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नारी विमर्श >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6393
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...


कहना न होगा कि लोकनाथ के पास उसका कोई सही उत्तर नहीं था। उसे भी बार-बार एक ही उत्तर देना पड़ रहा था। वह उत्तर टूटू मित्तिर की मानसिकता पर शांति का प्रलेप नहीं दे सका।
लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता भय का एक भाव आक्रोश को दबाए जा रहा है। रात बढ़ती जाए तो ऐसी स्थिति में घर से अनुपस्थिति किसी व्यक्ति पर गुस्सा बरकरार नहीं रखा जा सकता है, विपदा की काली छाया बर्फीली उसाँस से उत्ताप को नाकाम कर देती है। ऐसी ही स्थिति आ गई थी।
टूटू मित्तिर भी बेशक खुद ही गाड़ी चलाता है, पर ड्राइवर बगल में रहता है। ड्राइवर रखना प्रेस्टिज की बात है और समय-असमय जिम्मेदारी उठाने को मौजूद रहता है। वही ड्राइवर गाड़ी लेकर पूरे लेक टाउन का चक्कर लगा चुका है मगर कहीं किसी मकान के दरवाजे पर मेम साहब की गहरे लाल रंग की गाड़ी पर उसकी निगाह नहीं पड़ी।
इसके बाद टूटू मित्तिर ने टेलीफोन डायरेक्टरी खोल आस-पास और मध्यवर्त्ती स्थान के तमाम थानों के फोन नम्बर देख यह जानने की कोशिश की कि उन इलाकों मे कोई दुर्घटना हुई या नहीं। तभी कृष्णा भागी-भागी आयी और बोली, ''मौसा जी, मेमसाहब आ गई हैं।''
जब देखने को मिला कि अवंती मित्तिर के हाथ-पैर, मुंह-नाक अक्षत हैं और उसके चेहरे पर अपराध का भाव नहीं होता है तो बुझी हुई आग चट से लहक उठी। प्रसाधन-वर्जित चेहरे पर सिर्फ रूखेपन और थकावट की छाप है।
दिन बीतने के बाद घर लौटने पर टूटू मित्तिर ने पत्नी का इस तरह प्रसाधनहीन रूप देखा है?
लेकिन हाँ, अपने मन के लायक सजी-सँवरी हालत में भी नहीं देखा है। किसी भी तरह दावत वगैरह में सम्मिलित होने के लिए ले जाने में समर्थ नहीं हो पाता है। अवंती का कहना है, रिसर्च के काम के कारण उसके पास समय का अभाव है। 'बौद्ध कालीन युग में भारतीय नारियों की स्थिति'-इसी प्रकार की बेढंगी वस्तु को लेकर जीवन का सबसे सुन्दर समय नष्ट करने का क्या मानी है, टूटू मित्तिर की समझ में नहीं आता।'
कह-सुनकर अपनी इच्छा की पूर्ति के निमित्त दो-चार जगह ले गया था, लेकिन अवंती ने जान-सुनकर वहाँ तालमेल न बिठाने की चेष्टा की है। लिहाजा अपनीं इच्छा के अनुरूप ढालने की टूटू को उम्मीद नहीं है। पर हाँ, पत्नी को जबरन घर से बाहर न निकाल पाने के कारण को गौरव के साथ ही जाहिर करता है। अवंती के अलावा वह कौन किसकी पत्नी है जिसे एम. ए. में फर्स्ट क्लास मिला हो और जो इस तरह के एक कठिन विषय पर शोध करने में व्यस्त रहती हो?
लेकिन यह गौरव-बोध अन्दरूनी नहीं है।
जिस पत्नी के लिए इतनी देर से छटपटा रहा था, उसी को पहले जैसा ही स्वस्थ और अपराध के भाव से परे खड़ी होते देख टूटू मित्तिर बरस पड़ा।
''क्या बात?''
अवंती ने कहा, 'इस तरह गँवार की तरह चिल्लाओ नहीं' प्लीज! बात समझाने में देर लगेगी। पहले नहा-धो लूं। दिन-भर गरमी से तपती रही।''
''ठहरो!''
गँवारपन छोड़ टूटू मित्तिर ने दाँत पीस पेशेवर स्वर म कहा,  ''कहां गई थीं, यह बताकर जाना पड़ेगा।''
''बिलकुल नहीं। शॉवर के नीचे खुद को डालने के पहले एक भी शब्द नहीं कह पाऊँगी।''
पत्नी का यह अजीब बेपरवाह हाव-भाव टूटू मित्तिर को अपनी तत्कालीन तनी हुई नसों पर पत्थर बरसने जैसा लगा। एक खौफनाक इच्छा से हाथ कसमसाने लगे। हाँ, चट से एक तमाचा अपनी पत्नी के सुर्ख गाल पर जड़ देने की इच्छा हुई-उस गाल पर जिस पर टूटू मित्तिर तीव्र प्यार का चिह्न अंकित कर देता है, पत्नी का गाली-गलौज सहने के वावजूद। पत्नी कहती है, ''तुम जंगली हो, असभ्य हो, राक्षस हो!''
प्यार पाकर अवंती जिस तरह 'उफ' कहकर गाल सहलाती है, तमाचा खाने से शायद उससे अधिक कुछ नहीं होता। लेकिन तमाचा मारने की इच्छा को निरस्त कर तेज आवाज में बोल उठा,  ''यह सब चालबाजी रहने दो, सीधा-सा उत्तर दो।''
सारे कार्य-व्यापार में टूटू मित्तिर की अभिव्यक्ति की भंगिमा तीव्र हुआ करती है-क्रोध और प्यार दोनों में। अभी उसकी नसों का सिरा फूल गया है।
अवंती पर भी इस प्रकार की जिद क्यों सवार हो गई है? बहरहाल, किसी दूसरी बात का जिक्र करके भी स्नानघर जा सकती थी। उससे कुछ बिगड़ता नहीं। पूरा दिन गरमी की तपिश में नर्सिग- होम के माहौल में बेइन्तहा बेचैनी और दशहत में बिताते रहने के कारण उसे तकलीफ उठानी पड़ी थी, सिर वाकई दर्द कर रहा था। लेकिन वह हालत तो बहुत पहले ही गुजर चुकी है, वसंत ऋतु की
शाम की हवा चली थी, गाड़ी चलाकर बहुत देर तक उस हवा का सेवन कर और पुराने मित्र (अथवा प्रेम-पात्र) के साथ बीते दिनों की तरह ही रेस्तरां में घुसकर चाय पी है, उसे उसके गंतव्य पथ पर पहुंचा भी दिया है। लिहाजा अवंती की फिलहाल ऐसी हालत नहीं होनी चाहिए कि फव्वारे के नीचे गए बगैर एक भी शब्द कहने की उसमें क्षमता न हो।
तो भी बोली, ''सीधा-सा उत्तर तो दे चुकी दूँ। अभी कहने की स्थिति में नहीं हूँ।''
टूटू मित्तिर ने व्यंग्य के लहजे में कहा, ''क्यों, ऐसा कहाँ, क्या करने गई थीं कि स्नान करके पवित्र होने के बाद कहोगी! अब तक कहाँ थीं, यह अभी तुरन्त बताना होगा? तुम्हें कोई अधिकार नहीं है कि इस तरह सबको परेशानी में डाल दो।''
तो भी अवंती तनकर खड़ी हालत में ही बोली, ''बाप रें!. मेरी वजह से किसे कौन-सी असुविधा हो सकती है?''
''तुम्हारे लिए भी हो सकती है, मगर घर की प्रतिष्ठा के कारण तो हो सकती है। जानती हो, विजय पूरे लेक टाउन का गाड़ी से चक्कर लगाकर देख आया है कि कहीं कोई एक्सिडेंट हुआ या नहीं। इसके अलावा मैंने हर थाने में फोन किया था...''
अवंती अपने पति के क्रद्ध, असहिष्णु, आहत, चेहरे की ओर निहारकर भयभीत क्यों नहीं हो रही है, कम-से-कम शर्मिन्दा तो होना ही चाहिए था। वह अब भी अडिग स्वर में बोली, ''बाप रे! इसी बीच इतने सारे कांड हो चुके हैं! तुम आज इतनी जल्दी होश-हवास के साथ घर लौट आओगे, यह बात किसे मालूम थी?''
यह एक और ढेला। इसका मतलब स्वेच्छा से ही फेंका है अवंती ने। शायद थोड़ी ज्यादती ही की है। थोड़ी-सी शराब पीने की आदत होने के बावजूद टूटू कभी होश-हवास नहीं खोता। वापस आने में अगर देर हो भी जाती है तो भी कभी रात ग्यारह-बारह बजे नहीं लौटता है। फिर भी अवंती ने ऐसी बात कही? इसका मतलब जान-सुनकर चिढ़ाने की खातिर ही।
टूटू की नसों की नाड़ी और अधिक फूल उठी।
टूटू बोल उठा, ''औरतों को आजादी देने का अंजाम यही, होता है।''
अवंती जरा चौंक उठी।
उसके बाद उपेक्षा भरे स्वर में बोली, ''तुम जरा गलती कर बैठे। आजादी नामक चीज़ कोई किसी के हाथ में उठाकर धर नहीं देता, उसे लेना पड़ता है।''
''तुम्हें आजादी नहीं दी गई है?''
टूटू मित्तिर सोफे से उठकर, खड़ा हो जाता है और कहता है, ''औरत जात ही इस तरह की कृतघ्न होती है। राजकुमारी सास के शिकंजे में फँसी हुई थीं, वहाँ से चातुरी से बाहर लाकर....उफ! आश्चर्य की बात है!''
अवंती ने ठंडे स्वर में कहा, ''ले आए हो अपने स्वार्थ से। वहाँ मैं वैसी कोई बुरी नहीं थी। लेकिन अब बरदाश्त नहीं हो रहा है।'' यह कहकर अवंती स्नानघर चली गई।
जबकि जाने के पहले अवंती अनायास कह सकती थी, ''पूरा दिन यम और आदमी की लड़ाई के बीच बिताना पड़ा है और बेहद तकलीफ उठानी पड़ी है।''
इतना कहने से ही परिस्थिति बदल जाती।
शायद प्रथम दर्शन में ही टूटू के तमतमाए हाव-भाव को देखकर अवंती का अन्तर्मन कठोर हो उठा था।
हालांकि अवंती महसूस कर रही थी कि उसे और कष्ट पहुँचाना ठीक नहीं है। बताकर ही जाऊं।
पर चट से क्या कहकर जाएगी?
अवंती के आज के अभियान को क्या एक ही बात में समझाया जा सकता है? जिनके साथ सारा दिन रही, वे लोग कौन थे?
स्वयं को पूरे तौर पर उन्मुक्त कर फव्वारे को पूरी तरह खोल अवंती उसके नीचे बड़ी रही। पानी की धारा तीव्र गति से माथे पर गिर रही है, आस-पास का हिस्सा पानी से भर गया है। फिर भी अवंती उसे कम नहीं कर रही है। ठीक इसी वक्त एक तेज बारिश के दौरान, सड़क पर उतर भीगने की जरूरत थी उसके लिए।
बाहर शीशे की खिड़की के पार आँधी चल रही है, बन्द कमरे में उस आँधी की आवाज रेलगाड़ी चलने की आवाज जैसी लग रही है।
अवंती उस हवा में रेलगाड़ी पर चढ़कर बैठी है और चलती रेलगाड़ी की खिड़की से, हर पल ओझल होती हुई टुकड़ा-दर-टुकड़ा चित्र देख रही है।
चित्र क्या है? पेड़-पौधे? झोंपड़े? चाय के खेत? पहाड़ या अरण्य या नदी?
नहीं, यह सब कुछ भी नहीं। देख रही है कॉलेज के क्लासरूम, चबूतरा, लाइब्रेरी, अड्डा, सोशल.... 'कच-देवयानी' की आवृत्ति, किसी एक स्थान पर आमने-सामने दो कुर्सियों पर बैठे लड़का-लड़की चाय की प्याली सामने ले...उसके बाद गंगा की धारा, अथाह पानी का जमाव, शोर-शराबा, लंच पर सुन्दरवन...शेर-घड़ियाल न देख पाने का अफसोस और कितना कुछ।
सिर पर अविराम जलधारा गिरने से क्या समय की चेतना लुप्त हो जाती है? स्थिति की चेतना भी?
कँपकँपी आ जाते ही एकाएक चेतना लौट आई।...शायद ठण्ड लग रही थी, इस पर ध्यान नहीं गया था, लेकिन कँपकँपी आते ही ध्यान खिंच गया।
फौरन अलगनी पर रखे काफी लम्बे-चौड़े-मोटे तौलिए को खींच लिया अवंती ने। रगड़-रगड़ कर घिसे बिना कँपकँपी दूर नहीं होगी।
शरीर को बिलकुल उन्मुक्त कर, पानी के नीचे डाल, स्निग्ध करनें के लिए यही बाथरूम ही एक जगह होती है। चाहे जिसका बाथरूम जैसा भी हो, चाहे राजसी हो या दीन-हीन हो, फिर भी वह वैसी जगह है।
लेकिन मन को? मन को इसी प्रकार उन्मुक्त कर पसार देने के निमित्त कहीं कोई स्थान नहीं है। उसे एक पिंजरे में कसकर चारों तरफ से बाँध रखवाली करनी पड़ती है।
हालांकि बाहर आँधी चलती है, हवा में रेलगाड़ी पर चढ़ दूर-दूरान्त के रास्ते पर तेज रफ्तार से जाने की इच्छा होती है।
इस ओर आने पर, खाने की मेज का दृश्य देख, अवंती लज्जित हो उठी। दो व्यक्तियों के लिए खाना परोसा गया है। इसके मायने टूटू ने अब भी खाना नहीं खाया है। छि-छि:!
देखा, इस ओर सोफे पर टूटू एक रंग-बिरंगी तसवीरों वाली अंग्रेजी पत्रिका के पृष्ठ उलट-पुलट रहा है, निरर्थक अन्य मनस्कता के साथ-जिस तरह कि डॉक्टर के चैम्बर में अपेक्षारत रोगी उलटते- पलटते रहते हैं।
अवंती ने अब महसूस किया कि टूटू को वह अपेक्षाकृत अधिक पीड़ित कर चुकी है। ममता भी जगी। लोकनाथ के प्रति भी ममता जगी। बेचारा! उसी को तो पहले टूटू मित्तिर के रोष की अग्नि के समक्ष खड़ा होना पड़ा है। खैर, अब किया ही क्या जा सकता है!
अवंती लपककर पति के पास आई, बोली, ''इस्स! तुमने अब तक खाना नहीं खाया है? कितने आश्चर्य की बात है! लोकनाथ-दा कैसे आदमी हैं। तुम्हें खिलाने के लिए बिठा देना चाहिए था।''
कितना कुण्ठाहीन हाव-भाव है? आश्चर्य! औरतें ही इस तरह कर सकती हैं।
लोकनाथ जान-सुनकर ही आसपास नहीं है। अंतराल से उत्तर भी नहीं दिया।
अवंती ने कहा, ''अच्छा तुमसे कहती हूँ...मेरे आने के बाद तो चिन्ता दूर हो गई थी। तुम तो खाना खा ले सकते थे। पूरा दिन नर्सिंग-होम में बिताने की वजह से मुझे इतनी गरमी लग रही थी, वगैर नहाए-धोए...काफी देर भी हो गई। सिर्फ बदन पर पानी डालती रही।''
नर्सिंग-होम! वहाँ किस सिलसिले में जा सकती है!
टूटू संभवत: एक बार और बरसने के लिए तैयार हो रहा था, पर परिस्थिति अटपटी-जैसी हो गई। आँखों की कोर में एक सवाल उठाकर बोला-
''र्नासग-होम!''
अवंती बोली, ''बात तो यही है।''
अब अवंती को हवा की रेलगाड़ी से उतर प्लेटफार्म पर खड़ा होना होगा। अब सरो-सामान सहेज घर लौटना होगा। रेलगाड़ी हमेशा जगह नहीं देती है।
लिहाजा अवंती आत्म-समर्पिता हो गई। और भी करीब आ टूटू के हाथ से पत्रिका हटाकर कोमल स्वर में बोली, ''चलो, खाना खा लें। लेटे-लेटे दिन-भर के अभियान की दास्तान बताऊँगी।''
इसका मतलब अपने आपको बहुत कुछ घटाना होगा!
उपाय ही क्या है! यही तो नारियों की नियति है। 'मनी' और मन-इन्हीं दो की कीमत से जिन्दगी खरीदी जाती है-वह जिन्दगी जिसे देखकर दूसरों को रश्क होता है।
पूरे तीन वर्ष तो इसी तरह बिताती चली आ रही है अवंती नामक युवती, लेकिन कभी इस तरह हिसाब करने बैठी नहीं थी किं किस कीमत पर क्या प्राप्त हो रहा है।
उन तीन बरसों के पहले भी एक युवक ने एक युवती से कहा था, ''कितनी एब्सर्ड बात है! मैं तुम्हारे पिता के पास जाऊँ? उसके बाद? कुत्ते को ललकार दे तो?''
और उसके बाद कहा था, ''इन्तजार? जो युवती राज-सिंहासन के लिए बनी है, वह एक बेकार अभागे कंगाल के लिए इन्तजार करेगी? दिमाग खराब है या पागल हो गई हो?''
और उसके बाद?
उसके बाद वह युवक लापता हो गया, फरार हो गया। बहुत दिनों तक उसका अता-पता ही नहीं चला। उसके बाद सुनने को मिला, उसका पता चल गया है। वैसी कोई अहम बात नहीं थी। कहीं एक कोलियारी में किसी मित्र के यहाँ पडा हुआ था। क्यों? यों ही।
इस बीच मंच पर यवनिका-पात हो गया है।

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