लोगों की राय

कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

221 पाठक हैं

आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


"मुन्ना!" भाभी ने लड़के को आवाज दी, "ला बेटा, जरा लोटे में रंग घोल ला। लालाजी से होली तो खेल लूं। हालांकि नहा चुकी हूं मैं।"
"नहीं-नहीं, रहने दीजिए। ऐसे ही अबीर लगा देता हूं," उसने थोड़ा-सा अबीर जेब से निकाल कर भाभी के माथे पर लगा दिया।
भाभी ने भी हाथ में अबीर लेकर उसके सारे मुंह पर और बालों में भर दिया। वह चुपचाप खड़ा रहा।
तब तक रेखा थाली में गुझिया-पापड़ आदि ले आई थी।
“सराब पिए हैं चाचा।" उसने कहा।
"अच्छा," उसने कहा, "तुमको कैसे पता?"
"बाबू पूछ नहीं रहे थे?"
"चल भाग यहां से!" भाभी ने उसे डांटा।
"किस दर्जे में है यह?" उसने पूछा।
"तीसरे में नाम लिखाया है इस साल।" भाभी ने उत्तर दिया।
वह गुझिया खाता रहा।
"एक पूड़ी ले आए, लालाजी!"
"नहीं-नहीं, भाभी!"
"एक ठो, बस।"
"नहीं, फिर कभी खाएंगे। बहत पेट भरा है।"
"अच्छा, यह गुझिया सब खा डालो।" भाभी पान लगाने लगीं। "जब हमारी शादी हुई थी तो तुम अपने दादा के साथ रंग खेलने आए थे," उन्होंने कहा, "चार बरस के रहे होगे। जरा-सी पिचकारी लिए थे। तुमको याद. नहीं होगा। मैंने तुम्हारे ऊपर रंग डाल दिया था तो तुम रोने लगे थे-ईऽऽ। चुप कराएं, चुप ही न हो। फिर हमारे बाबूजी ने तुमको पांच रुपये का नोट दिया तो तुम चुप हुए। गुझिया तुमको खाने को दी तो तुमने जेब में भर ली थी। याद नहीं होगा तुमको।"
वह हंसने लगा। "याद कहां होगा!" उसने कहा।
हर वर्ष होली पर भाभी यह बात उसे याद दिलाती हैं। और वह ऐसे सुनता है जैसे पहली बार सुन रहा हो।
चलने लगा तो भाभी ने पूछा, “छोटे लाला और संतू लाला नहीं आए?"
“घूम रहे होंगे इधर-उधर।"
"संतू लाला की कहीं नौकरी लगी?"
"नौकरी क्या लगेगी! अभी कल तो जेल से छूटकर आएं हैं!"
"जेल से?"
"हां, आपने नहीं सुना? पता नहीं कहां से अफीम-वफीम ले आए थे। वही पुलिस पकड़ ले गई थी।"

"तो अब मुकदमा चलेगा?"
"हां, चलेगा ही।"
"राम-राम! यह संतू लाला को क्या हो गया?"
"दिमाग की खराबी। और क्या कहा जाए?"
भाभी उसको छोड़ने दहलीज तक आ गईं। दादा कमरे में अकेले बैठे थे।
"सुना", भाभी ने उनसे कहा, "संतू लाला पकड़ गए थे। कल जेल से छूट कर आए हैं।"
"क्या हुआ?" दादा उठकर खड़े हो गए।
उसने संक्षेप में सारी बात बताई।
दादा कहने लगे, "आजकल के लड़को की समझ में ही कुछ नहीं आता। हमारे भी तो साहबजादे हैं। इनको भी किसी दिन जेल होगी।"
मुन्ना वहीं खड़ा था। उसने उनकी ओर देखा। “अच्छा चलें, दादा!" उसने कहा। उसे देर हो रही थी।
"चाची तो अच्छी तरह हैं?"
"हां।"
"देखो शायद शाम तक मैं आऊंगा।"
"अच्छी बात। अच्छा, नमस्ते, दादा! नमस्ते, भाभी!"
वह चला आया।
पौने दो बजने वाले थे। रंग चलना लगभग बंद हो गया था। हां, सड़कें अभी तक भीगी थीं। मकानों की दीवारों पर, दुकानों पर, साइनबोर्डो पर हर जगह रंग खेले जाने के निशान थे। यहां तक कि गायों और कुत्तों के ऊपर भी रंग पड़ा था। कुछ लोगों ने सिनेमा के पोस्टरों के.साथ भी रंग खेला था।
रमेश के यहां जाए या न जाए, वह सोच रहा था। मां ने कहा था, अतः उसने सोचा, दो मिनट में निपटा ही ले।
रमेश उसकी बुआ का लड़का था। उसी के उम्र का रहा होगा। फूफा तीन-चार वर्ष हुए कहीं तीर्थ करने गए थे। तब से लौट कर ही नहीं आए। बुआ हैं। रमेश, उसकी पत्नी और उनके चार बच्चे हैं। रमेश का विवाह उसके विवाह से कई वर्ष पहले हो गया था। यद्यपि पत्नी की आयु ज्यादा नहीं है, परंतु चार बच्चे होने के कारण उसका स्वास्थ्य अवश्य गिर गया है।
वह पहुंचा तो रमेश घर में नहीं था। उसकी पत्नी, कुंती, रंग से भीगे कपडे पहने धूप में बैठी थी।
"बड़ी राह दिखाई आपने," उसने कहा, "आपकी ही वजह से अभी तक नहाया नहीं मैंने। अम्माजी ने कहा भी, नहा डालो, अब आप नहीं आएंगे। लेकिन मुझे विश्वास था कि आएंगे जरूर।"

"हां, देर हो गई," उसने कहा और फर्श पर पड़ी चारपाई पर बैठने लगा।
"अब बैठिए नहीं। इधर आ जाइए पहले," उसने कहा। रंग पहले से घुला रखा था। बाल्टियों में। एक में हरा, दूसरे में लाल।
वह उठ कर खड़ा हो गया। कुंती उसका हाथ पकड़कर छत पर जिधर रंग पड़ा था, उधर ले आई और लोटे में रंग लेकर उसके ऊपर डालने लगी।
उसने उसके हाथों से लोटा छीन लिया और रंग ले कर उसके ऊपर डालने लगा। कुंती चुपचाप सीने पर हाथ रख कर खड़ी हो गई। उसने उसके बालों में, ब्लाउज के अंदर, सब कहीं रंग डाला।
"अच्छा, अब आपको चुप बैठना पड़ेगा।"
"खड़े-खड़े ही डाल लो न,” उसने कहा।
“आप लंबे जो पड़ते हैं।"
"झुका जाता हूं।"
वह झुक गया। कुंती ने लोटे से उसके ऊपर खूब रंग डाला। और हाथ में रंग ले कर उसके मुंह में लगाने लगी।
“अच्छा, ठीक है, लगा लो।" उसने कहा और अपने हाथ में रंग ले कर उसके मुंह में लगाने लगा। उसने बचना चाहा। परंतु उसने उसे पकड़ लिया और मुंह में रंग लगा दिया। उसका मुंह चमकने लगा।
वह वापस चारपाई पर आ कर बैठ गया और धूप में कपड़े सखाने लगा।
कुंती रिश्ते में उसकी भाभी थी, परंतु वह उसे कुछ कहता नहीं था। शायद इसलिए कि वह उम्र में काफी छोटी थी। जब वह एम. ए. में पढ़ता था तो अकसर उसके यहां आया-जाया करता था। घंटों उससे बैठ कर बात किया करता था। कभी-कभी वह उसे पढ़ाया भी करता। उसी के कहने से उसने हाईस्कूल का फार्म भरा था। और शायद उसी की सहायता से पास भी हो गई थी। थर्ड डिवीजन। परंतु उसके बाद धीरे-धीरे आना-जाना कम हो गया।

कुंती अंदर से खाना ले आई। पूरी-सब्जी वगैरह। थाली चारपाई पर रखकर वह बच्चे को गोद में लेकर दूध पिलाने लगी।
"अरे, यह खाना क्यों ले आई हो?" उसने कहा।
"खाना ही पड़ेगा आपको।"
“नहीं भाई, बहुत पेट भरा है। शाम को खा लूंगा।"
"मैं जानती हूं शाम को आप नहीं आएंगे।"
"आऊंगा, जरूर आऊंगा।"
"हमेशा आप ऐसे ही झूठ बोल देते हैं। एक टुकड़ा खा लीजिए अच्छा।"
उसने थोड़ा-सा खा लिया। "बुआ कहां हैं?" उसने पूछा।
"ऊपर छत पर धूप सेंक रही हैं।"

वह उठकर उनसे मिलने चला गया।

लौटकर घर आया तो तीन बजने वाले थे। कम्मन नहा-धोकर नए कपड़े पहने इधर-उधर टहल रहा था।
"कोई आया था?" उसने मां से पूछा।
"हां, चौथे साहब आए थे।"
"जीवन मामा नहीं आए?"
"और पानदरीबा वाले मौसिया?"
"वह भी नहीं आए। वह तो परसाल भी नहीं आए थे।"
वह चुप हो गया।
"तुम सब कहीं हो आए?" मां ने पूछा।
"हां।"
"तो अब नहा डालो। पानी गर्म है।"
वह नहाने बैठ गया। हाथ-पैर का रंग छुड़ा रहा था, तभी उसे ध्यान आया कि जब उसने बाहर कमरे में राजीव को बिठाया था तो कमरा बहुत गंदा था।
"बाहर का कमरा किसी ने साफ़ किया?" उसने पूछा।
"कौन साफ़ करेगा?" मां ने कहा, "मैं ही साफ़ करूं तो करूं, सो मुझे अब दिखाई ही नहीं देता।"
वह नहाने के बीच से उठ पड़ा और कमरा साफ़ करने लगा। कमरा साफ़ करने के बाद उसने स्नान पूरा किया। तौलिये से बदन पोंछ रहा था, तभी संतू आया। आंखें चढ़ी थीं। पैर ठीक नहीं पड़ रहे थे। आकर फर्श पर बैठ गया। फिर वहीं लेटकर आंखें बंद कर ली।
वह चुपचाप बदन पोंछता रहा। मां भी खामोश रहीं।
थोड़ी देर में संतू उठा और नाली के पास बैठकर उल्टी करने लगा। उल्टी करके फिर लेट गया। मां बाल्टी से पानी लेकर गंदगी बहाने लगीं।
"खाना ले आएं?" मां ने उससे पूछा।
"नहीं पेट भरा है," उसने कहा। उसे ध्यान आया, उसने सुबह मंजन नहीं किया था। वह टूथ ब्रश ले कर दांत साफ़ करने लगा।
"विपिन!" जीवन मामा सदा जीने पर से ही आवाज देते हैं।
"आइए, मामा!" उसने कहा।
“आ जाऊं?"
"हां-हां, आ जाइए।" वह जीने के सामने आ गया।
"लाओ भाई, गोश्त-पूरी खिलाओ!" जीवन मामा छत पर निकल आए। हर वर्ष होली पर वह गोश्त खाने आते हैं। उनके यहां सब लोग शाकाहारी हैं, अतः घर में पकता नहीं। वह छत पर पड़ी कुर्सी-मेज ठीक करने लगा।

"इनको क्या हो गया?" जीवन मामा ने संतू को छत पर आंखें बंद किए पड़े देखा तो पूछा।

"कहीं से पी-पिला आएं होंगे," उसने कहा।
जीवन मामा चुप हो गए। “कब आए तुम?" उन्होंने पूछा।
"दो-तीन दिन हो गए।"
"बच्चों को नहीं लाए?"
"वे अपने नाना के यहां गए हैं।"
"बहनजी कहां हैं?" मामा कुर्सी पर बैठ गए।
“अंदर होंगी," उसने कहा और मां को आवाज देने लगा, "अम्मा, जीवन मामा आए हैं।"
मां बाहर छत पर आ गईं।
"नमस्ते, बहनजी!" मामा ने कहा।
"नमस्ते," मां ने कहा, "बैठो।"
मामा पहले से ही बैठे हुए थे। “और क्या हाल-चाल है?" उन्होंने कहा, "आपको साफ़ दिखाई नहीं देता?"
"कहां साफ़ दिखाई देता है। जान पड़ता है बस कोई बैठा है। शक्ल नहीं दिखाई देती तुम्हारी साफ़।"
"भाई साहब के न रहने के बाद से आपकी तन्दुरुस्ती काफी बिगड़ गई।"
"रह थोड़े ही गया है कुछ शरीर में।" मां ने कहा।
"अम्मा, मामा के लिए गोश्त-पूरी ला कर दो।" उसने कहा।
“गोश्त तुम परस दो, पूरी मैं निकाल देती हूं।" मां ने उठते हुए कहा। वह गोश्त निकालने के लिए प्लेट ढूंढ़ने लगा। जीवन मामा कुर्सी पर बैठे-बैठे संत को निहारते रहे।
जीवन मामा बहुत दूर के रिश्ते से उसके मामा लगते थे। उसके पिता के घनिष्ठ मित्रों में से थे, हालांकि उम्र में उनसे बहुत छोटे थे। पिता थे तो वह रोज बिला नागा शाम को आते थे। बातचीत का सिलसिला खत्म होने में ही नहीं आता था। पहले, जब स्वतंत्रता नहीं मिली थी, तब जीवन मामा कांग्रेस की बड़ी तारीफ करते थे। स्वतंत्रता मिलने के बाद अब वह कांग्रेस की बुराई करने लगे हैं। कम्युनिस्टों की तारीफ करते हैं।
पिता थे तो होली पर जीवन मामा के आने पर घर में बोतल खुलती थी। हालांकि दोनों आदमी मुश्किल से एक-एक छटांक पीते थे। परंतु उसके बाद इतनी गर्मागर्म बहस होती थी, कि मां कहने लगती थीं-“पीते तो मैंने सबको देखा, लेकिन पीकर इस तरह झगड़ा करते नहीं देखा किसी को।" पिता की मृत्यु के समय जीवन मामा अपने घर गए हुए थे। लौट कर आए तो उसके घर आकर घंटों रोते रहे थे। उसी के बाद से धीरे-धीरे उनका आना-जाना कम हो गया। अब तो होली-दीवाली पर ही आते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai