-जागे इसका अनुभव भी कर लेते ! इसलिए नींद के पहले का ध्यान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उसमें जो गहरा उतर जाए तो रातभर एक अखंडित धारा शून्य की भीतर चली जाती है, फिर सुषुप्ति दिखाई पड़ती है। और जब सुषुप्ति दिखाई पड़ती है तो वही समाधि है। देखनेवाला मौजूद हो तो सुषुप्ति समाधि है।
इसलिए बुद्ध ने.........रोज-रोज क्या कहना कि अब ध्यान करो, इतना ही कह देते थे प्रतीक कि अब जाओ रात्रि का अंतिम कार्य......अब दिवस पूरा हुआ, अब आखिरी काम कर लो और सो जाओ। उसको करते-करते ही सो जाओ।
बुद्ध ने आनंद से कहा : ‘कल तू, तीन व्यक्ति हैं, इनमें पूछ लेना कि उन्होंने क्या समझा जब मैंने यह वचन कहा था। वे तीनों मेरे सामने ही बैठे हुए थे और तीनों को देखकर ही मैंने समझा कि उन्होंने अलग-अलग समझा है।’
आनंद ने कल उन तीनों को पकड़ा और पूछा और कहा कि बुद्ध ने ही ये नाम दिये हैं। इसलिए सच-सच कहना, मैं नहीं पूछ रहा हूं जैसे उन्होंने ही ये पुछवाया है।
थोड़ा तो संकोच हुआ उन तीनों को, लेकिन फिर जब बुद्ध ने ही पुछवाया था तो अपना हृदय उघाड़ दिया। उनमें एक था भिक्षु- गहन साधना में लीन। उसने कहा, ‘और क्या समझूंगा ! यही समझा कि अब जाऊं, ध्यान में डूबूं और ध्यान में डुबा-डुबा ही निद्रा में उतर जाऊं। यही समझा। यही बुद्ध ने कहा था।’
दूसरे ने पूछा; वह एक चोर था। उसने कहा, ‘छिपाना क्या, छिपाऊं कैसे ? बुद्ध स्वयं पूछते हैं तो सत्य कहना ही होगा। जब बुद्ध ने यह वचन कहा तो मुझे याद आया कि अरे रात गहरी होने लगी, मेरे काम का समय हुआ, अब जाऊं, चोरी वगैरह करके जल्दी घर लौटूं और सोऊं।’ और तीसरी एक वेश्या थी- और जब आनंद ने उससे पूछा तो वह बहुत सकुचायी, बहुत लजायी। बड़ी प्रसिद्ध वेश्या थी—आम्रपाली, जो बाद में बुद्ध की भिक्षुणी बनी। बुद्ध की भिक्षुणी बनी, इससे जाहिर होता है कि एक प्रामाणिक स्त्री थी। सुकुचायी जरूर, लेकिन फिर सत्य उसने कहा, उसने कहा कि छिपाना कैसे, छिपाना नहीं हो सकता। उन्होंने पूछा है तो वही कहना होगा जो मेरे भीतर हुआ था। यही हुआ कि अब जाऊं, अपने व्यवसाय में लगूं। मेरा व्यवसाय तो वेश्या का व्यवसाय है।
तो एक ध्यान में लगा, एक चोरी करने निकल गया, एक अपनी वेश्यागिरी में संलग्न हो गयी। और बुद्ध ने तो एक ही बात कही थी।
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