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प्रवासी लेखक >> संगम

संगम

अंजना संधीर

प्रकाशक : पार्श्व पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :370
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6315
आईएसबीएन :81-902408-0-3

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पूर्व और पश्चिम यानि भारत और अमरीका के बीच बीतते हुए मेरे जीवन की अनुभूतियों का संगम - गज़लों का संग्रह।

Sangam A Hindi Book By Anjana Sandhir - संगम - अंजना संधीर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘अपने इस संकलन में, कविताओं के माध्यम से आपने अपनी सहज-सरल-सम्प्रेषणीय शैली में, प्रवासी-भारतीयों की विवश-व्यथाभरी मानसिकता का जो जीवन चित्रण किया है वह निश्चय ही सम्पूर्ण हिन्दी-जगत में दुर्लभ है। अमेरिकी-जीवन के वास्तविक क्या, उसके नग्न–चित्रण के साथ, वहाँ रह रहे लोगों, विशेषकर नारी की घुटन एवं दुविधाभरी आन्तरिक-पीड़ा को आपने जो अभिव्यक्ति दी है, वह भी हमें कहीं पढ़ने को नहीं मिली। और, नारी सुलभ सामान्य कोमलतम भावनाओं को व्यक्त करने में तो आप आरंभ से ही अग्रणी रही हैं। उनसे जुड़ी कविताओं के विषय में क्या कहना?

इस संकलन की ग़ज़लों को पढ़कर तो लगता है उनके कहने में आप को महारत ही हासिल है। जिस सूझबूझ और साफ़ गोई के साथ आपने उनके द्वारा विविधभाव व्यक्त किये हैं, वे सीधे हृदय को छूते हैं।

अपने इस गंगा-जमना-सारस्वत ‘संगम’ के लिये, मेरी हार्दिक, आन्तरिक, बधाई लीजिए !’’
डॉ. बजरंग वर्मा
लोहियानगर पटना, बिहार

‘‘डॉ. अंजना संधीर बराबर अच्छा लिख रही हैं। उनसे हमदर्दी होती है। मासूम का एक शेर उनकी नज़्र हैः

‘‘सजा-ए-सरफ़रोशी कुछ नहीं होती अरे मुंसिफ़
वतन से दूर रहने की सज़ा संगीन होती है।’’
डॉ. ईश्वरदत्त वर्मा
‘सहकार संचय’ गाजियाबाद

‘‘तमाम साहित्यकारों के नाम
जो कलम के द्वारा सेतु
बनाने का कार्य कर रहे हैं।’’

डॉ. अंजना संधीर

‘अपनी बात’


अपनी कविताओं और ग़ज़लों का संग्रह ‘संगम’ आप के हाथों में सौंपते हुए मन आनंद विभोर है। ये पूर्व और पश्चिम यानि भारत और अमरीका के बीच बीतते हुए मेरे जीवन की अनुभूतियों का संगम है। गंगा, यमुना और सरस्वती का मेल कल्पना में भी एक अलग अनुभूति को जन्म देता है। जब नदियों के पानी का संमग आत्मा में नया संचार करता है तो उस पानी के किनारे जन्मी मैं—अर्थात् ‘सड़की’ जैसी पवित्र जन्मभूमि है मेरी और अहमदाबाद मेरी कर्मभूमि रही है। इन दोनों स्थानों का बूटा जब तीसरी जगह पहुँचा तो अपने मूलभूत गुण छोड़ना उसके लिये कैसे संभव हो सकता था ? महान शोमैन श्री राजकपूर ने गाया था—
‘‘दो नदियों का मेल अगर
इतना पावन कहलाता है।
क्यूं न जहाँ दो दिल मिल जाएँ
स्वर्ग वहीं बन जाता है।

लेकिन एक ही जगह की दो पवित्र धाराओं को मिलाने की बात उन्होंने कही थी। परंतु जब दो विरोधी धाराएँ एक-दूसरे से मिलती हैं तो मात्र मिलन का आभास होता है, हकीकत में विघटन, टूटन की शुरुआत होती है जिसका पता धीरे-धीरे ही चल पाता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। ये सत्य है कि गंगा कभी अमरीका नहीं आ सकती और हड़सन कभी भारत में नहीं बह सकती। परंतु ये दोनों नदियाँ हैं जिनके बहाव उनमें जीने वालों को अपनी-अपनी तरह से रंगते हैं क्योंकि नदियाँ जीवन से जुड़ी हैं। अमरीका से गया व्यक्ति गंगा के किनारे बैठ शांति, अध्यात्म, सत्यम और शिवम् की तरफ बढ़ता है और भारतभूमि से आई आत्मा हड़सन के किनारे बैठ, चकाचौंध, आकर्षण, व्यक्तिवाद, व्यैक्तिक स्वतंत्रता की दौड़ में शामिल एक ढांचे में ढलने को पाबंद हो जाती है। फिर धीरे-धीरे उसे आभास होने लगता है कि उसे अपने संस्कार बचाने हैं, उसका सब कुछ छूटता चला जाता है। यहाँ से वहाँ गया व्यक्ति सबकुछ छोड़कर शांति में खोने को तैयार हो जाता है और वहाँ से यहाँ आया व्यक्ति अपना थोड़ा बहुत ही सही बचाने को तत्पर रहता है और जैसे-जैसे उम्र बीतने लगती है उसे पल-पल लगने लगता है कि उसने सुख का सामान जुटाया, डालर कमाया लेकिन मन से खाली हो गया है, अशक्त शरीर भी ‘होम्स फॉर मोम्स एण्ड डैड’ में पड़ा ऊपर जाने का इंतज़ार करता है। जो बनाये थे बड़े-बड़े महल वो भी अब काम के नहीं। जिन बच्चों के बेहतर भविष्य के लिये देश, घरबार छोड़ा वो भी कहीं दूर चले गए, कई तो किसी दूसरी नस्ल से जुड़ गए....पीछे भी रास्ता नहीं, आगे भी आस नहीं....।

कविता का कोमल दिल लिये मैं सन् 1995 में 15 जनवरी को न्यूयार्क के जॉन.एफ. केनेडी एयरपोर्ट जिसे जे.एफ.के. के नाम से जाना जाता है, पर आधी रात को उतरी थी।
एक भरा-पूरा साहित्यिक जीवन जीते हुए, भरे-भरे मन से यहाँ आई थी। यहाँ आते ही सांस्कृतिक  आघात ने मन को आहत कर दिया। भाषा, परिवेश, जीवन का रंग-ढंग सब बदलने लगा लेकिन नहीं बदला तो मेरा कवि मन और साथ नहीं छोड़ा जिसने मेरा वो है मेरी कलम। कविता जीवन की उन्हीं अनुभूतियों से जन्मती है जो मन को लिखने पर मजबूर कर देती हैं। मैंने वही लिखा जो महसूस किया और लिखे बगैर रहा नहीं गया।

भारत में भी पत्रकार, लेखक थी। रेडियो, टी.वी. पर निरंतर कार्य करती रही। प्राध्यापक के रूप में शिक्षाक्षेत्र से जुड़ी रही। कवि सम्मेलनों में पूरे भारत का भ्रमण किया। कवि सम्मेलनों के आयोजन किए। अखिल भारतीय महिला काफ्रेंस की जनरल सेक्रेटरी रही जो अनाश एज्युकेशन ट्रस्ट अहमदाबाद की तरफ़ से 1985 में आयोजित की गई थी। गुजराती भाषा के प्रसिद्ध दैनिक ‘समभाव’ में निरंतर दस वर्ष तक ‘नवी नारी’ पृष्ठ लिखा। उर्दू से हिन्दी व हिन्दी से गुजराती में अनुवाद किए। आदरणीय हरिवंशराय बच्चन जी की कविताओं का गुजराती में अनुवाद किया जो हिन्दी की प्रसिद्ध ‘भाषा’ पत्रिका में मूल हिन्दी की कविता के साथ, मेरे गुजराती अनुवाद को लिये प्रकाशित हुआ। आदरणीय अमृता प्रीतमजी की पुस्तक ‘कड़ी धूप का सफ़र’ का गुजराती में अपने पृष्ठ पर धारावाहिक अनुवाद किया। आदरणीय आशारानी वोहराजी की पुस्तक ‘स्वतंत्रता सेनानी वीरांगनाएँ’ का भी अपने पृष्ठ पर धारावाहिक अनुवाद व प्रकाशन किया। अहमदाबाद दूरदर्शन के लिए गुजराती भाषा में ‘स्त्रीशक्ति’ सीरियल का लेखन, निर्देशन व निर्माण किया जो वर्ष 1993 की श्रेष्ठ व्यूअरशीप में था। कितने ही नेता, अभिनेता, कलाकारों की मुलाकातें रेडियो, टी.वी., पत्रिकाओं व अखबारों के माध्यम से लोगों तक पहुँचाई। आह ! वो भरापूरा भारत में मेरा जीवन जिसमें बेहद मान, सम्मान भरा था। मैं अपने शहर का महत्त्वपूर्ण व्यक्ति था। प्रसिद्धि की चरम सीमा पर पहुँचकर विवाह के बाद रास्ता उस धरती की ओर मुड़ा जिसे आज दुनिया का स्वर्ग कहा जाता है। ये वो स्वर्ग है जहाँ आने की कभी कल्पना नहीं की थी क्योंकि जीवन इतना जीवंत और व्यस्त था कि जरूरत भी नहीं थी—लेकिन, भाग्य में लिखा हो तो वो होकर ही रहता है ये अपने अनुभव से भी जाना और माना।

इतने व्यस्त, आनंदमय जीवन को ईश्वर ने इस चकाचौंध भरे देश की ओर मोड़ दिया। हर आम आदमी के लिये अपना घर छोड़ना बड़ा मुश्किल होता है। कल्पना करिए एक सविशेष सम्मान पाये हुए व्यक्ति को अपना बनाया सब कुछ छोड़कर किसी ऐसी दशा में जाना जहाँ उसे कोई जानता न हो।


‘‘सजाए सरफ़रोशी कुछ नहीं होती अरे मुंसिफ़
वतन से दूर रहने की सज़ा संगीन होती है।’’

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