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सबका अंतरिक्ष

सीता किशोर

प्रकाशक : आराधना ब्रदर्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6456
आईएसबीएन :81-89076-05-1

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सामाजिक सरोकारों के कारण शोषण, असमानता और भेद-भाव का विक्षोभ इन रचनाओं के रूप में उभरा है...

Sabka Antriksh - A Hindi book by Sita Kishore

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सपने देखे बिना प्रगति के नये प्रतिमान नहीं बनते पर हमें सीताकिशोर के किसी सपने का आभास तक नहीं हुआ जो इन्हें, आलस्य और प्रमाद से शिथिल कर सके। साहिर लुधियानवी कहते हैं, ‘‘कौन रोता है किसी और की खातिर’’ पर मैंने सीताकिशोर को वक्त-बे-वक्त दूसरों का भरपूर सहयोग करते पाया है।
सहज अभिव्यक्ति के असाधारण कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने लिखा है ‘मैं जो लिखता हूँ उसे जब बोलकर देखता हूँ और बोली उसमें बजती नहीं है तो मैं पंक्तियों को हिलाता डुलाता हूँ। सीताकिशोर की पंक्तियों में तो बोली का पूरा झुनझुना बजता रहता है।’
सामाजिक सरोकारों के कारण शोषण असमानता और भेद-भाव का विक्षोभ भी इस सहृदय व्यक्ति को कचोटता रहता था जिसके कारण इनके कुछ गीतों में तीखे, धारदार और नुकीले व्यंग्य का भाव भी भरपूर है, फिर दोहे लिखने की झक सवार हुई तो उसमें भी वेदना, अकुलाहट और सामान्य पिसते लोगों के जीवन के क्षण-क्षण की कड़वाहट उभरी। ‘सबका अंतरिक्ष’ की रचनाओं में देखिए कवि का दर्द।

सीताकिशोर : जीवन और रचना की अंतरंगता


व्यक्ति के जीवन और उसकी रचना की ऐसी अन्तरंगता, ऐसी प्रतिबिम्बात्मकता कि एक से दूसरे के घर का पता ही नहीं, बल्कि पूरा परिचय ही मिल जाये सीताकिशोर की अपनी विशेषता है। जिस निरंकुश समय और समाज की जीवन-विरोधी स्थितियों से असहमत ही नहीं बल्कि उनके प्रतिपक्ष की भूमिका में खुद को ढालते-गढ़ते सीताकिशोर ने अनुभवों का व्यापक संसार देखा है उससे उपजी संवेदना और जीवन-दृष्टि ही मूल रूप से उनके लेखन की प्रतिबद्धता है। भोगा हुआ यथार्थ और प्रामाणिक अनुभूति की किसी वक्त निरर्थक हो गयी उक्तियाँ सीताकिशोर के बारे में बिलकुल सटीक हैं।

उनसे मिलकर, बोलकर उनके साथ बैठकर जितने सीताकिशोर से पहचान होती है वह अधिकांश जलमग्न हिमखण्ड का पानी से ऊपर दिखायी देता सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा है। बेहद विनम्र, शालीन, सरल और सहज, मित्रों और सुजनों के लिए छरर छर्र अरहर के दानों की तरह झर-झर पड़ता, बिछ-बिछ जाता, श्रृऋस्पदों के आशीष के लिए हमेशा नतशिर तथा जीवन और कला दोनों में प्रवेश निषेध की पट्टिकाओं वाले आभिजात्य की सारी अवधारणाओं और उसके आवरणों से दूर अपनी सहज बोली-बानी और संवेदना के साथ पूरे परिवेश में समाया हुआ व्यक्ति, उनका एक परिचय यह भी है। आज के बुजुर्ग सीताकिशोर का कैशोर्य गुजरी उम्र की बात नहीं है। वह उनमें अब भी उनके संग्रह की पाण्डुलिपियों की तरह सुरिक्षित है। कभी रोबहीन जिद के रूप में वह उदग्र होता है तो मनुहारों के लिए भी असाध्य हो जाता है, जिद चाहे अपने प्रति लापरवाही की हो या किसी सही धारणा की। यह कैशोर्य जब उमंग में आता है तो शरद की चाँदनी उफन कर दूध की धार बन जाती है और खीर के कटोरे में घुलकर उसे और मीठा कर देती है। कैशोर्य तो ठीक सीता किशोर का बचपन तक अपने हर्ष-विषाद के साथ उनमें उपस्थित है। वह प्रायः निष्कृति के निःश्वास के साथ ‘ओ मताई’ का उच्चारण करके ममता की गोद में चले जाते हैं।

आत्महीनता की हद तक पहुँची उनकी सहजता के प्रति कभी-कभी ईर्ष्या भरा शक होता है कि कहीं यह अभिनय तो नहीं पर जाँच-परख से पता चलता है कि अभिनय तो दूर यह व्यक्ति तो मंच पर ठीक से ‘एण्ट्री’ लेना भी नहीं जानता। पुती हुई परतों के आडम्बर से दूर सीताकिशोर जब पहली बार भी किसी से मिलते हैं तो उनके निजता की ऐसी लरज होती है जैसे मुद्दत से उसके साथ एक ही बखरी में रह रहे हों। आज जब आभार और कृतज्ञता तक के पास सधी-सधाई भाषा के औपचारिक अन्तर हैं तब कृतज्ञता और उपकार को भावना की अनिर्वचनीयता में महसूस करने वाला बोली का यह विमर्शकर्ता और भाषा की सामाजिकता का यह विशेषज्ञ निर्वाक हो जाता है, गाँव या कस्बे के ठीक उस सरल आदमी की तरह जिसके पास शिष्टाचार के लिए शब्द-कोश नहीं बल्कि अनुभवों की पूरी देह-भाषा होती है। इस सबके साथ ही सीताकिशोर में निर्भीक दृढ़ता, संघर्ष-क्षमता है और जीवट है। प्रचलित रास्तों के अभाव में या उनकी पट्टेदारी से असहमत होकर उन्होंने नयी राहें भी बनायी हैं।

जिस आंचलिक भूगोल और उसके समाजशास्त्र में सीताकिशोर का व्यक्तित्व और साहित्य विकसित हुआ है, उसमें चामिल, सिंध, पहूज के भरके, खार, कछार हैं, अगम जंगलों का विस्तार है, पहाड़ और पठार हैं, दूर-दूर तक पसरी निर्जनता है तथा हलकी, भुरभुरी, उपजा में कमजोर मिट्टी है। यह भूगोल जिनकी मर्जी से चलता है वे उसका समाजशास्त्र रचते हैं। पानीदार पानी के इस आँचल में घाटी के व्यवहार और भी कँटीले हो गये हैं। यहाँ सामन्ती परम्परा का उच्छृंखल आतंक है, बागी होकर भरकों में उतर जाना यहाँ वीरता और आन की बदली हुई परिभाषा है, विरासत में चलते हुए घातक प्रतिशोध है, जाति, वर्ग और उपवर्ग के विभाजनों में आदमी अनुपस्थित है, बंदूक की गोलियाँ यहाँ की वर्णामाला है जिसमें आतंक की इमला बोली जाती है, अपराध यहाँ की संस्कृति है, न्याय की किताबें यहाँ के पाठ्यक्रम में नहीं है, व्यवस्था स्वयं भयभीत करती है, ईमान और ज्ञान यहाँ से निर्वासित है, श्रम को यहाँ सजा मिलती है, भूख, शोषण, गरीबी यहाँ के सर्वहारा के मौलिक अधिकार है। अतः स्वाभाविक है कि बेहद भावुक और संवेदनशील रचनाकार के दायित्व के रूप में सीताकिशोर की कविता इस समाज के बनैले यथार्थ से सींगों के सामने से की गई मुठभेड़ है। यह यथार्थ इस अंचल का होते हुए भी व्यापक समाज का है। इस दृष्टि से सीताकिशोर के रचना-सरोकार व्यापक संदर्भ में प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। यह यथार्थ उनके सात सौ दोहों के संग्रह ‘पानी पानी दार है’ में पूरी प्रखरता के साथ व्यक्त हुआ है-


* का पानी में धुर गऔ, का माटी की भूल।
गुठली गाड़त आम की, जम जम कड़त बबूल।।
* कछु ऐसो जा भूमि के, पानी कौ परताप।
मिसरी घोरो बात में, भभका देत सराप।।
* गली गली मारी फिरत, मेहनत बनी मजूर।
विघनन से कहने परत, मालिक और हजूर।।
* क्वाँरी कल से अनमनी, चांमिल बदन मलीन।
कै गोदी सूनी भई, कै सेंदुर छविहीन।।
* अब तौ हम ईमान के, इतने हुए करीब।
बदनसीब थे शुरु से, अब हो गए गरीब।।
* जे भरका, बीहड़, नदी, जंगल खार कछार।
बागी की, अपराध की, संभावना अपार।।
* रूप रंग की अंग की, जगमगात जब जोत।
कै बागी कै पुलिस की, कै पटेल की होत।
* दौलत ने दिन दिन करे, कछु ऐसे दस्तूर।
सजा पसीना कौ मिली, बिलकुल बिना कसूर।।


सीता किशोर की कविता का सफर गीतों से शुरू हुआ। रंग, शिशु, नेपाली, रमाकान्त अवस्थी, रामावतार त्यागी, वीरेन्द्र मिश्र, मुमकुट बिहारी सरोज, आनन्द मिश्र, नीरज, सोम ठाकुर से जुड़ी गीत परम्परा ने उस समय के अधिकतर युवा कवियों को इस विद्या की ओर आकर्षित किया। जीवन के हर्ष विषाद, राग विराग, सरल सी दार्शनिकता और व्यक्तिपरत रोमानियत से चलता हुआ गीत धीरे-धीरे अपनी सीमाओं में यथार्थपरक होता गया। शिल्प में भी बदलाव दिखा, भाषा की प्रयुक्तियों के तेवर बदले और कथ्य में भी वह जीवन के अधिक निकट आया। गीत अब सिर्फ शिकवा नहीं रह गया बल्कि वह समीक्षा और चुनौती बनने लगा। यह उन कवियों में पूरा प्रभाव लेकर आया जो वैचारिक धरातल पर वंचित, शोषित और पीड़ित मनुष्य की पक्ष धतरता में खड़े होकर व्यवस्था और संस्थानों को हास्यास्पद सिद्ध कर उन्हें ललकार रहे थे। उनके लिये कविता बाहर से किया गया कला कर्म नहीं रही बल्कि दुष्यंत के शब्दों में वह सल्तनत के नाम बयान बन गयी। मुकुट बिहारी सरोज में इस तरह की सबसे अधिक तेजस्विता रही। सरोज जी अपने कथ्य, गीतों के पैटर्न और अदायगी के अभिनयात्मक ढंग के लिये सबसे अलग और व्यापक क्षेत्र में अनुकरणीय रहे हैं। सीताकिशोर सरोज जी के प्रति अपनी श्रद्धा और उनके स्नेह से उनके इतने निकट रहे है कि उनके गीतों में सरोज जी की प्रेरणा संस्कारों की तरह संक्रमित होती रही है। सीताकिशोर के गीत यों तो प्रेम पत्र कभी नहीं रहे पर उनमें आरम्भ में जो रोमानियत सी दिखाई देती है। वह भी गीत के विन्यास का रूप भर है। दरअसल वह जीवन के अनुभवों के बारे में सबसे किया गया संवाद है। उनमें बात को दो टूक कहने का साहस है। वह शब्दों को चुभलाते या चबाते नहीं न अमूर्तन की ओट में मुकर जाने की गुंजाइश बनाये रखते हैं।


* बूढ़े तो हो गए यही सब करते करते
कैसा बीज बो दिया,
अबकी पूरी फसल खराब हो गयी।
* फसलें ऐसी ललक कि जिसका मन गर्बीला,
फसलें ऐसी पुलक कि जिसका रूप सजीला,
इन पर तो आने वाले सपने निर्भर थे
तुमने तुच्छ स्वार्थ की खातिर
हर पत्ता कर दिया नशीला।


घुटने लगा सांस का भी दम पूरी हवा शराब हो गयी। सीताकिशोर की अभिव्यक्ति इतनी घरेलू, आत्मीय और अनौपचारिक है कि लगता ही नहीं कि कविता कब शुरू हुई और बातचीत कब ठहर गई।


* और बैठ लो घरी दो घरी बाद चले जाना
अनायास मिल गये न जी भर जाना पहचाना
तुम कुछ भी समझो मैं केवल तुम्हें सुनाने को लिखता हूँ।
* मैं बूढ़ी सी परम्परा की नींव हिलाने को फिरता हूँ।


अब इस गीत को क्या कहा जाये ? सीता किशोर जी अपने मोटे कांच वाले चश्मे को बदलने की बात कर रहे है या कविता लिख रहे हैं ?


* बहुत दिना है गये दुबारा जाँच करा लो,
फ्रेम बहुत अच्छा है, उसे बना रहने दो,
धुँधले से जो उतर चुके,
इन ग्लासों का तब्दील करा लो।
* ये तो एक व्यवस्था है जो हर कमजोर नजरकर लेती,
और लोकप्रिय मन भाये अच्छे भी लैंस बदल जाते हैं।
जोत हमारी सधे बढ़े बस कभी न आये,
असल चीज तो दृष्टि, पंथ तो मिल जाते है।


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