नारी विमर्श >> तुलसी तुलसीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...
इसलिये न डरी, न घबराई। बोली, 'कहा नहीं तुमने, मानती हूँ पर यह भी तो तुमने
नहीं कहा कि तुलसी उनकी बुआ चली गई हैं, तू आकर कुछ बनाकर उन्हें खिला दिया
कर।'
'दीदी तो कल ही गई हैं।'
'कल गई हैं, मतलब सुबह-शाम मिला कर तीन-चार जून बीत गये हैं।'
'तेरे पास तमाम फुर्सत ही तो है, कि तुझसे ऐसा कहूँ मैं।'
'फुर्सत है या नहीं, इसकी चिन्ता मुझे करने देते।'
'अच्छा बाबा। माफ कर। यह देख गले में गमछा डाल कर कह रहा हूँ, तुलसी मंजरी
देवी! आप कृपापूर्वक आकर खाना बना दिया करें। पर तुलसी यह भी कहना ही पड़ेगा
मुझे, ऐसा करती रहेंगी तो बड़ी बदनामी होगी।'
'ओ! ननी भैया!' सिर पीट कर तुलसी कहती है, 'सारी उम्र तो इसी चिन्ता में ही
घुलते रहे तुम। खैर, कोई बात नहीं। न हो, तुम मुझे तनख्वाह दिया करना कुछ। तब
तो कोई बदनामी नहीं होगी? नौकरानी के हाथ का खाने में तो कोई दोष नहीं? और
फिर इस जमाने में कोई नहीं खाता उनके हाथ का?'
दुकान की सीढ़ी उतरती है तुलसी।
ननी साथ चलता है। चलते-चलते ननी ने कहा, 'एक बात बता तुलसी। तूने इतनी
जली-कटी बातें करना किससे सीखा था रे? इस करणपुर में तेरी जैसी तेज मिजाज और
कड़ुवा बोलने-वाली दूसरी नही मिलेगी।'
जाते-जाते रुक गई तुलसी। पलट कर खड़ी हुई। लटकती लालटेन की रोशनी तुलसी के मुख
पर धूप-छाया के कल्पना के नक्शे बनाती है। रहस्य भरी मुस्कराहट छा गई उसके
मुख पर। बोली,'-तुमने पूछा ऐसी जली-कटी बातें मैंने कहाँ से सीखीं। अगर कहूँ
भाग्य से।'
'भाग्य से? क्या मतलब तेरा?'
'मतलब समझाने लायक वक्त आज मेरे पास नहीं है ननी भैया। आज नाइट-ड्यूटी है।
इतना तुमसे कहती हूँ, मेरा मुँह ही मेरा औजार है। इसी के बल पर आज तक
दुश्मनों से लोहा लेती आई हूँ। अगर मेरी जबान इतनी तेज न होती तो अब तक मैं न
जाने किस कीचड़ में डूब मरी होती। खैर छोड़ो। सुबह खाना बनाने तो आ जाऊँगी मैं,
पर घर पर कुछ सामान है या नहीं, पता है तुम्हें? ऐसा तो नहीं कि वहाँ पहुँच
कर देखूँगी कि सामान के नाम पर वहाँ कुछ है ही नहीं?'
'पता नहीं। मैंने देखा नहीं।'
'वाह! पता नहीं, देखा नहीं। तो आज बेटी-बेटा को लेकर क्या खाया दिनभर? हवा?'
'आज सब जने मिल होटल में खा आये थे।'
'वाह भाई वाह! ऐसा ही तो चाहिये। ठीक है आती हूँ।'
अब तुलसी तेज कदमों से आगे बढ़ जाती है।
लेकिन ननी वहाँ खड़ा-खड़ा जाती तुलसी को एकटक देखता क्यों है। चौराहे पर आकर
मुड़ते वक्त तुलसी भी लौट कर क्यों देखने लगती है। ननी को तुलसी ने रोशनी के
आड़ में खड़े देखा। ननी के माथे पर रोशनी की अल्पना न थी, उसका सारा शरीर
अन्धकार से घिरा था। रोशनी की एक रेखा उसके सिर के पीछे झलक रही थी।
बहुत पतली सी रेखा।
चुपचाप खड़ा ननी बहुत उदास, बहुत मजबूर, बहुत विचारा-सा लग रहा था। उसे देखकर
लगा जैसे बहुत बड़े मैदान के बीच में एक अकेला पेड़ खड़ा है।
राह चलती तुलसी के साथ हो लिया कोई। जल्दी-जल्दी चल उस तक पहुँच कर धीरे से
पुकारा, 'तुलसी!'
तुलसी चौंकी नहीं, क्योंकि उसने ख्याल किया था कि वह पीछे-पीछे आ रहा है।
तुलसी ने कहा 'इस तरह साथ-साथ राह चलना देखने में अच्छा नहीं लगता जग्गू।'
जग्गू भी अपने को संयमित करना जानता है। उसने बड़ी शान्ति से कहा, 'पर तू तो
घर भी नहीं आने देती है।'
'रात बिरात तुझे मैं घर पर ही क्यों आने दूँ?'
'तू मुझ पर अविश्वास करती है तुलसी?' जग्गू की आवाज भारी थी। चलते-चलते तुलसी
बोली, 'बात अविश्वास की नहीं जग्गू, लोक-निन्दा की है।'
दो-चार दिन बाद तो तेरे संग मेरा ब्याह होने ही वाला है।'
'तुझे पक्का मालूम है?'
'पक्का क्यों नहीं मालूम तुलसी, 'मिन्नत भरी आवाज में कहा जग्गू ने, 'तूने
मुझे भरोसा नहीं दिया है? कहा नहीं है तूने कि तुझसे शादी करना ही उचित है।
तू जरा मोटी अकल का सीधा आदमी है, मुझे दबा न सकेगा। कहा नहीं था तूने?'
हँसी आ गई तुलसी को। बोली, 'हाँ रे, कहा तो था मैंने। पर यह मैंने सोचा नहीं
था कि तू उसे पत्थर की लकीर मान कर बैठ जायेगा।'
'नहीं सोचा था न? सोचती कैसे? आज तक तूने कभी इस बदनसीब जग्गू को निगाह भर कर
देखा भी नहीं। और मैं हूँ कि जीवन भर तुझे....'
उदास हो तुलसी बोली, 'अपनी हालत क्या बताऊँ तुझे जग्गू! प्यास के मारे तड़प कर
मैंने एक लोटा पानी माँगा, और भगवान ने मुझे डूब मरने को एक तालाब भेज दिया
है। मैंने सोचा था कि बचपन से जान पहचान है, एक साथ खेले-कूदे हैं, और अब भी
गप-शप होती रहती है। बस यहीं तक। सच-सच बता क्या तुम तीनों में से किसी को
इच्छा होगी अस्पताल की दाई से शादी कर उसे घर ले जाने की? शुरू में अगर आगे
कोई आये भी, आगा-पीछा सोचकर वह जरूर पीछे हट जायेगा। अब मैं देख रही हूँ कि
मैंने बहुत ही गलत सोचा था। कौन? कौन है वहाँ? ओ, राजेन। यह देख जग्गू मेरा
एक वक्त कहा था न कि सोचने के लिये दो दिन का वक्त ले, अब तो देख रही हूँ, कि
सोचने के लिये, मुझे ही वक्त चाहिये।
क्षुब्ध हो राजेन ने कहा, 'पता है। अब तू सोच रही है कि इन टुत्पुँजियों को
क्या फँसाना, किसी बड़े पेड़ का आश्रय ढूँढ़ा होता तो काम देता।'
'बड़े पेड़ से तेरा क्या मतलब? तू कहना क्या चाहता है?' तुलसी ने पलट कर पूछा।
'कहना मैं कुछ भी नहीं चाहता तुलसी। आक्षेप के मारे मेरे मुँह से निकल गया
है। लेकिन यह भी मैं पूछता हूँ कि तेरे मन में अगर यही था तो तूने हमारे
सामने सुख का वह चित्र रखा क्यों? क्यों जगाई आशा? पेड़ पर चढ़ा कर अब सीढ़ी का
सहारा हटाये क्यों ले रही है? मैंने तो इस बीच में
जग्गू से भी कह दिया है कि वह अब अपने लिये रहने का कोई दूसरा इन्तजाम कर
ले।'
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