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नारी विमर्श >> तुलसी

तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6390
आईएसबीएन :81-8113-018-9

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...


अल्पना चित्रित पटे को घुमा फिरा कर देखता हुआ राजेन बोला, 'मैं साड़ी-वाड़ी के फेर में नहीं पड़ा। मैंने कानपुरी छींट की एक रंगीन चादर ली है बिस्तरे पर बिछाने के लिये।'
'ओह हो! तू भी ले चुका है? और मुझसे बताया तक नहीं? खैर, कोई बात नहीं, अकेले ही चला मैं। देखना, जग्गू-जग्गू की पुकार मत मचाना।'
मुख्य द्वार के करीब से उसी समय एक आवाज आई, 'पुकार तो जरूर मचेगी। जग्गा के बिना सारे औने-पौने काम कौन करेगा। अरे वाह, अल्पना बन गया है? कैसा सुन्दर है, और तू कहता था कि होगा नहीं मुझसे। 'मुझसे नहीं होगा, नाम की कोई चीज इस दुनिया में है ही नहीं। सब्जी देखूँ तो, कितनी है। कई लोग खायेंगे। घटने न पाये मौर लाया है न?'
दोनों मालाओं को अलग हटाते हुये सुखेन ने कहा, 'आपने जो-जो हुक्म दिये थे वे सारे पूरे कर दिये गये हैं।'
'होंगे क्यों नहीं? अपनी समझदारी से मैंने ठीक-ठीक लोगों पर ही काम सुपुर्द किया था। काम होता कैसे नहीं? मसाला तेल-वेल सब आ गया है न?'
'हाँ।'

'अपने लोगों के लिये साफ कपड़े तो रखे हैं न?'
'हमें क्या जरूरत है उजले कपड़ों का?' रोना सा होकर राजेन बोला। तुलसी चिंहुक कर बोली, क्यों नहीं है जरूरत? ननी भैया की शादी में बराती बन नहीं जायेगा? हाँ, यह बता, गाड़ी का इन्तजाम तो किया है न? मेरी तीन-चार सहेलियाँ आयेंगी। देखना उन्हें इन्तजाम पर हँसने का मौका न मिले। वैसे मैंने उनसे कह रखा है, कि ऐसी ही शादी है, उसमें साज-सजावट क्या। अच्छा और सुन....'
स्नेहिल हो तुलसी बोली, बच्चों दोनों को जरा जल्दी-जल्दी खिलापिलाकर ले जाना होगा यहाँ से।  ऐ जग्गू, यह काम तू अपने ऊपर ले ले मेरे भैया।'
मालाओं को केले के पत्तों से ढँकते-ढँकते सुखेन ने कहा, 'हमें तूने खूब बन्दर नाच नचाया तुलसी।'

कमरे के अन्दर आ जाती हे तुलसी।

उन तीनों के एकदम करीब आकर तुलसी ने बड़े स्नेह से कहा, 'ऐसा क्यों कहता है सुखेन? मैंने जो किया, बहुत सोच समझ कर ही किया है। मैंने
देखा तीनों के तीनों ए मुझ पर अपना सब कुछ निछावर कर रखा है। मेरे लिये तीनों बराबर हो। न कोई उन्नीस न कोई इक्कीस। अब तू ही बता तीनों को एक साथ कैसे वरती मैं? जयमाला तो एफ को ही दे सकती हूँ न? और ऐसा करने से बाकी दोनों के साथ, कितना अन्यायहोता, तू ही बता, होता कि नहीं?'
इसका जवाब कोई नहीं देता।

मुँह फुलाये रहते हैं तीनों।

उस स्नेह-भरे स्वर में ही तुलसी कहती गयी, 'एक बात और भी है। ननी दा की तकलीफ आँखों से देखी नहीं जा रही थी रे। अकेले खड़ा था जैसे कोई वज्राहत पेड़। पद्मा दीदी के बर्ताव से बहुत दुःख पाया है उन्होंने। औरत जात से ही नफरत हो गई है उन्हें। और फिर उन बच्चों की बात भी सोच।' सुखेन ने कहा, 'सब सोचा है।'
यही तो भरोसा है। तुम लोग समझदार हो इसीलिये इतना साहस जुटा सकी मैं। और क्या कहूँ इस फैसले के लिये मुझे ही क्या कुछ कम छोड़ना पड़ा है?' हँस कर तुलसी बताने लगी, 'ननी भैया की घर वाली को धुआँ फूंकना मना है अस्पताल में काम करना मना है। सड़क पर चक्कर काटना मना है। इन शर्तों को अगर मैं मानने को तैयार होती हूँ, तब बाबू साहब मुझसे शादी करने की मेहरबानी फरमायेंगे। और देख, याद हैं न, तेरे साथ क्या वादा हुआ है मेरा? ताश की मजलिस जैसी चलती थी, चलती रहेगी। गप-शप जैसी चलती थी, चलती रहेगी। ननी भैया की दुकान में जैसे बैठकी करते थे, वैसी बैठकी होती रहेगी। उसके बाद भी वन में भरत; लक्ष्मण, शत्रुघ्न, एक की गर्दन पकड़-पकड़ कर पार लगाऊँगी, जबान नहीं हिलाओगे। यह सारी बातें याद हैं न? पक्का? ऐसा न होगा जब तक, मुझे चैन नहीं मिलेगा। तेरे आगे मैं अपने सुख-चैन की भिक्षा माँग रही हूँ। आँचल फैला रही हूँ।'

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