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प्रवासी लेखक >> धूप का टुकड़ा

धूप का टुकड़ा

इला प्रसाद

प्रकाशक : जनवाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6376
आईएसबीएन :81-86409-92-0

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इला प्रसाद का पहला कविता संग्रह है, जो विदेश की धरती के अनुभवों से निकल कर अपनी देसी स्वाभाविक जमीन पा लेता है।

Dhoop Ka Tukra - A hindi Book of Poetry by - Ila Prasad धूप का टुकड़ा - इला प्रसाद

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

झारखंड (भारत) की राजधानी रांची में जन्म। उर्सुलाइन कान्वेण्ट, रांची से प्रथम श्रेणी में सेकेण्डरी, सन्त जेवियर्स कॉलेज, रांची से प्रथम श्रेणी में आई. एस. सी. और बी.एस-सी ऑनर्स(भौतिकी) तथा रांची विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में एम.एस.सी(भौतिकी)।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग से पी.एच.डी (माइक्रो-इलेक्ट्रानिक्स) तथा आई.आई.टी मुम्बई में सी.एस. आई. आर. की शोधवृत्ति पर शोध परियोजना के अन्तर्गत कुछ वर्षों तक कार्य।

राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक शोध पत्रिकाओं में अनेक शोधपत्र प्रकाशित। छात्र जीवन में काव्य-लेखन की शुरुआत। प्रारम्भ में कॉलेज पत्रिका एवं आकाशवाणी तक सीमित।

वैज्ञानिक शोधकार्य के दिनों में लेखन-क्षमता भी पल्लवित होती रही। पहली कहानी "इस कहानी का अन्त नहीं" जनसत्ता (दिल्ली) में प्रकाशित। बाद में हिन्दी की बेब पत्रिकाओं में अनेक कहानियाँ और कविताएं प्रकाशित।

सम्प्रति: टॉमबाल कॉलेज, ह्यूस्टन, यू.एस.ए. में भौतिकी एवं गणित का अध्यापन।

धूप का टुकड़ा इला प्रसाद का पहला ही कविता संग्रह है, जो विदेश की धरती के अनुभवों से निकल कर अपनी देसी स्वाभाविक जमीन पा लेता है। गणित और भौतिकी की दुनिया में रहकर भी इला प्रसाद ने अपना निजत्व, प्रेम, दुःख, घर-बार गिरात्री का स्वाद, अकेलापन, स्त्रीत्व बचा रखा है। उनका अनुभव लोक इतना निजी नहीं है कि अपना स्पेस न पा सके। गीतात्मकता से परहेज न हो पर इला प्रसाद को बखूबी पका है कि गद्य ही आज की कविता का नियामक तत्त्व है।

इला प्रसाद की कविताएँ हमारे हाइ-टेक समय में भूमण्डलीकरण, बाजारवाद, तकनीकी विडम्बनाएं पहचानती हुई भी काव्यत्त्व बचाए रख सकी हैं।

इला प्रसाद की कविताओं का पहला संग्रह "धूप का टुकड़ा" हमारे समय के स्त्री विमर्श में कुछ नया जोड़ता है और फिर भी स्त्रीवाद या स्त्री की मिथ्यता मुक्ति की अवधारणा से इन्कार करता है। अमरीकी कवि एमिली डिकिन्सन के शब्दों में कहा जाये- तो ऐसी कविताएँ प्यार की आवाज बन कर प्रकृति के दृश्व्य का हिस्सा बन जाती हैं।

कविता की दुनिया में इला प्रसाद एक नई लौ की तरह हैं। वे अपनी दुनिया के प्रति जितनी ही उत्सुक रहेंगी, काव्यत्त्व उतनी ही उनका स्वायत्त क्षेत्र होगा।

आरंभिक

लेखन मेरे लिए अन्तः संघर्षों से मुक्ति पाने का माध्यम रहा है। संघर्ष चाहे आन्तरिक हो या बाह्य, वह एक सतत् प्रक्रिया है। इसीलिए मेरे लेखन की निरन्तरता भी अबाधित रही है। यह बात दूसरी है कि उस लिखे हुए को सार्वजनिक करने का साहस बटोरने में मुझे एक लंबा वक्त लगा और उससे दूरी कायम करने में भी। इस संग्रह में मैने पिछले बरसों में सृजित अपनी सबसे अच्छी कविताओं को संकलित करने की कोशिश की है। इन कविताओं में से कुछ से वेब पत्रिकाओं और अमेरिका से प्रकाशित "हिन्दी जगत्" आदि अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं से पाठक पूर्व परिचित हैं। वस्तुतः उन्हीं के प्रोत्साहन की देन है।

एक ओर जहाँ सुदूर देशों के हिन्दी प्रेमियों ने मुझे यह अहसास कराया है कि इन कविताओं का एक पाठक वर्ग है, वहाँ इन्टरनेट के प्रयोग से अनभिज्ञ हिन्दी भाषियों का बृहत्तर समुदाय इनसे अब तक अनजान जैसा है। उस बृहत्तर समुदाय तक मेरी कविताएँ पहुँच सकें और उनकी भी आशंसा पा सकें, यह सोच भी इस संग्रह के प्रकाशन के पीछे काम करती रही है।

हिन्दी के प्रसिद्ध समालोचक, साहित्य-चिन्तक और कवि डॉ परमानन्द श्रीवास्तव ने इस संग्रह की भूमिका लिखी है, जिसे मैं अपनी रचना-यात्रा का पाथेय मानती हूँ। मैं उनकी आजीवन आभारी रहूँगी।

यदि यह कविता संग्रह प्रकाश में आ रहा है तो इसका श्रेय लेखन की दुनिया में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके लेखक और उपन्यासका श्री दयानंद पांडेय को जाता है, जिन्होंने मेरा इस दिशा में उत्साहवर्धन किया।

जनवाणी प्रकाशन के श्री अरुण कुमार शर्माजी तो विशेष धन्यवाद के पात्र हैं ही, जिन्होंने इसके मुद्रण और प्रकाशन का बीड़ा उठाया।
इला प्रसाद (चेनी)
12934 मेडो रन
ह्यूस्टन, टेक्सास (यू.एस.ए.)

इसी पुस्तक से एक कविता

अँधेरे और उदासी की बात करना
मुझे अच्छा नहीं लगता।
निराशा और पराजय का साथ करना
मुझे अच्छा नहीं लगता,

इसलिए यात्रा में हूँ।
अँधेरे में उजाला भरने
और पराजय को जय में बदलने के लिए
चल रही हूँ लगातार...

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