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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...



तभी एक साधु ने प्रसन्न होकर अपनी चिलम मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, "ले, तू भी प्रसाद पा ले।"

मैंने आज तक चिलम नहीं पी थी। और फिर वह साधारण चिलम थी भी नहीं। उसमें निश्चय ही कोई बहुत ही नशीला पदार्थ सुलग रहा था जिसके धुएं की तीव्र गंध वैसे ही मेरे लिए असह्य हो रही थी। लगभग सारे डिब्बे में ही हर ओर यही वातावरण था और मेरे लिए सांस लेना दूभर हो रहा था। अतः मैंने विनम्रतापूर्वक बाबाजी के आग्रह को अस्वीकार करना चाहा परंतु वह अपनी बात पर अड़ा रहा . "ले, ले, पी ले, पी ले," उसने कहा।

मैंने फिर भी मना करना चाहा तो वह बिगड़ उठा, “संन्यास लेने जा रहा है और बाबा की दी हुई चिलम से इंकार करता है। चल, लगा दम।" और उसने हाथ अपने चिमटे की ओर बढ़ाया।

मैंने चुपचाप चिलम हाथ में लेकर मुंह से लगा ली।

"खींच, और खींच। जोर से। हां, ऐसे।"

मुझे ध्यान नहीं कि चिलम उसने मेरे हाथ से ली या मैंने स्वयं उसे लौटाई। बहरहाल थोड़ी देर के लिए मुझे लगा जैसे मैं आकाश में उड़ रहा हूं और तब मैं वहीं फर्श पर लुढ़क गया।

मेरी आंख तब खुली जब एक महात्माजी ने अपनी चरण पादुका से मुझे हल्की-सी ठोकर देते हुए कहा, “उठ, यहीं पड़ा रहेगा क्या?"

मैं हड़बड़ा कर उठा तो देखा डिब्बा लगभग खाली हो चुका था। खिड़की के पार क्षितिज पर पहाड़ों की मनोरम श्रृंखला के पीछे सूर्य देवता का उदय हो रहा था। हवा में खासी ठंड थी किंतु साथ ही एक अजीब प्रकार की मादकता भी।

मैं उठकर बाहर आया। चारों ओर, स्टेशन के प्लेटफार्म से लेकर बाहर तक साधु ही साधु थे। मुझे लगा ईश्वर ने मेरी सुन ली है। मेरी मनोकामना अवश्य पूरी होगी।

परंतु उन साधुओं के बीच रहने में मुझे खतरा लगा। ट्रेन में ही जो प्रसाद मैं पा चुका था वही मेरे लिए काफी था। अतः मैं चुपचाप उनके बीच से होता हुआ आगे बढ़ता गया और पवित्र पावनी गंगा के तट पर पहुंच गया। यहां भी साधुओं का जमघट था। मैंने चुपचाप गंगा के पवित्र जल से हाथ-मुंह धोया और पुल पर से होता हुआ उस पार निकल गया। मैंने निश्चय कर लिया था कि जब तक मुझे एकांत नहीं मिलेगा मैं इसी प्रकार चलता रहूंगा और कोई उचित स्थान देखकर धूनी रमा दूंगा। अतः मैं बढ़ता चला गया। ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी रास्ते से होता हुआ मैं जिस स्थान पर पहुंचा वहां बर्फ ही बर्फ थी। मुझे खासी ठंडक लगने लगी किंतु उन प्राचीन साधु-महात्माओं का ध्यान करते हुए जो तपस्या में अपने शरीर को पूरा गला देते थे, यहां तक कि उनके शरीर पर पेड़-पौधे उग आते थे, मैं अपने मन को दृढ़ बनाए रहा और किसी उपयुक्त स्थान की खोज में बढ़ता चला गया। आखिर एक स्थान पर मुझे बर्फ और चट्टानों के बीच पहाड़ में एक ऐसी गुफा दिखाई दी जो हर प्रकार से धूनी रमाने के लिए उपयुक्त थी। मैंने पुनः ईश्वर को धन्यवाद दिया और उसी गुफा में प्रवेश करके पाल्थी मारकर बैठ गया।

मेरा ख्याल है मुझे ध्यान लगाए अभी अधिक देर नहीं हुई होगी कि जैसे किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे हल्के से थपथपाया। एक बार मेरे मन में आया कि कहीं यती अथवा हिममानव तो नहीं है जिसके बारे में मैंने हाल में अखबारों में पढ़ा था और मेरा मन भय के मारे अंदर ही अंदर सिहर उठा। साथ ही मुझे अफसोस हुआ कि धूनी रमाने के पहले मैंने गुफा में अंदर तक जाकर ठीक से देखा क्यों नहीं। कौन जाने यह हिममानव की ही गुफा हो। फिर भी मैं दिल को मजबूत किए चुपचाप बैठा रहा। तभी दोबारा कंधे पर किसी के हाथ का कोमल स्पर्श अनुभव हुआ। चूड़ियों की खनक जैसी भी सुनाई दी। मैं समझ गया। निश्चय ही ईश्वर मेरी परीक्षा ले रहा है। इसीलिए उसने मेनका जैसी किसी अप्सरा को मेरी तपस्या भंग करने के लिए भेजा है। मैंने और मजबूती से आंखें बंद कर लीं। मगर इस बार तो किसी ने वास्तव में मेरे कंधे को झकझोर ही डाला। चूड़ियों की खनक भी बहुत साफ थी। आखिर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने आंखें खोल दीं।

"उठो चाय लो। ऑफिस नहीं जाना है क्या?"

मैंने अपने चारों ओर देखा। एक क्षण में ही मेरी सारी तपस्या भंग हो गई। मैं अपने मकान के उसी कमरे में अपने बिस्तर पर पड़ा था और पत्नी चाय का प्याला लिए सामने खड़ी थी।

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