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उपन्यास >> दाह

दाह

केशुभाई देसाई

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6400
आईएसबीएन :978-81-263-1510

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प्रस्तुत उपन्यास में घने जंगलों के बीच बसे गांव दरबारगढ़ के सामन्ती परिवेश के एक ऐसे ही अभिशप्त या कहें नियति के चक्र में फँसकर रह गये पीड़ित परिवार की कथा-व्यथा है, जिसका रूपांकन कथाकार ने इस उपन्यास में बड़े ही रोचक और प्रभावशाली ढंग से किया है...

Daah

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गुजराती कथाकार केशुभाई देसाई के प्रसिद्ध उपन्यास ‘होलाष्टक’ का अनुवाद हैं- ‘दाह’। जीवन में जब कभी ऐसी घटनाएँ आ घटती हैं जिनसे प्रभावित होकर व्यक्ति धधकती ज्वालाओं भरा दाह बनकर रह जाता हैं। प्रस्तुत उपन्यास में घने जंगलों के बीच बसे गाँव दरवारगढ़ के सामन्ती परिवेश के एक ऐसे ही अभिशप्त या कहें नियति के चक्र में फँसकर रह गये पीड़ित परिवार की कथा –व्यथा है, जिसका रूपांकन कथाकार ने इस उपन्यास में बड़े ही रोचक और प्रभावशाली ढंग से किया है।

ऐसा माना जाता है कि होली के पूर्ववर्ती आठ दिन प्रायः अमांगलिक होते हैं। ऐसे अवसर पर कथन अपने प्रेमभग्न जीवन की यातना झेल रही प्रेयसी को सात्वना देने के तौर पर यह कथा सुना रहा है। कथा के प्रमुख पात्र हैं- दरबारगढ़ की विशाल हवेली के बूढ़ें बापू, कुँवर साहब और उनकी बहूरानी तथा बावला बादशाह, या फिर वैसी ही व्यथा –अग्नि में झुलस रहा स्वयं कथक जो समझ नहीं पा रहा कि अपनी प्रिया को यह सब लिख भेजने के पीछे उसकी भावना क्या अपनी अन्तर्वेंदना को पूर्णाहुति देने की है या स्वंय के लिए सान्त्वना के कुछ पल ढूँढने की। प्रस्तुत उपन्यास का कथानक तो रोचक है ही मुहावरेदार भाषा –शैली की दृष्टि से यह कृति इस प्रकार अपना प्रभाव छोड़ती हैं कि हिन्दी का हर कथाप्रेमी पाठक भावना ही गहनता स्वतः ही अनुभव करने को बाध्य हो जाता हैं। लेखक की एक विशिष्ट रचना।

दो शब्द

‘दाह’ श्री केशुभाई देसाई के विशिष्ट गुजराती उपन्यास ‘होलाष्टक’ का अनुवाद है। होली के पूववर्ती आठ दिनों को अमंगल माना जाता हैं। जीवन में कभी ऐसे उतार चढ़ाव आ जाते हैं कि वह धधकती ज्वालाओं-सा दाह बनकर रह जाता हैं। यहाँ सामन्ती परिवेश के ऐसे ही एक शापित –पीड़ित परिवार की व्यथा कथा की प्रस्तुति बड़े ही रोचक ढंग से की गयी है। कथक अपने प्रेमभग्न शापित जीवन का दाह झेल रही हदयस्वामिनी को मानो मरहम के तौर पर यह कथा सुना रहा है। वैसे हममें से हर कोई किसी-न-किसी रूप में शापित तो है ही, चाहे वह ‘बावला बापू’ के नाम से जाना जानेवाला बादशाह हो, या फिर वैसी ही व्यथा –अग्नि में जलनेवाला स्वयं कथक जो समझ नहीं पा रहा कि अपनी प्रिया को यह सब लिख भेजने के पीछे उसकी भावना क्या अपनी अन्तर्वेदना को पूर्णाहूति देने की हैं या कि फिर उस शापावस्था की यातना को किसी और के साथ बाँटकर थोड़ी-सी राहत अनुभव करने की कामना। जो भी हो लेखक की वह कृति भारतीय साहित्य संसार में अपनी एक ऐसी विशिष्ट पहचान बनाती हैं जहाँ पर कि जान कब कोई और शापित व्यक्तित्व आकर बैठ पाने में समर्थ हो पाएगा। मैं विशव साहित्य का पाठक रहा हूँ। इतना तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि केशुभाई देसाई का यह विशिष्ट और प्रशिष्ट उपन्यास मुझे पचहत्तर साल की परिपक्व उम्र में सबसे अधिक प्रभावित करनेवाली एक हदयंगम कलाकृति लगी हैं।

लेखक की भाषा में साबरकांठा पुट की बहुलता के कारण कई स्थानों पर हिन्दी में समतुल्य शब्द बिठा पाना असम्भव ही नहीं लगता हैं कि अप्राकृतिक भी हो जाएगा। यूँ केशुभाई देसाई जैसे समर्थ कथाकार के प्रांजल गध-वैभव को हिन्दी में ठीक उसी शैली में प्रस्तुत करना तो शायद असम्भव नहीं तो भी बड़ा ही जटिल एंव दुष्कर उपक्रम हैं। हाँ, पाठक उसका स्वाद और सुगन्ध अवश्य ही इस अनुवाद द्वारा भी अनुभव कर सकेगा। विश्वास सिर्फ इतना ही है कि सुविज्ञ पाठकगण भावना की गहनता स्वतः ही अनुभव कर लेने में सक्षम होंगे।

‘बावला बापू’ इस समय कहाँ, किस स्थिति में होगा और बहूजी की याद में किस हद तक तड़पन महसूस कर रहा होगा, इसकी कल्पना करने में भी मुझे तो कँपकँपी होने लगती है। आप सोचिए, शायद आपकी दूरदृष्टि के सामने नाचता-कूदता पेड़ों के फल तोड़कर खाता और इनसान रूपी हैवानों की दुनिया से दूर पशु-योनि भोग रहे स्वच्छ, निर्मल जीवों में अपना यही स्थान पा लेने की सन्तुष्टि अनुभव कर पा रहा ’बादशाह’ आपको दिख जाए। और अगर दिख जाए तो एक एहसान जरूर कीजिएगा- उसे मेरा (और कथाकार केशुभाई देसाई का) सस्नेह प्यार अवश्य दीजिएगा। यह मेरा परम सौभाग्य है कि मैं ऐसी अनुपम रचना हिन्दी संसार को भेट करने में निमित्तरूप बन सका। ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ एवं लेखक-दोनो के प्रति मैं नतमस्तक हूँ।

दाह
होलाष्टकः पहला


प्रिये,
मैं जानता हूँ कि अब हमारा फिर कभी मिलना नहीं हो पाएगा। बहुत हिम्मत करके कुँवर साहब को साथ लेकर तुम्हारे घर आया था। तब कहीं जाकर दो-चार क्षणों के लिए तुम्हारी सूरत देखने को मिल पायी थीं। पिंजरे में बन्द पक्षी को घड़ी दो घड़ी के लिए जैसे खुला आकाश देखने को मिल पायी थी। पिंजरे में बन्द पक्षी को घड़ी के लिए जैसे खुला आकाश देखने के लिए बाहर लाया जाता है, ठीक उसी तरह मेरी नजरों के बृहत फैलाव को निहारने के लिए तुम्हें दरवाजे की चौखट तक बुलाया गया था। चाय –पानी का दौर चला, रस्सी शिष्टाचार के तौर पर हालचाल की पूछताछ हुई। फिर मिलिएगा, आइएगा, जैसे दो चार शब्द – और बस मुलाकात खत्म।
तुम्हारी बेबस आँखों की कसम, प्रिये, मुझे तो तुम हर पल याद आती रहती हो, परन्तु जमाने के जालिम दस्तुर के सामने मैं मजबूर हूँ। यह खत भी तुम्हें मिल पाएगा या नहीं, मुझे सरासर शुबहा है। फिर भी दिल पर पत्थर रखकर तुम्हें यह पाती लिखने बैठा हूँ। इसमें मुझे अपनी कोई बात नहीं करनी। तुम्हारे दुःख में कोई तुम्हारा भागीदार बन पाए, ऐसे ही एक दुःखी जीव की गाथा सुनाने के लिए यह कोशिश कर रहा हूँ। उसकी बात सुनोगी तो तुम्हें लगेगा कि दुनिया में हम लोगों से भी ज्यादा बदनसीब जी रहे हैं। इसी तसल्ली के बल पर मैं मानता हूँ कि तुम भी अपनी जिन्दगी जी सकोगी !
संयोग है कि आज ही होलाष्टक शुरू हो रहा है। होली के पहले की इस अपशगुनी अवधि में कोई भी अच्छा काम शुरू करने में लोगों को हिचकिचाहट महसूस होती हैं। परन्तु तुम्हें पत्र लिखने का काम मेरे लिए ‘अशुभ’ तो नहीं ही हैं। यद्यपि अब हमारे सम्बन्धों में अशुभ जैसा कुछ रहा ही कहाँ है। और जिसकी बात करनी है, उसका तो सारे का सारा जीवन –यहाँ तक कि उसका अस्तित्व ही अशुभ माना जा चुका है। इसलिए होलाष्टक का यह मुहूर्त उसका जिक्र करने के लिए केवल समयानुसार ही नहीं बल्कि सच कहा जाए तो किसी हद तक एकदम मुनासिब हैं।
उसे याद करता हूँ तो आँखे भर आती हैं। प्रिये, ऐसी करूण कथा है उसकी। सुनना चाहती हो ? तो सुनो....
सवाल यह है कि हम शुरू कहाँ से करेगें। बीच में से ? आखिरी दिनों से ? या कि शुरूआत से ही ? जिन्दगी कहाँ से, कब से प्रारम्भ होती होगी, प्रिये कोई कह सकता हैं क्या ? ज्यादा हम यही कह सकते हैं कि जन्म से इससे भी आगे बढ़कर कहना हो तो, गर्भाधान से..... बस। तो फिर पूर्व जन्म की अवधारणाओं का क्या होगा ?
मेरी कुंडली में तो लिखा है कि जातक आधा संग्राम लड़ चुका है, बाकी की आधी लड़ाई इसकों अब लड़नी है। इसका मतलब क्या हुआ ? यहाँ हमें जिसकी बात करनी है, उसका न कोई अतीत है, और न कोई भविष्य ही हैं। किसी ने उसकी जन्मपत्री नहीं बनायी किसी ने उसके दायें हाथ की रेखाएँ नहीं देखीं। उसने तो इस पृथ्वी पर कब किसके पेट से जन्म लिया, इसका हिसाब भी किसी ने रखा हो, कम-से- कम मेरी जानकारी मे तो इसके पास जो कुछ भी था उसका हाड़ –मांस का जिस्म ‘‘ऐसे मरदूद का जिक्र करने पर तुले हो ! तुम्हें और कोई काम ही नहीं हैं क्या ?’’
परन्तु जब उसकी बात सुन लोगी तब निश्चय ही तुम चार-चार आँसू बहाने लगोगी। हो सकता हैं कि दो –एक दिन तुम्हें खाना भी न रूचे। परन्तु इतनी करूणा भरी बात तुम्हें इसीलिए कहना चाहता हूँ कि मैं तुम्हारें दुःख को पहचानता हूँ।
तुमसे भी ज्यादा दुःखी इनसान का परिचय तुमसे कराने में सच पूछों तो मेरा असली हेतू तुम्हारें दुःख को हल्का करना ही है।
सुनों, अब मैं बात शुरू करता हूँ। यह बात तुम्हें पूरे ध्यान से सुनानी है। हो सकता है कि इसमें तुम्हें खुद अपनी वर्तमान समस्या का हल निकलता नजर आए। हालाँकि मैं ऐसा कोई उपदेश या सलाह देने का इच्छुक नहीं हूँ। इनसान की स्वयं अपनी समझ से मेरा विश्वास खत्न नहीं हुआ है। मैं तो सच्चे मन से यही मानता हूँ कि हर व्यक्ति अपनी उलझनों का निदान स्वंय ही ढूँढ़ सकता है। दूसरों के बताये रास्ते पर अगर मुश्किल दूर हो सकती तो ऐसे रास्ते बतानेवालों का अपने यहाँ कोई अकाल तो पड़ा नहीं हैं। हमारे देश में तो धर्मस्थापकों और धर्म उपदेशकों से लेकर कथाकारों, नेताओं और अभिनेताओं की भरमार है। इनके कहे अनुसार चलने से अगर लोगों को अपनी कठिनाइयों से छुटकारा मिल पाता तो आज दुनिया में दुःख नाम की कोई चीज़ ही बची न रहती।
हमारा यह नायक –इसके केवल शरीर ही है। आत्मा है कि नहीं, यह तो जब बड़े-बड़े विद्वज्जनों के लिए भी विवाद का विषय है तो फिर इस बेचारे गरीब जीव को इस पचड़े में क्यों डाला जाए ? अरे दुनिया की सभी चल-अचल वस्तुओं का नाम होता हैं, तब हमारा नायक तो नाम से भी मुक्त है। उसकी पहचान के लिए अलग-अलग समय पर अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग नाम इस्तेमाल किए गये हैं। परन्तु उसकी स्थायी पहचान के लिए कोई पक्का नाम उसे कभी नहीं मिल पाया। मिसाल के लिए किसी ने उसे ‘बावला बापू’ कहा, तो किसी ने ‘भोंदू’, किसी ने ‘बादमाश’, किसी ने ‘चक्रम’, किसी ने ‘मुनि महाराज’ और किसी ने हमे हमेशा खाते रहने वाला ‘पेटू’ नाम ही दे डाला। इसकी स्थायी पहचान के रूप में केवल एक सर्वनाम है- ‘वह’।
हम भी इसे ‘यह’ या ‘वह’ नाम से पहचानेंगे, ठीक है न !
या फिर कुँवर साहब की ही तरह हम लोग भी उसे ‘बादशाह’ कहें तो कैसा रहेगा ?
कुँवर साहब का कहना है, ‘‘वैसे तो बादशाह मुझसे दस-पन्द्रह वर्ष बड़ा ही होगा। उसकी ठीक-ठीक उम्र तो भला किसे मालूम होगी ! परन्तु जैसा कि ज्यादातर लोग कहते है, उसे सच माना जाए तो यह जब बारह पन्द्रह साल का था, तब से हमारे यहाँ आया हुआ है। इसका आना भी बड़ा रहस्यमय था- हालाँकि उस वक्त मैं तो शायद पालने में ही झूलने वाला साल-दो साल का बच्चा था। इसलिए मैं तो सुनी –सुनाई बात ही कर सकता हूँ। एक बार शिकार पर गये थे। शाम हो गयी थी लेकिन कुछ भी हाथ नहीं लगा था।

बापू ने घोड़ी दौड़ा दी थी- और घोड़ी थी भी ऐसी तेज कि कुछ मत पूछिए। भागी, भागी तो ऐसी भागी कि हिडिम्बा वन में जा पहुँची। पेड़ों के झुरमुट के बीच जाकर ही रूकी। घोर अँधेरा था और बापू के पास टार्च तो था ही नहीं। तलाश के ठूँठ लाँघती हुई घोड़ी नथूने फैलाकर खड़ी रही। उत्तर दिशा में कुछ हिलता हुआ दिखाई दिया। बापू ने धड़ाम से गोली चला दी और तभी एक भयानक चीख से पूरा जंगल काँप उठा।’’
बापू का तो कलेजा धड़क उठा- हो न हो, यह कोई मानवजात ही है। और प्रिये, वह सचमुच इनसानी जीव ही था। बापू उसे घोड़ी पर लादकर दरबारगढ़ ले आये तो वहाँ कोलाहल मच गया। शिकार देखने को उत्सुर इकट्ठा हुई भीड़ को बापू ने घोड़ी पर बैठे-बैठे ही झिड़क दिया- कह रहा हूँ न कि चले जाओ। मेरी नजरो से दूर हो जाओ। और जब भीड़ बिखर गयी तो दरबागढ़ के घड़ियाल से ठीक आधी रात का घंटा बजने की आवाज़ सुनाई दी।
अगले दिन सुबह बापू माता भवानी की मुर्ति के सामने आँसू भरी आँखों के साथ गिड़गिड़ा रहे थे, ‘‘माँ बहुत हो गया, अब क्षमा कर दो, माता। तुम्हें कुछ लेना ही हो तो मेरी जान ले लों मेरे हाथों ऐसा पाप, माँ ! बाल-हत्या का पाप !’’ और बापू वही निढ़ाल –से होकर लुढ़क गये थे।

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