उपन्यास >> जैसी करनी वैसी भरनी जैसी करनी वैसी भरनीएम.एस.पुट्टण्णा
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बोलचाल की भाषा में लिखे गये इस कन्नड़ उपन्यास की मूलकथा सदाशिव दीक्षित के परिवार से शुरू होकर उन्हीं के परिवार में खत्म होती है....
यह एक गद्य
पद्य मिश्रित नाटक है। इन तीनों नाटकों में पुट्टण्णा ने कन्नड़ की
प्रकृति के अनुकूल औचित्यपूर्ण परिवर्तन किये हैं। शैक्सपीयर के नाटकों मे
गद्य के अत्यधिक प्रयोग करनेवालों में पुट्टण्णा अग्रणी हैं। उस जमाने में
इसे एक महत्वपूर्ण उपलब्धि ही माननी चाहिए। सुमति मदन कुमारर चरित्रे
(1897), थामस रे द्वारा रचित दि हिस्ट्री आफ सैंडफोर्ड एंड मर्टन का
रूपांतर ही है। कहानियों द्वारा बच्चों को नीतिपाठ तथा शैक्षणिक विषयों की
जानकारी ही इनकी विशेषता है। ये चारों रचनाएं रूपांतर हैं। हातिम ताय
(रचनाः 1920, यंत्रस्थ) पर्शियन मूल की कृति है। इसके अंग्रेजी अनुवाद से
पुट्टण्णा ने कन्नड़ अनुवाद तैयार किया है। उपलब्ध साक्ष्यों से सिद्ध
होता है कि हातिम ताय पुट्टण्णा की एकमात्र अनूदित रचना है।
सामंतों पर पुट्टण्णा द्वारा रचित पालेयगाररु (1923) प्रथम शोधग्रंथ है।
इसके बाद चित्रदुर्गद पालयगाररु (1931) तथा इक्केरी संस्थानद चरित्रे
(1931) आदि रचनाएं प्रकाश्ति हुईं। जब पुट्टण्णा अमलदार थे तो दौर पर जाते
थे। उस समय उन्होंने सामंतों के वंशजों से अभिलेखों का संग्रह कर रखा था।
इन सामंतों के बारे में इतनी व्यवस्थित जानकारी अन्यत्र उपलब्ध नहीं है।
अपने परिश्रम व शोधप्रवृति के बल पर पुट्टण्णा ने कई नये तथ्यों का
रहस्योद्घाटन किया, स्वीकृत कई गलतफहमियों को दूर किया। आज भी ये ग्रंथ उस
क्षेत्र के आधारग्रंथ हैं, स्रोत ग्रंथ हैं।
दो भागो में रचित हिन्दू चरित्र दर्पण (1882), हिन्दू चरित्र संग्रह
(1887), कन्नड़ लेखन लक्षण (1915) कन्नड़ ओंदनेय पुस्तकवु (1887) ये चारों
पुट्टण्णा की पाठ्य कृतियां हैं। प्रथम दोनों एम.बी. श्रीनिवासय्यंगार के
साथ की सह रचनाएं हैं। तीसरे के गद्य पाठ पुट्टण्णा ने, और नवकाल की
कविताओं को एस.जी नरसिंहाचार्य ने रचे हैं। चौथा पूर्णरूप से पुट्टण्णा की
कृति है। उस जमाने में जब कि कन्नड़ में ऐसी पाठ रचना के सिद्धसूत्र ही
नहीं थे, तब बाल शिक्षण सामग्री को अनुक्रम से जोड़कर रची गयी ये कृतियां
आगे की पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुईं।
अक्तूबर 1883 में पुट्टण्णा ने एम. बी. श्रीनिवासय्यंगार के साथ मिलकर
हितबोधिनी पत्रिका निकाली। इसमें पुट्टण्णा की सामाजिक चेतना उजागर हुई
है। साहित्य, कला, विज्ञान, इतिहास, जीवनी, विदेशी वार्ता आदि कई उपयुत्त
विषयों को पत्रिका में जगह मिली। उन्हें मद्रास जाना पड़ा तब पुट्टण्णा ने
हितबोधिनी का कार्यभार एम. वेंकटकृष्णय्या को सौंपा।
पुट्टण्णा का कन्नड़ प्रेम और सामाजिक प्रज्ञा उनके पैंतीस कन्नड़ तथा
पंद्रह अंग्रेजी निबंधों में सर्वाधिक आकर्षक है। यहां कन्नड़ राज्य के
राजा–महाराजा, राजभक्त, वीरपुरुष और सामान्य जनता पर लिखे लेख
हैं,
विज्ञानियों से संबद्ध लेख हैं, विद्यार्थियों के लिए निबंध हैं और
पुट्टण्णा के समसामयिकों पर लेख हैं। यहां तक कि भाषा से संबधित निबंध भी
हैं।
सन् 1915 में प्रकाशित उपन्यास माडिद्दुण्णो महाराया एम. एस. पुट्टण्णा की
महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति है। कन्नड़ में मौलिक उपन्यास इससे पूर्व ही
लिखे गये थे। उनमें प्रधान थे सन् 1899 में प्रकाशित गुल्वाड़ी वेंकटराव
का इंदिराबाई और सन 1905 में प्रकाशित बोलार बाबूराव का वाग्देवी। लेकिन
पुट्टण्णा का माडिद्दुण्णो महराया ही बोलचाल की भाषा में लिखा पहला
उपन्यास है। उपन्यास की मूलकथा छोटी है। परंतु उसके साथ उपकथाएं वृत्तांत,
वर्णन आदि को जोड़कर रोचक शैली के बल पर पुट्टण्णा ने अंत तक कुतूहल बनाये
रखा है।
सदाशिव दीक्षित मैसूर के राजदरबार में राजकृपा–पार्शित एक
प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। एक शिशु को जन्म देकर उनकी पत्नी चल बसी। बूढ़ी
माँ ही बच्चे का लालन-पालन करती रही। आगे संजवाड़ी के नीलकंठ जोइस की
इकलौती पुत्री तिम्मम्मा से उसने विवाह किया। अपने इकलौते पुत्र किट्टा से
जायदाद की सुरक्षा को असंभव जानकर जोइस, दामाद को ही सारा उत्तरदायित्व
सौंपकर निश्चिंतता से स्वर्ग सिधारा। दीक्षित का पुत्र महादेव तिम्मम्मा
की देख-रेख में पलता है। गांव के मास्टर पंत नारप्पय्या से वह पढ़ता है।
मार पहले और बात पीछे के सिद्धान्त वाले नारप्पय्या से जब बड़े लड़के बदला
लेते हैं तो पंत नारप्पय्या भारी संकट में फंस जाता है। उसके सावधान होने
में चार महीने लग जाते हैं। सारा उपचार, खान पान सब दीक्षित के घर में ही
होता है। उस समय बच्चों को ‘मन जीतकर पढ़ाना, मार से
नहीं’,
द्वारा दीक्षित के दिये गये उपदेश को गलत समझकर नारप्पय्या मन ही मन बदला
लेने की ठानता है।
महादेव बड़ा हुआ, बुद्धिमान बना। दीक्षित के मामा पशुपति सांबशास्त्री की
पोती सीता से उनका विवाह हुआ। सीता सुंदरी थी, गुणवती थी और पिता के
अनुकूल सती थी। तिम्मम्मा अपने रिश्ते से लड़की लाना चाहती थी। उसके बदले
सीता आई तो वह बहू से जलती थी, उसका अनादर करती थी। इससे महादेव के प्रति
उसकी प्रीति भी घट चली। तिम्मम्मा की बेटी साती कांटे की तरह सीता को
सताती थी। सीता जब एक बेटे की मां बनी और साती शादी करके ससुराल चली तब
जाकर तिम्मम्मा का गुस्सा कुछ ठंडा पड़ा।