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नारी विमर्श >> तुलसी

तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6390
आईएसबीएन :81-8113-018-9

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...


'तुम्हें भी लग रहा है?' भौंहें सिकोड़ती माथे पर बल डालती नर्स मनोरमा मण्डल बोलीं, तुम्हें भी लग रहा है ऐसा?'
'जी।' तुलसी ने फिर कटाक्ष किया। 'जब से आप मेरी ड्यूटी देने के मामले में इतनी सजग हो गईं हैं।'
'तुम्हारे कहने का मतलब यह है कि मैं हम्हारी नौकरी खत्म करने के फेर में हूँ?'
मुस्कराई तुलसी। बोली, हो सकता है। ताज्जुब क्या है?'
'हूँ।'
मनोरमा मण्डल ज्वालामुखी-सी फट पड़ती हैं। कहती हैं, 'जो सुनाई पड़ रहा है, वह फिर सच ही है। न होता तो इतनी हिम्मत कहाँ से आती तुममें? नौकरी तो जब खत्म करना होगा; करूँगी, फिलहाज तुम्हारी गफलत और तुम्हारे चरित्र के विषय में जो कुछ सुनने में आता है सारी रिपोर्ट किये दे रही हूँ।
अद्युत शान्त-स्वर में तुलसी बोली, 'हाय मण्डल दीदी, उस पर भी रिपोर्ट दर्ज कराया जा सकता है? यह तो आपने खूब बताई! मुझे तो मालूम ही न था। ठीक है, जब आप उस रिपोर्ट को लिखने लगें, मुझे जरा बताइयेगा, दो-चार नाम उसमें मैं भी जोड़ दूँगी।'

'इतनी जुर्रत? तुम मुझसे मजाक करने चली हो!' पाँव पटकती मनोरमा मण्डल, बोली 'आज ही तुम्हे डिसमिस कराने का इन्तजाम कर रही हूँ।'
कारिडोर पार होते-होते तुलसी एक तीर और मार गई। वह बोली, 'आपको तकलीफ करने की जरूरत नहीं होगी, मण्डल दीदी। मैंने अपनी मेहनत बचा दी है। नौकरी छोड़ने की नोटिस मैंने दे दी है।'
'नोटिस दे दी है?' ओह। तो किसे दी है, सुनूँ मैं भी? डाक्टर घोष को दी होगी नोटिस?'
'अरे राम! यह आप क्या कह रही हैं मण्डलदी? हमारे जैसे अदना लोगों को उनके पास जाना अच्छा लगता है भला? वह साहस तो आप जैसे लोगों में है। मैंने अपनी अर्जी बड़ी नर्स बहनजी को दी है।'

तुलसी की निर्भय मूर्ति की तरफ देख मनोरमा मण्डल क्रोध से काँपती हुई बोलीं बड़ी नर्स बहनजी को? इतनी हिम्मत तुम्हारी कि तुम मेरे पीछे से जाकर उन्हें अपनी अर्जी दे आईं। तो तुम्हारी बात सुन उन्होंने क्या किया? मिठाई खिलाई?'
हँसी तुलसी। बोली, 'खिलाई तो नहीं, खिलाने को कहा।' बोलीं, देखना तुलसी, शादी के वक्त हमें भूल मत जाना। बुलाना हमें भी।'
'शादी!'
मिस मनोरमा मण्डल लड़खड़ा गईं। टूटती आवाज में बोलीं, 'शादी? ओह! तो वर कौन है?'
अब निर्झरिणी सी बहने लगी तुलसी की हँसी। हँसते-हँसते दोहरी होती हुई वह बोली, 'आपसे क्या बताऊँ मण्डलदी, यह बात तो अभी मुझे भी नहीं मालूम। आधे-दर्जन एक से एक वर सुबह-शाम घेरे रहते हैं मुझे। अभी तक मैं यही तय नहीं कर पाई हूँ कि उनमें से किसके गले में जयमाला डालूँगी।'

आजकल तुलसी अपने रेल क्वार्टर की भाभी की ननद की ड्यूटी पर तैनात है। तुलसी के कमरे में जाते ही वे बोल पड़ी 'मेरी भाभी ने तुम्हारी इतनी तारीफ की थी तुलसी, और मेरे ही वक्त पर तुम कन्नी काट रही हो!'
उनका बिस्तर झाड़ती हुई तुलसी बोली, 'घबराती क्यों हैं बहनजी? आपको घर भेजने के बाद ही छुट्टी लूँगी मैं यहाँ से।'
'सौ तो करोगी। मैंने सोच रखा था कि घर जाने के बाद भी तुम्हें कुछ दिन 'स्पेशल' रखूँगी, तो वह हो कहाँ पायेगा?''
हाथ जोड़ कर तुलसी बोली, 'यह खतां, तो मुझसे जरूर हुई बहनजी। आप माफ करें मुझे। पर हाँ, यहाँ आप जब तक रहेंगी, आपकी सारी सेवा करूँगी और आपको घर भेज कर ही यहाँ से जाऊँगी।'
'वर कैसा है रे तुलसी?'
'छोटी मुँह बड़ी बात आपके आगे कैसे करूँ बहनजी? पर हाँ, एक कहावत है न कि इस दुनिया में राजे के लिये रानी है तो काने के लिये कानी भी है। बस ऐसा ही समझिये?'
'अच्छा तुलसी, तुम्हारा तो अपना सगा कोई है नहीं। शादी तुम्हारी करायेगा कौन?'

उनके बालों को सुलझाते-सुलझाते तुलसी कहती है, 'यही दोस्त लोग मिल कर करा देंगे।'

चौकी पर ननी चुपचाप बैठा था।
अस्पताल से लौटती तुलसी वहाँ आई। बोली, 'क्यों जी ननी भैया, इस तरह हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे हो? बच्चों को नये कपड़े खरीद दिये तुमने?'
धीरे-धीरे सिर हिलाता है ननी।
हताश हो तुलसी ने कहा, 'यह काम फिर कब होगा?'
'जल्दी क्या है?' ननी उदास व भारी स्वर में कहता है, 'उन्हें तो बरात में जाना नहीं है।'
'नहीं भी गये बरात में। वे नये कपड़े नहीं पहनेंगे?'
'क्यों? उनका कौन-सा सुख बढ़ने वाला है?'

बिगड़ गई तुलसी। बोली, 'देखो ननी भैया, मुझे गुस्सा न दिलाओ। क्यों? कौन-सी आफत आने वाली है उनके? कुछ भी नहीं मिलेगा, तो भी दो टाइम, वक्त से खाने को मिलेगा, सोने के वक्त बिछा हुआ बिस्तरा मिलेगा, पहनने को धुले कपड़े मिलेंगे।'
'हूँ।' व्यंग्य से हँस कर कड़ुवाहट बिखेरता ननी बोला, 'साथ ही सौतेली माँ भी मिलेगी।'
'हाँ ननी भैया, ठीक ही कहा है तुमने, पर तुम भी देख लेना।'
'अरे यह क्या? अभी तक यह भैया-भैया की रट क्या लगा रखी है तूने?'
हँस दी तूलसी। कहा, 'क्या करूँ, आदत से मजबूर हूँ। आज की आदत तो नहीं है यह।
'अभी तक समझ में नहीं आ रहा है तुलसी, कि तूने यह क्या किया! उन लड़कों के सामने मैं मुँह नहीं दिखा पा रहा हूँ।'
हँसती रहती है तुलसी।

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