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हम हिन्दुस्तानी

नाना पालखीवाला

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6426
आईएसबीएन :81-7028-202-0

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वर्तमान भारत की जनता तथा उससे संबंधित सभी सामयिक राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक समस्याओं पर निर्णयात्मक विचार और समाधान...



विलियम रीस माग ने जुलाई 5, 1993 को प्रकाशित टाइम्स के अंक में अपने एक विचारोत्तेजक लेख में दुःख प्रकट किया है कि आत्मज्ञान जो मानवता को उन्नति का मार्ग प्रर्दिशत करता रहा है, आश्चर्यजनक रूप से शांत पड़ा हुआ है।

लेखक ने कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं जिनमें बीते हुए युगों में अंतरात्मा का स्वर सर्वोपरि था। मॉरिस मैटरलिक ने ‘अनजान अतिथि’ के विषय में बताते हुए कहा थाः ‘‘यह वह शक्ति है जो हमारे अहम की अंधकारमय गहराई से निकलकर हमारे जीवन के यथार्थ का मार्गदर्शन करती है। यह वह शक्ति है जो मृत नहीं होती तथा हमारे विचारों या इनके फलस्वरूप अन्य कार्यकलापों से प्रभावित नहीं होती।’’ प्लेटो ने सुकरात का यह कथन दुहराया हैः ‘‘भूतकाल में उस दैवी आवाज ने, जिसे सुनने का मैं आदी हो चुका हूँ, मेरा सर्वदा साथ दिया है तथा नगण्य से कार्यों में भी उस समय मेरा विरोध किया है जब मैंने उस कार्य को करने के लिए गलत मार्ग अपनाया।’’ विंस्टन चर्चिल भी इसी प्रकार भाग्यवश कार में रखे एक विस्फोट से बचे थे। उन्होंने अपने बैठने के स्थान से थोड़ा हटकर बैठने का निश्चय किया था। लेडी चर्चिल ने उनसे कारण पूछा तो वह बोले,‘‘मुझे नहीं मालूम, मुझे नहीं मालूम’’-फिर उन्होंने कहा,‘‘हां, मैं जानता हूँ। किसी ने मुझसे कहा,‘ठहरो’। मैं उस समय कार के द्वार पहुंचने ही वाला था, जो मेरे लिए खोलकर रखा गया था। उस समय मुझे ऐसा आभास हुआ, जैसे मुझसे कहा गया हो कि मैं कार के दूसरी ओर का द्वार खोलूं और वहीं बैठूं।’’

श्री गोविंद मेनन सन् 1968 में कांग्रेस सरकार में विधि मंत्री थे। उन्होंने मुझे भारत का अटॉर्नी जनरल का पदभार संभालने के लिए बहुत बाध्य किया। काफी हिचकिचाहट के बाद मैं राजी हो गया और जब मैं दिल्ली में था, तो अपनी स्वीकृति भी उन्हें भेज दी। उन्होंने मुझे बताया कि इसकी अगले दिन घोषणा कर दी जाएगी। मैं प्रसन्न था कि इस विषय में अनिर्णय के कष्टदायक क्षण तो समाप्त हुए। प्रगाढ़ निद्रा मेरे लिए वरदान रही है और मैं इसका पूरा आनंद उठाता हूँ। उस रात्रि मैं प्रगाढ़ निद्रा में सोने के लिए बिस्तर पर चला गया। परंतु अचानक सुबह तीन बजे, बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के, मेरी निद्रा भंग हो गयी। एक शक्तिशाली विचार मेरी चेतना मैं तैरने लगा कि मैंने गलत निर्णय लिया है। तथा इसे तुरंत बदलना चाहिए, अन्यथा बहुत देर हो जाएगी। अगली सुबह मैंने विधि मंत्री को अपना निर्णय बदलने की सूचना दी तथा इसके लिए क्षमा मांगी। फिर आनेवाले वर्षों में जब मुझे जनसाधारण की ओर से उसी कांग्रेस सरकार में कई बड़े मुकदमों की पैरवी करनी पड़ी तो यह निर्णय लाभदायक सिद्ध हुआ। इन मुकदमों ने भारत का संवैधानिक कानून बैंक राष्ट्रीयकरण (1969), प्रिवी पर्स (1970), मौलिक अधिकार (1972-73) जैसे मामलों को आकर प्रदान किया है, ढाला है।

विवेक तथा पूर्वज्ञान का सबसे अद्भुत अनुभव मुझे श्रीमती इंदिरा गांधी के मामले में हुआ जिसका चरमोत्सकर्ष आपात्काल के रूप में हुआ था।

जून 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह निर्णय किया कि संसद में श्रीमती इंदिरा गाँधी का निर्वाचन रद्द समझा जाए। उसका अर्थ यह था कि वह लोकसभा की सदस्या नहीं रहेंगी तथा इस प्रकार उनका प्रधानमंत्री पद पर बने रहना भी कठिन होगा। श्रीमती गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय में इसके विरुद्ध अपील दायर की। जून 23,1975 को मैंने उनके प्रार्थना पत्र पर अंतरिम राहत के लिए बहस की। अंतरिम निर्देश के अनुसार मुकदमे का फैसला होने तक श्रीमती गांधी लोकसभा में बैठ सकती थीं, संसद की कार्यवाही में किसी अन्य सदस्य होने की भांति भाग भी ले सकती थीं तथा साथ ही भारत के प्राधनमंत्री पद पर भी बनी रह सकती थीं। उनके ऊपर केवल एक ही प्रतिबंध था, कि उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं होगा। न्यायमूर्ति ने लिखा कि चूकि संसद का अधिवेशन स्थागित है अतः किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होनी चाहिए और मैं चाहूं तो संसद का अधिवेशन चालू होने पर वोट के अधिकार के लिए नयी याचिका भी दायर कर सकता हूँ। उसी दिन संध्या (जून 24,1975) को मैंने श्रीमती गांधी से उनके निवास-स्थान पर भेंट की तथा उन्हें अवगत कराया कि अंतरिम निर्देश अत्यंत संतोषजनक है। उन्हें इस मामले में चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि जांच न्यायालय का फैसला अभिलिखित साक्ष्म पर सही नहीं है।

जिस वायुयान पर मैं बंबई वापस जाने के लिए सवार हुआ, उस पर मेरे पास की सीट पर एक सीधे-सादे से बुजुर्ग खद्दर के कपड़ों में और खद्दर का ही थैला लिए बैठे थे। उन्होंने मुझसे प्रधानमंत्री के मुकदमे के विषय में पूछा। मैंने उनको संक्षेप में न्यायाधीश के फैसले के विषय में बता दिया। उन्होंने मुझे बताया कि वह बंगलौर में गांधी आश्रम से संबंधित हैं तथा मई 1975में भारत के भिन्न-भिन्न स्थानों के दौरे पर निकले हुए हैं। ऐसा वे हर वर्ष करते हैं।

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