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कल्पवृक्ष एक संकलन

टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप

प्रकाशक : ओ एन जी सी प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6370
आईएसबीएन :0000000000

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इस पुस्तक में कल्पवृक्ष के कुछ चुने हुए श्रेष्ठ लेखों को शामिल किया गया है।

Kalpvriksha Ek Sankalan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस पुस्तक में नवभारत टाइम्स के सबसे लोकप्रिय कॉलम ‘कल्पवृक्ष’ के कुछ चुने हुए लेख संकलित किए गए हैं। ये लेख अपने आप को पहचानने का रास्ता बताते हैं और अध्यात्म की गहराई को समझने में सहायता करते हैं। इन लेखों को 13 अध्यायों में बांटा गया है ताकि पाठक किसी विषय को अच्छे ढंग से समझ सकें। किताब में इस बात की कोशिश की गई है कि एक साथ सारे मतों विचारों और परंपराओं का निचोड़ एकदम सरल भाषा में आ सके। इसमें हर धर्म की मूल बातों और महापुरुषों के जीवन तथा उनके उपदेशों को समेटने का प्रयास किया गया है। त्योहारों और देवी-देवताओं के बारे में भी बताया गया है। इस पुस्तक को पढ़कर आप आनंदित हों और इसे हमेशा साथ रखना चाहेंगे।

प्राक्कथन

मनुष्य अपना कल्पवृक्ष स्वयं है। वह खुद ही इच्छा करता है, खुद से ही उसके पूरे होने का वरदान मांगता है और खुद ही उसे पूरा करने का सामर्थ्य रखता है। आदमी जो भी चाहे, वह अपने आप को दे सकता है। बस इतना पहचाचने की देर है कि यह जो सभी इच्छाओं को पूरा करने वाला कल्पवृक्ष कॉलम में प्रकाशित होने वाले लेख अपने पाठकों को उनके इसी सामर्थ्य का बोध कराते हैं। सदियों से योग, ध्यान, धर्म, कर्म, पूजा, त्योहार, गुरु और पवित्र ग्रंथ यही करने की कोशिश करते आ रहे हैं, लेकिन समय के साथ उनमें से अधिकतर रूढ़ प्रतीकों और कर्म कांडों में बदल गए हैं। कल्पवृक्ष स्तंभ के लेखों में हम पवित्र त्योहारों, पूजा विधियों और प्रतीकों के बारे में लिखते हैं, लेकिन उनके चमत्कारिक प्रभाव के बारे में नहीं बल्कि उनके आध्यात्मिक महत्त्व के बारे में बताते हैं। हम देवी-देवताओं की जादुई शक्तियों की नहीं, उनके मर्म की चर्चा करते हैं कर्मकांडों की नहीं, उनके अर्थ और उद्देश्य का विश्लेषण करते हैं। इन लेखों का उद्देश्य होता है अपने पाठक को उसके भीतर निहित उस दिव्य शक्ति से परिचित कराना, जो उसका अपना कल्पवृक्ष है। और इस तरह अंततः उस व्यक्ति का सशक्तीकरण यानी एम्पावरमेंट होता है।

इस पुस्तक में कल्पवृक्ष स्तंभ के कुछ चुने हुए श्रेष्ठ लेखों को शामिल किया गया है। इस चयन में विविधता है, इसलिए उन्हें 13 अध्यायों में बाँटा गया है। हर अध्याय एक मार्ग है अपने भीतर स्थित उस कल्पवृक्ष तक पहुंचने का। हर लेख एक दृष्टि है, उस दिव्य शक्ति संपन्न वृक्ष को पहचानने की। इन लेखों के अध्ययन से पाठक अपने भीतर छुपी उस ऊर्जा को पहचान सकें, इस संकलन के प्रकाशन का यही उद्देश्य है।

इंदू जैन

अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है, अहिंसा परम सत्य है क्योंकि उससे धर्म प्रवर्तित होता है।

वेदव्यास

एक विराट सत्य

सीमा बर्मन

ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो मनुष्य को अहिंसा का उपदेश न देता हो और इसके महत्त्व को कम करके आंकता हो। इस पृथ्वी पर यदि जीवन है तो वह अहिंसा से ही कायम रह सकता है, अहिंसा से ही उसका कल्याण हो सकता है। महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा का नाम रखा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’। लेकिन जो सबसे बड़ा प्रयोग उन्होंने किया, वह अहिंसा का था। अहिंसा को उन्होंने अपने संघर्ष का हथियार बनाया। इस तरह उन्होंने अहिंसा को हिंसा के विरुद्ध खड़ा कर दिया। उनके लिए सबसे विराट सत्य यही था।

गांधी जी की आत्मकता पढ़ें तो शुरू में ऐसा लगता है कि वे भी हमारी-आपकी तरह एक आम इंसान थे और आम आदमी की तरह उनमें भी कुछ खामियां थीं। खाने पहनने के शौकीन, किसी का हित होता हो तो झूठ बोलने से न परहेज, न कोई हिचक। लेकिन वे आम आदमी से महान बन गए। उनमें दूसरे इंसानों से अलग कुछ था तो वह ललक थी जो उन्हें सबकी पीड़ा दूर करने के लिए सतत प्रेरित करती थी। इसी ललक ने उन्हें मान आत्मा का दर्जा दिला दिया।

गांधीजी ने बार-बार अहिंसा पर जोर दिया है। उन्होंने कहा, ‘‘अहिंसा व्यापक वस्तु है। हिंसा की होली की चपेट में आए हुए हम अधम प्राणी हैं। मनुष्य क्षण भर की बाह्य हिंसा के बिना नहीं जी सकता। खाते-पीते, उठते-बैठते सभी कार्यों में, इच्छा या अनिच्छा से, थोड़ी-बहुत हिंसा वह करता ही रहता है। इसके विपरीत यदि वह हिंसा से बचने का निरंतर प्रयास करता हो, उसकी भावना में केवल अनुकंपा हो, वह छोटे से छोटे प्राणी का भी नुकसान न चाहे और यथा शक्ति उसे बचाने की कोशिश करे, तो वह अहिंसा का पुजारी माना जाएगा। ऐसा होने पर उसमें निरंतर संयम की वृद्धि होगी और उसमें करुणा बढ़ती जायगी। हालांकि इतना होने पर भी कोई देहधारी बाह्य हिंसा से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता।’
गांधी जी ने अहिंसा को अपनाना चाहा तो पाया कि इस राह में बहुत सी मुश्किलें हैं। इसके अनेक साक्ष्य मिल जाएँगे कि जब कभी मठों ने हमें अहिंसा का पाठ पढ़ाना चाहा, तो ऐसा प्रतीत हुआ कि संतों के जीवन और हम आम इंसानों के जीवन में जमीन –आसमान का अंतर है। संत दुनिया से बेपरवाह, ईश्वर के साथ तादातम्य बनाते हुए, एक अनोखी मस्ती में, आनंद में लीन रहते हैं। लेकिन गांधी जी इसके अपवाद कहे जाएंगे। उन्होंने एक आम आदमी की जिंदगी जीते हुए अहिंसा को अपने जीवन में उतारा और इस तरह उतारा कि उनकी गिनती संतों में होने लगी। भगवान महावीर हों या गौतम बुद्ध, गुरु नानक हों या रामकृष्ण परमहंस, ईसा मसीह हों या मोहम्मद साहब, सभी ने अहिंसा का पालन करने पर जोर दिया।

लेकिन अहिंसा है क्या ? युद्ध के मैदान में अहिंसा का पालन कैसे किया जाए ? महात्मा गांधी ने इसका उत्तर देते हुए कहा कि अहिंसा को मानने वाले व्यक्ति का धर्म उस युद्ध को रोकना है, जो शोषित का अहित करता हो, जिसमें विरोध करने की शक्ति न हो, जिसे विरोध करने का अधिकार प्राप्त न हो, वह भी इस युद्ध में शामिल हो जाए। इसमें शामिल होते हुए भी उसे ध्यान रखना होगा कि वह अपने आपको ही नहीं बल्कि अपने देश को और उसी प्रकार संपूर्ण जगत को उबारने की प्राणपण से कोशिश करता रहे।

गीता को अपनी प्रेरणा मानने वाले महात्मा गांधी ने अहिंसा का सही अर्थ भी वहीं से जाना था। युद्ध के मैदान में अर्जुन को स्वजनों से युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए भी भगवान श्रीकृष्ण ने यदि किसी बात पर बार-बार बल दिया, तो केवल अहिंसा पर। अर्जुन को दैवी संपदा के लक्षण बताते हुए श्रीकृष्ण ने कहा कि इसमें अहिंसा यानी मन, वाणी तथा शरीर से किसी को कष्ट न देना, प्रिय बोलना, अपना अहित करने वाले पर भी क्रोधित न होना, अभिमान का त्याग करना, किसी की निंदा न करना, भोग भोगने पर भी उसमें आसक्त न होना तथा व्यर्थ की चेष्टाओं का अभाव आदि प्रमुख हैं।

गांधी जी ने मन, वाणी और शरीर पर संयम रखना चाहा। कोशिश करने पर भी अनेक बार विफलता का सामना किया। उन्होंने स्वयं पर किए प्रयोगों के आधार पर कहा कि मन को वश में करना वायु को वश में करने से भी कठिन है। कठिनाइयों के बावजूद थक गए गांधी जी ने जाना कि मन को वश में करने के लिए अपने अंदर वैराग्य उत्पन्न करना होगा। मानव मात्र की सेवा करने के लिए उन्होंने मन को संयमित करने का बीड़ा उठाया। यह साधना उन्होंने मानव सेवा के संकल्प के तहत की। उन्हें विश्वास था कि सत्यवादी होकर ही अहिंसा के मार्ग पर बढ़ा जा सकता है।

राह दिखाने वाला दीपक

धर्मकीर्ति

जब कभी अहिंसा पर चर्चा होती है तो गौतम बुद्ध, वर्द्धमान महावीर, महात्मा गांधी आदि को याद किया जाता है। अक्सर देखा गया है कि धर्म प्रवर्तक उपदेश तो देते हैं लेकिन खुद वे उन पर चल नहीं पाते। यह बात महावीर, बुद्ध व गांधी पर लागू नहीं होती। इन तीनों ही युग-पुरुषों ने अहिंसा के महत्त्व को समझा, खुद उसकी राह पर चले और इसके अनुभवों के आधार पर दूसरों को भी इसी राह पर चलने को कहा। अहिंसा की पहचान उनके लिए सत्य के साक्षात्कार के समान थी।

अपने युग में यज्ञों में होने वाली हिंसा से महावीर के मन को गहरी चोट पहुंची इसलिए उन्होंने अहिंसा का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इसके प्रचार के लिए उन्होंने श्रमणों का संघ तैयार किया जिन्होंने मनुष्य जीवन में अहिंसा के महत्त्व को बताया। सामान्यतः अहिंसा का अर्थ किसी प्राणी का मन, वचन व कर्म से हिंसा न करना होता है।
आदमी में अनेक बुराइयाँ पाई जाती हैं जिनकी गिनती करना असंभव है। इन बुराइयों की जड़ में मुख्य पांच दोष मिलेंगे। बाकी सभी दोष इन्हीं से पैदा होते हैं। ये दोष हैं—चोरी, झूठ, व्यभिचार, नशखोरी व परिग्रह यानी धन इकट्ठा करना। इन्हीं बुराइयों के कारण मनुष्य न जाने किन-किन बुराइयों में लगा रहता है। हिंसा इनमें सबसे बड़ी बुराई है। हिंसा, अहिंसा की विरोधी है। इसका अर्थ सिर्फ किसी प्राणी की हत्या करना या उसे शारीरिक चोट पहुँचाना मात्र नहीं होता। महावीर ने इसका व्यापक अर्थ प्रस्तुत किया कि यदि कोई आदमी अपने मन में किसी के प्रति बुरी भावना रखता है, बुरे व कटु वचन बोलता है, तो वह भी हिंसा ही करता है।

सभी प्राणी जीना चाहते हैं, अहिंसा उनको अमरता देती है। अहिंसा जगत को रास्ता दिखाने वाला दीपक है। यह सभी प्राणियों के लिए कल्याणकारी है। अहिंसा माता के समान सभी प्राणियों का संरक्षण करने वाली, पापनाशक व जीवनदायिनी है। अहिंसा अमृत है इस प्रकार महावीर ने अहिंसा की व्याख्या की।
तपस्या के बाद महावीर ने समदर्शी होकर मौन भंग किया और कहा, मा हण, मा हण, अर्थात् किसी प्राणी को मत मारो, मत मारो। किसी का छेदन न करो, न करो। किसी को कष्ट न पहुँचाओ। मारोगे तो मरना पड़ेगा। छेदोगे तो छिदना पड़ेगा, भेदोगे तो भिदना पड़ेगा। दुख पहुँचाओगे तो दुख तो सहना पड़ेगा। मानवता के उत्थान व विस्तार का माध्यम ही अहिंसा है। अहिंसा ही विश्व शांति उत्पन्न करेगी। यही कारण है कि जैन धर्म में अहिंसा को ही धर्म सदाचार की कसौटी माना गया है। इस प्रकार अहिंसा जैन संस्कृति की प्राण-शक्ति है, जीवन का मूल मंत्र है। अहिंसा परम धर्म व वीरता की सच्ची निशानी है।
महावीर और बुद्ध समकालीन थे। दोनों ही यज्ञों में बड़े पैमाने पर दी जाने वाली बलियों के विरोधी थे। बुद्ध ने पंचशील के पहले ही शील में मनुष्यों को प्राणी हिंसा न करने के लिए कहा है। उन्होंने अनेक यज्ञ रुकवा दिए थे। बुद्ध ने अहिंसा के बारे में कहा, ‘‘दंड से सभी डरते हैं, मृत्यु से सभी भय खाते हैं। इसलिए अपने समान ही सभी प्राणियों को जान कर न किसी को मारें, न मारने की प्रेरणा दें।’ वे कहते हैं, जैसा मैं हूँ, वैसे ही ये प्राणी भी हैं। जैसे ये प्राणी हैं, वैसा ही मैं भी हूं। इस प्रकार अपने समान समझ कर न तो किसी का वध करें और न कराएं।’ वे कहते हैं, ‘संसार में जो स्थावर व जंगम प्राणी हैं, उन सभी के प्रति दंड त्यागी हों।’

इसी तरह, जो लोग यज्ञ के लिए हिंसा करते थे, उन सब से गौतम बुद्ध ने कहा, ‘प्राणियों की हिंसा करने से (कोई) आर्य नहीं होता। सभी प्राणियों के प्रति विरत हो, जो न मारता है, न मारने की प्रेरणा देता है, उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ।’

महावीर व बुद्ध के अहिंसा के इन्हीं सिद्धांतों को महात्मा गांधी ने आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि सिर्फ कर्म से ही नहीं बल्कि मन और वचन से भी हिंसा करने की कोशिश न करें। उन्होंने ऐसी ही हिंसा को रोकने के लिए ही अनेक बार सत्याग्रह व अनशन किए और इस तरह अहिंसा के बल पर उन्होंने गुलाम भारत को अंग्रेजों से आजाद कराया। उन्होंने बुद्ध के कथन ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं’ का रास्ता अपनाया और यह दिखा दिया कि यह मार्ग हर युग और स्थितियों में समान रूप से प्रभावी साबित होगा।

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