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इस कहानी का अंत नहीं

इला प्रसाद

प्रकाशक : जनवाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6377
आईएसबीएन :81-86409-92-0

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इस संग्रह की एक-एक कहानी के पीछे वर्षों की भोगी हुई पीड़ा, घुटन और विवश क्रोध है। जो लेखिका को अंदर ही अंदर गलाते रहे हैं।

Is Kahani Ka Ant Nahi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘इस कहानी का अंत नहीं’’ कहानियों की लेखिका ने बहुत से ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जिनसे आप पूर्व परिचित नहीं होंगे। या फिर उन्हें भिन्न अर्थों में लेते हैं। मसलन अमेरिका में, पेट्रोल पम्प के लिये गैस स्टेशन का प्रयोग होता है, कॉलोनी या मुहल्ले के लिये सबडिवीजन। इन कहानियों में कई जगहों पर इस नई शब्दावली का अर्थ भी स्पष्ट करने की कोशिश की है।

अपने परिवेश से जो कुछ मैंने लिया है, वहीं मैंने अपनी इन कहानियों में देने की कोशिश की है। यह अनायास ही नहीं हुआ है। इस संग्रह की एक-एक कहानी के पीछे वर्षों की भोगी हुई पीड़ा, घुटन और विवश क्रोध है। जो मुझे लगातार अंदर ही अंदर गलाते रहे हैं।

संग्रह की लगभग सभी कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। आशा है कि सुधी पाठकों को संग्रह की सभी कहानियां रुचिकर लगेगीं।

भूमिका


अपने आपको लेखिका की भूमिका में पाकर मैं कैसा महसूस कर रही हूं यह मैं आपसे बांटना चाहूंगी। यदि कहूं कि अपने पहले कहानी-संग्रह की भूमिका लिखते हुए मैं खुद चकित हूं तो अतिशयोक्ति न होगी। आज से बरसों पहले, जब अमृता प्रीतम की पुस्तक ‘लाल धागे का रिश्ता’ पढ़ी थी, तब भी, उसमें उल्लिखित उनके एक स्वप्न का विवरण पढ़कर चकित थी, कि अरे ! यह स्वप्न तो मैंने भी देखा था। कई अन्य स्वप्नों की तरह, उस स्वप्न को भी देखे हुए बरसों बीत चुके थे और एक आश्वस्ति-सी उभरी थी मन में कि मेरा अचेतन मन इस किताब से प्रभावित होकर मुझे यह स्वप्न नहीं दिखा रहा था, लेकिन उस स्वप्न की व्याख्या पढ़ने के बाद भी, कभी मैंने यह नहीं सोचा कि मैं लेखिका बनूंगी। विज्ञान के प्रश्नों से जूझते हुए बस इतना मन में आया कि जो मैं यह चाहती हूँ कि यह जीवन किसी काम आए तो वह किसी-न-किसी रूप में घटित होने वाला है।

जो सहज उपलब्ध हो, वह महत्वहीन हो जाता है। कुछ ऐसा ही मेरे लेखन के साथ था। लेखन क्षमता भी मेरे उस परिवेश की उपज थी जिसमें मैं पैदा हुई, पली-बढ़ी। वर्षों तक अपने आपको अभिव्यक्ति करना बस उस तनाव से मुक्ति का माध्यम रहा जो मेरे परिवेश की विसंगतियों की उपज था और मुझे कहीं गहरे उद्वेलित करता रहा। आज जो मैं अपने लिखे को प्रकाशित कर रही हूं तो उसके पीछे भी कुछ ऐसी ही वजहें क्रियाशील रही हैं।

जब विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इनमें से अधिकांश कहानियों को पाठकों की स्वीकृति मिलने लगी तो यह मांग भी उठी कि मैं अपना कहानी-संग्रह तैयार करूं। यदि यह संग्रह प्रकाश में आ रहा है तो इसका श्रेय लेखन की दुनिया में अपनी विशिष्ट पहचान कायम कर चुके लेखक और उपन्यासकार श्री दयानंद पांडे को जाता है, जिन्होंने मेरा इस दिशा में उत्साहवर्धन किया। जनवाणी प्रकाशन के प्रो. श्री अरुण शर्मा जी तो विशेष धन्यवाद के पात्र हैं ही, जिन्होंने इसके मुद्रण और प्रकाशन का बीड़ा उठाया है।

बचपन से ही प्रेरक-शक्ति-स्वरूप अपने पिता और परिवार-जनों के अतिरिक्त मित्रों और हितैषियों की एक बड़ी संख्या है जो निरंतर सहयोग करते रहे। विवाहोपरांत अमेरिका आने पर अपने पति नरेन का सहयोगी स्वभाव मुझे इस दिशा में आगे बढ़ाता चला गया है।

अमेरिका से बाहर के मेरे पाठकों को मेरी कहानियों में बहुत से ऐसे शब्द मिलेंगे जिनसे ये पूर्व परिचित नहीं हैं या फिर उन्हें भिन्न अर्थों में लेते हैं। मसलन, अमेरिका में, पेट्रोल पम्प के लिए गैस स्टेशन शब्द व्यवहृत होता है। कालोनी या मुहल्ले सबडिवीजन हैं। कई जगहों पर मैंने कहानियों में ही इस नई शब्दावली का अर्थ स्पष्ट करने की चेष्टा भी की है और आशा है मेरे सुधी पाठकों को असुविधा नहीं होगी।

अपने परिवेश से जो कुछ मैंने लिया है, वही मैंने आपको देने की कोशिश की है। यह अनायास ही नहीं हुआ। इस संग्रह की एक-एक कहानी के पीछे बरसों की भोगी हुई पीड़ा, घुटन और विवश क्रोध है जो लगातार मुझे अन्दर-ही-अन्दर गलाते रहे हैं और उस सबको हर बार मेरे अनजाने ही मेरे मन-मस्तिष्क पर अंकित करता, मिटा देता, फिए नए रूप में लिखता मेरा अवचेतन मन है। मेरी यह पीड़ा आपके अनुभव की साक्षी बने, इसी कामना के साथ।

इला प्रसाद

सेल


सुमि गौर से अखबार के पन्ने पलट रही है। इस सबडिवीजन में सिर्फ वे ही हैं जो अखबार खरीदते हैं वरना अखबार खरीदने में यहां लोग पैसे खर्च नहीं करते। जब कोई बड़े सेल आती है तो अलस्सुबह गैस स्टेशन पर जाकर कूपन उठा लाते हैं। आखिर कूपन ही तो चाहिए न। सेल के कूपन। नहीं तो फिर अखबार की जरूरत क्या है ? सुमि को भी लगता है लोग ठीक ही करते हैं। किसे वक्त है अखबार पढ़ने का ! रवीश को वह बार-बार टोकती भी है, ‘‘सारा समय तो ऑफिस में बीत जाता है, कभी तो पढ़ते नहीं। इंटरनेट पर खबरें देख लेते हो। टी.वी. है ही तो फिर घर में कचरा जमा करने की क्या जरूरत है ?’’
‘‘दो कूपन भी उपयोग में आए तो अखबार की कीमत अदा हो गई न !’
‘‘मैं पैसों की बात नहीं कर रही।’’ सुमि सफाई देती है। अमेरिका में इतने वर्ष बिताकर भी वह पैसों और रुपयों की ही बात करती है। डॉलर बोलना नहीं सीख पाई।
कल थैंक्स गिविंग सेल है।
लोग सुबह चार बजे से दुकानों के बाहर खड़े हो जाएंगे। सबकी लंबी-लंबी लिस्ट होंगी। फिर अगले दिन अखबारों में उनकी तस्वीरें होंगी, वक्तव्य होंगे। उसने इतने सस्ते में यह खरीदा और उसने वह। बेस्ट बाई में सबसे ज्यादा भीड़ थी या सर्किट सिटी में। मौसम की सबसे ज्यादा सेल कहां हुई और वह पिछले सालों में तुलनात्मक रूप में ज्यादा थी या कम, वगैरह-वगैरह।
यह पूछो तो साल भर यहां सेल लगी रहती है। हर चीज की। मिट्टी से लेकर टेलीविजन तक, सब कुछ बिकाऊ है यहां। कभी-कभी सुमि को लगता है पूरा अमेरिका एक बहुत बड़ा बाजार है। हर चीज बिकाऊ है यहां और सेल पर है। फिफ्टी परसेंट ऑफ, सेवेंटी फाइव परसेंट, बाई वन, गेट वन फ्री। स्थायी तो जीवन में जैसे कुछ है ही नहीं।
‘‘यहां लोग बहुत जल्दी ऊब जाते हैं। थोड़े-थोड़े समय पर नयी चीज़ें खरीदते रहते हैं। पांच साल में कार बदल ली। दस साल में घर। तुम भी चाहो तो गराज सेल लगाकर अपने पिछले साल खरीदे कपड़े वगैरह बेच सकती है।’’ रवीश ने बताया था।
‘मैं क्यों बेचने लगी।’ वह चिहुंकी।
‘‘नये ले लेना।’’ रवीश ने चिढ़ाया।

एक नया पति न ले लूं। बोर हो गई मैं तुमसे भी।’’ उसने बनावटी गंभीरता से कहा।
रवीश ने कसकर एक धौल जमा दी थी।
सुमि को पता है। गराज सेल यानी अपने घर के गराज के बाहर दुकान लगाकर बैठ जाओ। पूरे सबडिवीजन में नुक्कड़ों पर, हो सके तो सबडिवीजन की बाहर खुलती मुख्य सड़क पर और तमाम मित्रों-परिचितों के बीच अग्रिम लिखित-अलिखित सूचना चिपका दो, बांट दो। पहली बार जब अपने मेक्सिकन पड़ोसी की सेल देखी थी तो अजीब लगा था। अब सब सामान्य लगता है। लोगों के हर रोज बदल जाते रिश्ते भी।

शुरू-शुरू में जब नई-नई अमेरिका आई थी तो उसे बड़ा मजा आता था। उसे याद है, वह चकित रह गई थी कि कूपन भरकर भेज देने से इतनी सारी चीजें मुफ्त में अपनी हो जाती हैं। उसने उस साल घूम-घूमकर खूब खरीददारी की थी। उन तमाम चीजों की, जो बाद में उसकी हो जाने वाली थीं। ढेर सारी अनाप-शनाप चीजें, जिनकी उसे बिल्कुल जरूरत नहीं थी। बस, मुफ्त में पाने का मजा ! केवल लिपिस्टिक, नेलपॉलिश वगैरह ही ढेर सारे जमा करने पर भी बेकार नहीं होने वाले थे। वह जब भारत जाएगी तो अपने मित्रों-परिचितों को बांट देगी। फिर अगले कई दिनों तक वह कूपन भर-भरकर भेजती रही थी। और, आश्चर्य, पैसे आए भी थे।
‘‘ये इस तरह मुफ्त में चीजें क्यों देते हैं ?’’ उसने रवीश से पूछा था।

‘‘इसलिए कि इन्हें पता है कि आधे लोग कूपन भरकर भेजना भूल जाएँगे, अपनी अति व्यस्त दिनचर्या में। कूपन भेजने की तारीख होती है, उस दिन तक नहीं भेजा तो बेकार। दूसरी बात, पुराना माल क्लीयर करना है और यदि इनकी चीज तुम्हें पसंद आ गई तो अगली बार सेल न होने पर भी तुम खरीदोगी। यहां ग्राहक बनाने की होड़ है।’’
‘‘हां, जैसे कि मुझे उस सीरियल की आदत पड़ गई है और मैं वही खाती हूं। सेल तो नहीं होती हमेशा।’’
‘‘तुम समझदार हो रही हो।’’ रवीश मुस्कराए।

अब सुमि का जोश ठंडा पड़ गया है। घर में जरूरत की तमाम चीजें जुटा चुकी है वह, सेल में से खरीद-खरीदकर। सच तो यह है कि सेल में चीजें खरीदने की ऐसी आदत पड़ चुकी है उसे कि जरूरत होने पर भी तब तक टालती रहती है जब तक वह चीजें सेल में न आ जाएं। यहां तक कि हर सप्ताह सारी दुकानों के सेल के कागज में भाजी के दामों की तुलना कर वह यह तय करती है कि इस सप्ताह ‘फूट टाउन’ जाएगी या ‘फियेस्टा’ या कहीं और। इतनी बड़ी दुकानें। एक भाजी खरीदने जाओ तो चल-चलकर पैर दुख जाते थे। अब आदत पड़ गई है।

यहाँ तो यह हाल है कि लोग लोन लेकर पढ़ाई करते हैं। लोन में घर, कार और जरूरत की तमाम चीजें मसलन, सोफा, पलंग, टी.वी. वगैरह खरीदते हैं। लोन लेते हैं शादी करने के लिए, बच्चे पैदा करने के लिए। फिर बच्चों के खर्चे। यों समझ लो एक अंतहीन सिलसिला, जो दिवालिया होकर सड़क पर आ जाने पर ही खत्म होता है। सुमि इसके जैसी नहीं बनना चाहती।
शुरू में यह सब समझ में नहीं आता था।

वह समझ नहीं पाती थी कि उसके घर मात्र घास काटने के लिए आने वाला होजे इतनी बड़ी गाड़ी कैसे चलाता है। वह गाड़ी तो उसकी अपनी है। नयी भी है। वह इतने बड़े घर में रहता है। सुमि का अपना घर तो उससे छोटा है। एक दिन डरते-डरते रवीश से बोली, ‘‘अपना होजे बहुत अमीर है न ?’’
‘‘हाँ, तुमसे तो ज्यादा है ही ।’’
सुमि का मुंह छोटा-सा हो गया।

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