नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
"वही कोशिश करूंगी।"
"हाय राम! शर्म भी नहीं आती है।" बड़ी और मझली जिठानिया एक साथ शर्म से मरकर
बोलीं, "अब बंबई भी? इसके बाद बाकी क्या रहा? फिर भी अभी तक सोचती थी, जिद
करके एक बच्चों जैसी हरकत कर बैठी है, हो सकता है बाद में अपनी गलती समझ
जाएगी। और हमारे पिघलने वाले देवर शायद उसे घर में रख लेगा। लेकिन उस उम्मीद
पर भी पानी फिर गया।''
उनकी बातों से यह स्पष्ट नहीं हुआ कि वह क्या चाहती थीं।
"ओफ! इसी को कहते हैं हिम्मत!'' उन्हें जैसे ओर छोर नजर नहीं आ रहा था, "कैसी
शांत सभ्य सी रहती थी, कौन जानता था उसके दिल में इतनी हिम्मत है।"
"चलो फिर भी शहर में थी...इसके बाद? छि:-छि:, बिना अविभावक के बंबई चली गयी
तो बचेगा क्या?"
"बचा ही क्या है?" मझली जिठानी मुंह बिचकाकर बोली, "हमारे हिंदू घर की लड़की,
घर के बाहर रात बिताने पर जिसकी जात जाती है, उसने दो-दो साल घर के बाहर ही
गुजार दिया। वह भी किस लाइन में? सुना है अलग फ्लैट किराए पर लेकर नौकर-चाकर
रखकर रामराज कर रही है। कार भी खरीद ली है शायद। और क्यों न खरीदे भला, दोनों
हाथों से कमा भी तो रही है।"
"ताज्जुब है! विश्वास करने को जी नहीं चाहता है। वही हमारी छोटी बहू।"
"इसमें अविश्वास करने की क्या बात है?" मझली जिठानी ने सिर को झटका देते हुये
कहा, "ये जो लाखों करोड़ों बुरी औरतें हैं, सभी तो खराब होकर आसमान से नहीं
टपकी हैं? वह भी कभी अपने मां बाप की संतानें थीं, पतियों की पलिया थीं, हो
सकता है बच्चों की माये भी थीं।"
"ओफ, हमारे घर में ऐसा होगा, कब किसने सोचा था? यही हम लोग असुविधा की वजह से
अलग होकर रह रहे हैं इसी पर हमारी कितनी बुराई हुई है-यही छोटे देवरजी ने
कितना हमारा मजाक बनाया था और अब?''
"सबसे ज्यादा सजा मिली है जेठों को? ये तो कहते हैं परिचित लोग अगर रास्ते
में मिल जाते हैं तो आंख मिलाकर बात नहीं कर सकता हूं-सिर झुकाकर चुपचाप निकल
जाता हूं।"
"देखते ही देखते नाम भी कर लिया है बाबा। उतरते ही स्टार बन गयी। ऐसी कोई
फिल्म नहीं जिसमें वह नहीं है।"
"क्या छलकला? बेहयापन...देखने लगो तो सिर कट जाता है। मैं तो नौ बजे के शो के
अलावा जाती नहीं हूं। डरती हूं कहीं कोई देख न ले।"
"तू तो तब भी चली जाती है-मुझे तो तेरे जेठजी ने सख्ती से मना कर दिया
है।"
"अहा! क्या वह मनाही मुझे नहीं है? मैं सुनती नहीं हूं। क्या करूं कौतूहल के
कारण जान जो जाती है।"
"अच्छा, तुझे क्या लगता है, छोटे देवरजी उसकी फिल्में देखते होंगे?"
"ईश्वर ही जाने। देखता क्या होगा? और कहीं देखा जा सकता है क्या? कुछ भी हो
उसके हृदय की जलन और ही है। अपनी शादीशुदा बीवी पांच मर्दो के साथ प्रेम का
पार्ट कर रही है यह चीज देखना और सहन करना आसान बात है क्या?''
छोटे ननदोई पत्नी को हंसकर चिढ़ाते, "कुछ भी कहो, तुम्हारे ब्रदर ने एक गलती
कर डाली। पत्नी को उड़ने न दिया होता तो और घर ही में रहने दिया होता तो इस
जीवन में मेहनत की कमाई न खानी पड़ती। अच्छा खासा पांव पर पांव चढ़ाए बैठा
होता-तिमंजिला मकान, शेवर्ले कार, लोगों की कतार, नौकर चाकर, मान
मर्यादा...''
"मान मर्यादा?" सुनने वाली ने तीव्र प्रतिवाद किया।
"अरे अरे...क्यों नहीं भला? मंजरी लाहिड़ी को आज सब हाथों हाथ ले रहे हैं-छीना
झपटी मची है। बंबई वाले खुशामद कर रहे हैं..."
छोटी ननद ने उदास गंभीर स्वरों में कहा, "कह लो, जो जी में आये कह लो। कहने
का मौका मिला है तुम सबको।"
उधर बड़ी ननद के यहां की व्यवस्था इससे भिन्न थी। वह अलिखित आदेश के अनुसार
छोटे से लेकर बड़े तक को मंजरी के बारे में कुछ भी कहना मना था। इस घर में कोई
मंजरी का नाम नहीं लेता है। सिनेमा देखने जाने का श्रेष्ठ आनंद-उससे सभी
वंचित हो गए थे।
सुनीति हजारीबाग से लौट आईं थीं। काफी दिन हो गये थे। सिर की कसम के साथ
अतिरिक्त घी, दूध और बढ़िया चावल खा-खाकर अजीब सी मोटी हो गयी थी। मंजरी
क्यों, दुनिया की किसी चीज के प्रति उसका लगाव खत्म हो चुका था। मंजरी रहे या
बर्बाद हो जाए, इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। बड़ी बेटी कमला ने एक दिन
संकोचपूर्वक कहा था, "उस दिन अगर हमने छोटी मौसी को यहां रख लिया होता मां,
तो शायद छोटी मौसी इस तरह से..."
क्लांत भाव से सुनीति ने उत्तर दिया था, "जिसे नियति खींचे उसे कौन पकड़कर रख
सकता है?"
छोटी बेटी कमला शुरू-शुरू में एक दो बार अखबार लेकर मां को दिखाने आई थी छोटी
मौसी का नाम, उसकी तस्वीर। सुनीति ने थकी सी आवाज में कहा था, "तुम लोग उस
कमरे में ले जाकर देखो।"
यह समझ में नहीं आता है कि मंजरी के लिए उनके दिल में जरा सी भी सहानुभूति है
या नहीं। कौन जाने, शायद नहीं है। हो सकता है मंजरी अगर तकलीफें उठाती, भूखों
मरती, अच्छा पहनने ओढ़ने को तरसती तब शायद सुनीति उसे अपने पास खींच लेतीं,
सस्नेह गले से लगा लेतीं।
सुनीति उसके कलंक को क्षमा करती। लेकिन मंजरी तो कलंक की कीमत के तौर पर यश,
ख्याति, अर्थ, प्रतिष्ठा और स्वच्छंदता प्राप्त कर रही है। अब क्या जरूरत है
उसकी तरफ देखने की? उसके भीतर की स्नेह कंगालिनी को देखने की गरज अब है किसे?
कौन उस कंगालिनी पर विश्वास करेगा?
जिसके पास रुपया है उसे किस चीज का प्रयोजन है? न:, उसके लिए किसी के हृदय का
ममता का द्वार खुला नहीं रह सकता है। अब तो कोई चीज वहां मौजूद है तो वह है
घृणा।
मंजरी सुनीति के मन से उतर चुकी है। मिट चुकी है।
कुछ तो मिटाया था उसके दुःसाहस ने, बाकी मिटा दिया उसकी सफलता ने।
केवल किशोरी-चंचला कभी-कभी आश्चर्य से सोचती है। छिपाकर चंचला ने एक
संग्राहलय बनाया है।
अखबारों से, पत्र-पत्रिकाओं से, प्रोग्राम पुस्तिकाओं से, सिनेमा की
पत्रिकाओं से जो भी मंजरी की तस्वीर देखती, सब काट-काटकर अपने गुप्त भंडार
में इकट्ठा करती। नाना मूर्ति, नाना भाव भंगिमा, नाना रूप।
एकांत अवसर पर, दोपहर में उन्हें निकालकर, फर्श पर या बिस्तर पर बिछाकर देखती
है चंचला। देखती और सोचती।
पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर जो चेहरे हैं, जिन चेहरों पर खतरनाक किस्म की चपल
हंसी हैं, आखों का चुटीला कटाक्ष, अपूर्व भावभंगिमा, इस चेहरे को देखकर दिल
कांप उठता है, सारा शरीर डर से थरथराता है-यह क्या सचमुच छोटी मौसी का चेहरा
है? बचपन में जो उनके खेल का नेतृत्व संभालकर हो-हल्ला मचाया करती थीं, जो
परम उदारभाव से अपने हिस्से की चॉकलेट लाजेंस या फिर अपने गले की पत्थर की
माला बेझिझक दान कर देती थी, एक साथ खाती थी, सोती थी, बातें करती थी। सचमुच
वही है? क्या सचमुच वही है? और ये जो अखबार के पन्ने पर-विषाद प्रतिमा एक
विधवा नारी? जिसकी आंखों में असीम सूनापन, जिसके होंठों पर वेदना की व्यंजना
ये भी क्या उनकी छोटी मौसी ही है?
कौन सी तस्वीर ठीक है?
कौन सा रूप यथार्थ है?
सोचते-सोचते चंचला का मन भारी हो उठा-सहसा उसकी आंखें भर आईं। कभी-कभी छोटी
मौसी को देखने की बड़ी इच्छा होती है। देखने की इच्छा होती छोटी मौसी पहचानती
है या नहीं, उससे बात करती है या नहीं।
लेकिन ऐसा वह कैसे करे?
सुनने में आ रहा है कि वह कलकत्ता छोड़कर बंबई चली जा रही है। कौन जाने
हमेशा-हमेशा के लिए खो तो नहीं जाएगी छोटी मौसी।
किसी-किसी दिन रात को, जब नींद नहीं आती है मंजरी को, तब बिस्तर पर लेटे रहना
असंभव हो जाता है। वह जाकर बारामदे में बैठती है, तारों से भरे आकाश को,
असहाय सूनेपन से, आंखों में उदासी लिए देखा करती और सोचा करती कि क्या सारी
दुनिया छिन्न-भित्र हो गयी है, उसकी चिर परिचित दुनिया का हमेशा के लिए
निश्चिंत हो गयी है। लेकिन ऐसा सोचना उसकी भूल थी। अपने परिचित जगत के हर मन
में वह जीवित थी।
जीवित थी 'जलन' के रूप में।
अपमान की जलन, अभिमान की जलन, विस्मय की जलन, ईर्ष्या की जलन।
दिन के समय मन का चेहरा बदल जाता है।
दिन के समय मंजरी को इस बात का कतई दुःख नहीं होता है कि उसे कोई याद करता है
या नहीं। उस वक्त तो सिर्फ आगे बढ़ना रहता है। जय का पथ, यश का पथ। उपने आपको
ध्वस्त कर छित्र-भित्रकर, खंड-खंड कर उसने विकसित करना चाहा था।
यही तो चाहा था।
लालित्य, लावण्य से अपने को विकसित करना।
यही चाहा था न मंजरी ने?
हां चाहा तो था। समझकर या गलती से, आग को छूने से वह अपना स्वधर्म कहां छोड़ती
है? अबोध जानकर क्षमा करती है क्या?
रंगीन कांच के गिलास की चमक पर मुग्ध होकर मंजरी ने हाथ बढ़ाकर जहर के बर्तन
में मुंह लगाकर जहर पीया है, विष दाह शुरू नहीं होगा क्या?
उसके बाद?
उसके बाद तो मरना है ही।
आज छुट्टी है।
आज शूटिंग नहीं है।
बहुत मुश्किल से और बहुत प्रयत्न करने पर यह छुट्टी निकल सकी थी। घर पर आज
कुछ अतिथियों को आमंत्रित कर रखा है मंजरी ने।
हां, अपने घर में इस तरह की पार्टी देने का साहस मंजरी में हुआ है। रुपया
माने ही साहस।
अभी तक कोई निमंत्रित आया नहीं था।
ड्रेसिंग टेबिल के शीशे के सामने खड़ी होकर मंजरी प्रसाधन कर रही थी। अपने
आपको मनोहारिणी बनाने की साधना कर रही थी।
उसने समुद्री रंग की रेशमी साड़ी जो कि पानी की तरह स्वच्छ थी, पारदर्शी। उसका
रूपहला जरी का किनारा साड़ी के भार को बनाये रखने में सहायता कर रहा था।
मंजरी पहले कभी सोच सकती थी कि सात तह में भी जिसकी पारदर्शिता जाती नहीं है
वैसी साड़ी पहनकर बिना किसी शर्म के वह घूमती फिर सकती है?
लेकिन इस वक्त आराम से ऐसा ही कर रही है।
इस समुद्री रंग की साड़ी से मैच करता एक सिंदूरी रंग का ब्लाउज पहन रखा था
उसने। दोनों हाथ़ों में दो ढीले-ढीले कड़े, गले में चौड़ा गुलूबंध। बालों को एक
सफेद रिबन से ढीला करके बांधकर छोड़ दिया था। पांव में जरी की चप्पल।
रंग से लाल चेहरे पर एक बार और पाउडर का पफ घिसकर, होंठों की लाली और आंखों
के सुरमा की बारीकी को चेककर लिया मंजरी ने।
मनोहारिणी नहीं मनमोहिनी।
मंजरी कभी भी गोरी नहीं थी, सांवली थी लेकिन अब यह बात कोई कह नहीं सकता था।
प्रसाधान समाप्त कर बैठक में जाने से पहले मंजरी मुस्करा उठी।
बंबई की तारिकाओं के आगे क्या वह हार स्वीकार करेगी?
ईश।
सहसा हंसी गायब हो गयी। उसकी जगह ले ली क्लांति ने।
लड़खड़ाते पैरों से आकर सोफे पर बैठ गयी।
आश्चर्य!
उसकी पुरानी दुनिया क्या सचमुच ही इस शहर से विलुप्त हो गयी है? वरना किसी
बहाने, एक पल के लिए भी किसी की एक झलक तक क्यों नहीं दीखती है? संभव असंभव
कितनी जगहों में तो परिचित लोगों से भेंट हो जाती है। सिर्फ मंजरी का भाग्य
ही क्या दूसरे विधाता ने बनाया है?
इतनी जल्दी, पैसा आते ही मोटर खरीदने की क्या जरूरत थी मंजरी को? खरीदा है
जरा सा मौका पाते ही ड्राइवर को लेकर रास्तों का चक्कर काटने के लिए। जबकि
जिस मोहल्ले में जाने पर अवश्य ही कोई मिल सकता है, वहां जाने की हिम्मत नहीं
होती है। केवल आस पास, यहां वहां चक्कर काटती है।
लेकिन आश्चर्य है! मंजरी की पुरानी दुनिया मानो शहर से ही गायब हो गयी है।
लेकिन मंजरी क्यों इतनी बेवकूफी की हरकत करती है?
न जाने कितने दिन रातों को कार निकलवाकर अभिसारिका सी तैयार होकर, निश्चित
प्रतिज्ञा कर द्विविधा संकोच त्यागकर एक खास रास्ते की तरफ जाने का निर्देश
देती है। देखेगी आज भी दुंमजिले उस कमरे में देर रात तक बत्ती जलती है या
नहीं, देखेगी खिड़की पर बड़े प्यार से सूई की गयी कढ़ाई वाला पर्दा लटका है या
नहीं, देखेगी सोने से पहले कुछ क्षण के लिए एक विशेष व्यक्ति बारामदे में आकर
खड़ा हुआ या नहीं।
काफी रात गए अगर एक खास मकान के सामने एक मोटर चक्कर काटती है तो कौन देखने
जा रहा है?
सब कुछ सोचकर हिम्मत कर मोटर निकालने के लिए कहती है लेकिन रास्ते पर निकलते
ही एक भयानक भय उसके मन को शिथिल कर डालता, दिल धड़कने लगता-ठीक से पता ही न
बता पाती। सिर्फ इधर-उधर घुमाने का निर्देश देती है तो दिल का बोझ हल्का
होता। शांत भाव से बैठकर जी भरकर बाहरी हवा को भीतर खींचने लगती-
न:, कभी भी उस बहुपरिचित रास्ते का नाम ड्राइवर के आगे उच्चारित न कर सकी।
फिर भी हर दिन सुबह उठते ही मन के एकांत कोने में क्षीण सी एक आशा की किरण
झलक दिखाने लगती। हर दिन लगता ''आज जरूर जाऊंगी।''
वनलता की दासी मालती मालकिन के पीछे-पीछे आने पर भी पहला सवाल पूछती है,
''क्यों नई दीदीजी, आपके घर में आज किस बात का उत्सव है?''
मंजरी ललित हंसी हंसकर बोली, ''अपने आप ही अपना फेयरवेल पार्टी दे रही हूं।''
वे लोग बैठीं।
वनलता बोली, ''वहां वालों के साथ कंट्रैक्ट साइन हो गया है?''
''हूं।''
''किसके साथ?''
मंजरी ने बंबई के एक सुविख्यात चित्रनिर्माता कंपनी का नाम बताया
''कितनों दिनों के लिए?''
''फिलहाल तो साल भर। उसके बाद...उसके बाद शायद यहां कभी वापस ही न आऊं।''
'बंगाल को काना बनाकर हमेशा के लिए चली जाना क्यों चाहती है?''
मंजरी की सुरमा लगी आंखों की पलकें कांप उठीं। उदास भाव से बोली, ''यहां मुझे
कौन चाहता है लता दी?''
इससे पहले कि वनलता कुछ कहे, थोड़ी दूर पर खड़ी मालती मधुर कंठ से बोल उठी, ''ओ
मां। ये क्या कह रही हो नई दीदीजी। यहां आपको तो सभी चाहते हैं।''
वनलता ने गंभीर होकर उससे कहा, ''अच्छा, फिलहाल तुम्हें कोई नहीं चाह रहा
है-तुम बाहर जाकर बैठ सकती हो।''
अपमान से लाल सुर्ख चेहरा लेकर एक झटके में मालती बाहर चली गयी।
''और कौन-कौन आयेगा?'' वनलता ने पूछा।
''ज्यादा लोग नहीं हैं-श्यामल सेन, लोकेश मल्लिक, रेबादास, निशीथ राय,
आनंदकुमार...''
वनलता ने तिरछा कटाक्ष किया, ''उसे भी?''
''कहा।'' मंजरी उदास भाव से बोली, ''जाते वक्त विदा करो भाई सबको मैं प्रणाम
करती जाऊं।''
वनलता ने हीरे की अंगूठी वाली चंपाकली जैसी अंगुली से माथे पर उड़ आए बालों को
धीरे से हटाते हुए बोली, ''ये तो वह यात्रा नहीं है, ये तो है सर्वनाश के
आकर्षण की यात्रा।''
''सर्वनाश के बीच ही तो घोंसला बनाया है।''
''फिर भी-यहां तुम्हारी रक्षा करता रहा है जन्मकाल का बंधन, जन्म भर के
संस्कार, वहां तो तुम बहाव के साथ बहती काई होगी।''
मंजरी धीरे से हंसी, ''जो कमल होकर न खिला, उसकी किस्मत में काई बनकर बहना ही
लिखा है।''
वनलता मिनट भर स्तब्ध रहने के बाद बोलीं, ''तुझे याद होगा, मुझे एक दिन तूने
कहा था, ''चाहो तो तुम अच्छी हो सकती हो लता दी।''
''है याद?''
अचानक पेंट पाउडर के मध्य उभर आया मलिन उदास चेहरा बहुत ही करुण-लेकिन सिर्फ
थोड़ी देर के लिए। उसी करुण हो गये चेहरे पर हंसी उभर आई...बेतुकी लापरवाह
हंसी। हंसते-हंसते बेहाल बोली, ''याद क्यों नहीं होगा, खूब याद है। वही सवाल
अब क्या तुम मुझसे करोगी?''
''यही सोच रही हूं।''
''लेकिन उसका जवाब तो तुमने खुद उस दिन दिया था लता दी।''
''दिया था। फिर भी सोचा था, तुम शायद व्यत्तिक्रम हो। तुम शायद अलग धातु से
बनी हो।''
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