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बच्चे और उनकी देखभाल

सुभाष आर्य

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :191
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6434
आईएसबीएन :978-81-237-5238

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यह पुस्तक गर्भावस्था, शिशु जन्म और बच्चे के किशोरावस्था तक पहुंचने के दौरान विभिन्न अवस्थाओं के बारे में प्रमाणिक जानकारी की दस्तावेज है....

Bachche aur Unki Dekhbhal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


यह पुस्तक गर्भावस्था, शिशु जन्म और बच्चे के किशोरावस्था तक पहुँचने के दौरान विभिन्न अवस्थाओं के बारे में प्रमाणिक जानकारी की दस्तावेज है। अब चाहे वह जानकारी बच्चे की बीमारी के बारे में हो या उसके खिलौनों के बारे में हो अथवा सेक्स संबंधी शिक्षा से संबंधित हो। कामकाजी माताओं की समस्याओं तक की इसमें चर्चा की गई है और यह सब बोधगम्य, रोचक और सरल भाषा-शैली में कहा गया है। पुस्तक में ऐसी कई समस्याओं की विस्तृत चर्चा भी की गई है जिनसे बच्चों के माता-पिता परेशान हो उठते हैं—जैसे स्तनपान, बच्चा रोता क्यों है, नींद की समस्याएं, बच्चे का स्कूल, सामान्य बीमारियां, आदि। संक्षेप में, यह एक ऐसी गाइड है जो प्रत्येक माता-पिता के लिए उपयोगी और संग्रहणीय है।
इस विषय पर लेखक का व्यावहारिक और व्यावसायिक दृष्टिकोण निश्चय ही माता में आत्मविश्वास पैदा करने और स्वस्थ तथा प्रसन्नचित्त शिशु का लालन-पालन करने में उसकी क्षमता बढ़ाएगा।
डा. सुभाष आर्य भारत में बाल चिकित्सा के क्षेत्र में 30 वर्षों के अनुभवी सुप्रसिद्ध बाल चिकित्सक हैं। डा. आर्य, 1990 में ‘इंडियन अकादमी ऑफ पेडियाट्रिक्स’ के अध्यक्ष रहे। इस समय सर गंगा राम अस्पताल, नई दिल्ली में बाल चिकित्सा विभाग में वरिष्ठ परामर्शदाता हैं।

दो शब्द


बच्चों के पालन पोषण और उनकी देखभाल पर बाजार में बहुत पुस्तकें उपलब्ध हैं। मोटे तौर पर उन्हें दो श्रेणियों में रखा जा सकता है। पहली श्रेणी में अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित वे पुस्तकें हो सकती हैं जिनके लेखक व्यावसायिक बाल चिकित्सा विशेषज्ञ हैं। दूसरी श्रेणी में हिन्दी की वे पुस्तकें मानी जा सकती हैं जिनके लेखक अधिकांशतः विषय के विशेषज्ञ नहीं हैं। इसलिए हिंदी में बाल चिकित्सा एवं शिशु पालन-पोषण पर अधिक स्तरीय पुस्तकों का अभाव-सा है। अंग्रेजी में प्रकाशित पुस्तकें सामान्यतया समाज के अभिजात वर्ग में ही प्रचलित हैं। इन पुस्तकों के लेखक यद्यपि विषय के विशेषज्ञ हैं, परंतु अधिकांश पुस्तकें पश्चिमी देशों के विशेषज्ञों द्वारा वहां की माताओं के लिए लिखी गई प्रतीत होती हैं। उनमें पश्चिमी देशों में अपनाए जाने वाले उपायों और वहां होने वाले रोगों पर चर्चा की गई है।

इसलिए भारतीय माताओं के लिए एक ऐसी पुस्तक होनी चाहिए जिसमें सामान्यतया भारत में होने वाले रोगों तथा बच्चे के लालन-पालन में जो समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, उनकी विवेचना हो।
उष्ण कटिबंधी देशों में इन रोगों के प्रति दृष्टिकोण और उपचार भिन्न हो सकते हैं। शिशु के पालन-पोषण और देखभाल के लिए हमारी सामाजिक प्रथाएं, सांस्कृतिक परंपराएं और रीति-रिवाज भी भिन्न हैं। ग्रामीण और अशिक्षित वर्ग बच्चों के दांत निकलने में दस्त अनिवार्य मानते हैं। खसरा को शीतला माता का प्रकोप मानते हैं। इस प्रकार भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग परंपरागत प्राचीन रीति-रिवाजों, प्रथाओं और अंधविश्वासों से ग्रस्त है।
पिछली एक-दो शताब्दी से राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, अपितु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी शिशु पोषण और बाल विकास पर विशेष ध्यान दिया गया है। चिकित्सा पद्धति, आयुर्विज्ञान, प्रौद्योगिकी जनसंचार माध्यमों के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। बाल विकास एवं शिशु पोषण पर राष्ट्रीय एवं स्वैच्छिक संस्थाओं के सतत प्रयास से और जनसंचार माध्यमों, विशेषकर इलैक्ट्रानिक माध्यमों में बाल विकास पर नित्य प्रति मनोरंजक, रोचक, आकर्षक, ज्ञानवर्धक कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। साथ ही, समाज के पिछड़े वर्गों में साक्षरता बढ़ी है। इससे अंधविश्वासग्रस्त समाज के दृष्टिकोण में क्रांतिकारी परिवर्तन आ रहा है। उनमें जागरुकता बढ़ रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि अंधविश्वास और रूढ़िग्रस्त समाज अब नवचेतना के संक्रमण काल से गुजर रहा है और लोग अपने बच्चों के स्वास्थ्य, पालन-पोषण, देखभाल के प्रति अधिक सतर्क और सावधान हैं और इस दिशा में विशेषज्ञ राय के साथ-साथ अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए मार्गदर्शन की अपेक्षा करते हैं और वह भी अपनी बोलचाल की ही भाषा में।

अतः इस संक्रमण काल से गुजरने वाले समुदाय के लिए हिंदी में ‘बच्चे और उनकी देखभाल’ पुस्तक लिखने के लिए मैं प्रेरित हुआ और मैंने इस प्रयास में इस संक्रमण काल से गुजरती हुई मां को ध्यान में रखा है कि उसे अपने स्वस्थ या बीमार बच्चे की देखभाल में किस प्रकार सलाह की जरूरत हो सकती है, इसलिए उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप पुस्तक तैयार करने का प्रयास किया गया है।

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