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जैसी करनी वैसी भरनी

एम.एस.पुट्टण्णा

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6433
आईएसबीएन :81-237-1205-7

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बोलचाल की भाषा में लिखे गये इस कन्नड़ उपन्यास की मूलकथा सदाशिव दीक्षित के परिवार से शुरू होकर उन्हीं के परिवार में खत्म होती है....

Jaisi Karni Vaisi Bharni

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बोलचाल की भाषा में लिखे गये इस कन्नड़ उपन्यास की मूलकथा सदाशिव दीक्षित के परिवार से शुरू होकर उन्हीं के परिवार में खत्म होती है। पुत्र महादेव के जन्म के बाद दीक्षित की पत्नी का देहांत हो जाता है और तिम्मम्मा से उनकी दूसरी शादी होती है। बाद में महादेव की शादी सीतम्मा के साथ होती है। इसी बीच वहाँ के माता मंदिर के पुजारी की कामुक दृष्टि सीतम्मा पर पड़ती है और वह उसके साथ ज्यादती कर बैठता है। सीतम्मा इससे पीड़ित होकर बीमार हो जाती है तथा लाख प्रयास के बावजूद वह स्वस्थ नहीं हो पाती और उसका देहांत हो जाता है। दाह-संस्कार के बाद जब लोग श्मशान से लौटे जाते हैं तब उधर से जाता हुआ एक अनजान तांत्रिक अपनी तंत्र–साधना के बल पर सीतम्मा को पुनर्जीवित करता है और उसे घर पहुंचाता है। इस क्रम में कई प्रासंगिक कथाएं पहली बार 1915 में छपे इस उपन्यास की मूल कथा को ज्यादा रोचक और सहज बनाती हैं।
उपन्यासकार एम.एस. पुट्टण्णा (1854-1930) कन्नड़ साहित्य के विकास हेतु समर्पित लेखक थे। इनके साहित्यक जीवन का प्रारंभ अनुवाद एवं पाठ्य-रचना से हुआ। उपन्यास के अतिरिक्त कहानी, जीवनी, शोध–साहित्य, पाठ्य कृति आदि भी इन्होंने लिखी।

भूमिका


पुट्टण्णा का जन्म 1854 मैसूर में हुआ। कन्नड़ की श्रीवृद्धि के लिए स्वयं को समर्पित करने वाले महापुरुषों में वे अग्रणीं थे। वे मद्रास विश्वविद्यालय के स्नातक थे और आजीवन अध्यापक, वक्ता, राजस्व अधिकारी, वकील तथा कन्नड़ के पुनरुज्जीवन-काल के लेखक के रूप में अविरत परिश्रम करते रहे। अन्य क्षेत्रों में व्यस्त रहते हुए भी पुट्टण्णा ने सारस्वत सेवा करना बंद नहीं किया। साथ ही वे विश्वविद्यालय तथा अन्य शिक्षण मंडलियों में परीक्षक, पाठ्क-पुस्तक समिति और भाषा के साधु-असाधु रूपों की चर्चा करने वाली समिति में भी सदस्य के रूप में सेवा करते रहे। पुट्टण्णा कन्नड़ साहित्य परिषद के संस्थापक सदस्यों में से भी थे। कुछ समय तक परिषद के मंत्री का भी कार्यभार संभालते रहे। सार्वजनिक कार्यकलापों में वे विशेष रुचि दिखाते थे। अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी, उर्दू, हिन्दी और तेलुगु भाषाओं में उनका प्रवेश था पर बोलचाल और लिखित कन्नड़ में देशी शैली के वे पक्षपाती थे। पहले से प्रचलित अन्य भाषा शब्दों के निष्कासन के पक्षधर वे कभी नहीं रहे।

पहली पत्नी के साथ पुट्टण्णा का वैवाहिक जीवन सुगम नहीं रहा। पत्नी के शील पर जब संदेह होने लगा तब उनका दाम्पत्य सूत्र टूट गया। फिर अपने पसंद की लड़की से शादी करके उसे पढ़ाया, लिखाया इस पत्नी से इनके तीन बेटे और तीन बेटियाँ हुईं। वृत्ति-जीवन में भी पुट्टण्णा बहुत ही परिशुद्ध थे। अमलदार के पद के निर्वाह में वे महीने में दस दौरे पर रहते थे। कभी वे मूल्य चुकाये बिना ग्रामवासियों से दूध, फल आदि नहीं लेते थे। बड़े हाकिमों को माल भेजना पड़े तो बिल भेजकर उनसे पैसा वसूल करने वाले थे। इस निष्ठुर प्रवृत्ति के कारण पुट्टण्णा पदोन्नति के कई न्यायोचित मौकों से वंचित रहे। सन् 1930 में उनका स्वर्गवास हुआ। अंतिम क्षण तक पुट्टण्णा साहित्य सृजन और सार्वजनिक सेवा में तत्पर रहे।

अपने रचना-काल के प्रारंभ में ही पुट्टण्णा ने गद्य की संभावनाओं को समझ लिया था। उन्हें पहले से दृढ़ विश्वास था कि कन्नड़ उपन्यास सामाजिक हो या ऐतिहासिक, उसके लिए यहीं विपुल काव्य-सामग्री उपलब्ध है। ध्यान देने की बात है कि तब तक बी. वेंकटाचार और गलगनाथ ने मौलिक रचना और अनुवाद के द्वारा उपन्यास प्रस्तुत कर कन्नड़ उपन्यासों का मार्ग प्रशस्त कर लिया था। यद्यपि वेंकटाचार की भाषा संस्कृतनिष्ठ थी, फिर भी कन्नड़ गद्यविद्या में रम्यता लाने में यह समर्थ हुई। इस दृष्टि से गळगनाथ की शैली सरल थी और इतिहास के वीरों के साहसों को उजागर करने के लिए अत्यंत उपयुक्त थी। बी. वेंकटाचार और गळगनाथ के उपन्यासों ने कन्नड़ पाठकगण को नये मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया। उस समय पुट्टण्णा ने कन्नड़ उपन्यास को एक जानदार आधार प्रदान किया और प्रयोग के लिए मार्ग प्रशस्त किया।

पुट्टण्णा कन्नड़ के पुनरुज्जीवन काल के रचनाकार हैं। उस जमाने में साहित्यकारों पर राजा का वरदहस्त रहता था। उन दिनों स्वतंत्र कृतियों के साथ-साथ भाषांतर, रूपांतर और प्राचीन काव्यों का प्रकाशन भी देखने को मिलता था। राज्य के विकास में दत्तचित्त दीवानों को प्रोत्साहन व अंग्रेजी शिक्षण के प्रभाव से कन्नड़ साहित्य का श्रीवर्धन द्रुतगति से हो रहा था।

भारतीय जनजीवन पर अंग्रेजी शासन का गहरा प्रभाव पड़ा। परंपरा में परिवर्तन दिखने लगा। राजनीति में राजसत्ता से प्रजासत्ता के लक्षण नजर आये, वर्णाश्रम के बंधन में ढिलाई, शिक्षण व नियुक्तियों में नयी नीति, सामाजिक क्षेत्र में शिशु विवाह पर रोक और स्त्री शिक्षण के लिए प्रोत्साहन व साहित्य क्षेत्र में पद्य से गद्य की ओर झुकाव तथा गंभीर से ललित साहित्य में रुचि आदि परिलक्षित हुए। पुरानापन लुप्त हो रहा था और नयापन सिर उठा रहा था।
सांस्कृतिक भिन्नता से उपजे कई अंग्रेजी प्रभावों को पुट्टण्णा और उनके समकालीन साहित्यकारों ने अपनी-अपनी दृष्टि और रुचि के रूप में ग्रहण किया। देशी को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने परंपरा का त्याग नहीं किया, नव कांतिमान शैली को अपनाया। मातृभाषा और बोलचाल की भाषा का प्रयोग बढ़ने लगा। इनकी संस्कृति जीवन में दैव की महत्ता को स्वीकार कर चलने वाली थी। अंग्रेजी साहित्य के परिचय से मानो इनके लिए नया द्वार खुल गया। देश की परतंत्रता से भी लोग आतंकित थे। उनके जीवन मूल्य अटल थे। ये उत्तरदायित्व से घबरानेवाले जीव नहीं थे।

पुट्टण्णा के साहित्यिक जीवन का शुभारंभ अनुवाद व पाठ्य-रचना से हुआ था। उनके गद्यलेखन के विविध मुख थे। उनका उपन्यास व कहानी साहित्य जीवनियां, रूपांतर-भाषांतर, शोध साहित्य, पाठ्यकृतियां, पत्रकारिता के लेख आदि इसके लिए साक्षी हैं।

तब के उपन्यास कन्नड़ भाषाभाषियों के लिए अपरिचित एक भिन्न समाज को अंकित करनेवाले अनूदित ग्रंथ थे। उस समय पुट्टण्णा ने अपने उपन्यासों में कन्नड़ जनता के आचार-विचार, प्रकृति–स्वभाव, आशा-आकांक्षाओं तथा संकल्प–विकल्पों का चित्रण सुरम्य कन्नड़ शैली में किया। माडिद्दुण्णों महाराया (1915) मुसुकु तेगेये मायांगने (1928) और अवरिल्लदूटा (1959) आदि उपन्यास पुट्टण्णा की साहित्यिक साधना के अनर्ध्य रत्न हैं।

तत्कालीन सामाजिक जीवन और जनपद के विचारों को चकित कर देने वाला चित्रण यहाँ पाया जाता है। देशकाल का अंकन उसकी सारी विसंगतियों और संघर्षों के साथ किया गया है। पुट्टण्णा के उपन्यासों से तत्कालीन संस्कृति के मूल्याधारों को आसानी से समझा जा सकता है। मैसूर राज दरबार का जो चित्रण उनके उपन्यासों में प्रस्तुत है वह अन्य किसी भी कृति में प्राप्त नहीं है। असली राजभक्तों से लेकर समयोपासकों तक के कई तरह के पात्र यहाँ देखने को मिलते हैं। काव्य व कला को आश्रय देते वक्त तथा दानधर्म में निरत कृष्णराज ओडेयर तृतीय का भव्य और उज्जवल चित्रण प्रस्तुत किया है, उसी प्रकार दौलत खोकर राजकीय समर में हारे कई प्रकार के त्रस्त राजाओं का भी यथार्थ चित्रण पुट्टण्णा ने अंकित किया है। कृष्णराज ओडेयर तृतीय में लेखक को अपार श्रद्धा-भक्ति थी। ‘राजा प्रत्यक्ष देवता’ में पुट्टण्णा पूर विश्वास रखते थे।

पुराणेतिहास, काव्य, शास्त्रग्रंथ तथा अन्य अनेक स्त्रोतों से चुनकर डेढ़ सौ कहानियों का संकलन नीतिचिंतामणी (1884) तैयार किया गया। यह संकलन अपने नामानुकूल गुण भी रखता है। एक शताब्दी से भी अधिक समय से यह संकलन बच्चों का मन बहलाकर उन्हें सीख देता आ रहा है। अपने आप में यह रचना अपूर्व है। बाल साहित्य के रचनाकार की उपाधि पुट्टण्णा को इसी कृति से मिली है। अभी वे इसी उपाधि से जाने जाते हैं। पुट्टण्णा हेलिद कथगलु (1981) संकलन तीन भागों में प्रकाशित है। इन संकलनों से लगता है कि बाल मन को बिना बोझिल किये कहानियों के द्वारा क्लिष्ट विचारों को कहना उनका शौक था।

‘‘पेटेमातेनज्जी’’ (1927) एक मनोरंजक कहानी है जो सधारणतया लोक साहित्य में देखने को मिलती है। ‘कलावती परिणय’ जैसे रूढकाव्य की कहानी से इसकी तुलना की जा सकती है। शैक्सपीयर के नाटक ‘आल्स वैल देट एंड्स वैल’ में भी हम समानता देख सकते हैं। नारी जीवन पुट्टण्णाकी प्रिय काव्यवस्तु है। इस कथानक में नायिका चेलुवाजी अपने पातिव्रत्य की महिमा से हर संकट का सामना करती है। इस कथानक में चेलुवाजी के इस पात्र से पुट्टण्णा बहुत ही प्रभावित हैं।

चीन के दार्शनिक कन्फ्यूशियस पर रचित कांपूषन चरित्र (1892), कृष्णराज ओडेयर तृतीय के दरबारी पर रचित कुणिगल रामाशास्त्रिगल चरित्रे (1910) हैदराबाद के मंत्री पर सर सालार जंगन चरित्रे (1917), बहमनी सल्तनत के मंत्री पर महमूद गवानन चरित्रे (1922) तथा अपनी ही शक्ति के बूते राज्य स्थापना में समर्थ शिवाजी की जीवनी छत्रपति शिवाजी महाराज1 (1981) ये पांच जीवनियां पुट्टण्णा ने लिखी हैं। वे खासकर दो क्षेत्रों में सेवारत व्यक्तियों पर आसक्त रहे। एक परमार्थिक व धार्मिक क्षेत्र में निष्ठा से सेवा करने वाले और दूसरा शासन तंत्र में हाथ बंटाकर सफल प्रशासन करने वाले। इन दोनों क्षेत्रों के बीच पुट्टण्णा अपना गहरा संबंध स्थापित करते हैं।

पुट्टण्णा ने शैक्सपीयर के तीन नाटकों का कन्नड़ रूपांतर प्रस्तुत किया है। सिंबलैन नाटक का रूपांतर है जयसिंहराज चरित्रे (1881) जो कथन रूप में है। किंगलियर नाटक का रूपांतर है हेमचन्द्रराज विलास (1899)।

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