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इस दौर से कैसे गुजरे हैं हम

सीता किशोर

प्रकाशक : आराधना ब्रदर्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6457
आईएसबीएन :81-89076-04-3

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इस दौर से गुजरे हैं हम में जो कवितायें संकलित हैं, वे जिन्दगी के आस-पास की तलाश करती हैं, इन कविताओं में भूख है, पसीना है, मेहनत की पक्षधरता है.....

Is Daur Se Gujre Hai Hum - A hindi book by Sita Kishore

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


'इस दौर से गुजरे हैं हम' में जो कवितायें संकलित हैं, वे जिन्दगी के आस-पास की तलाश करती हैं, इन कविताओं में भूख है, पसीना है, मेहनत की पक्षधरता है और है चालाकियों के च्रक्रव्यूह में फंसा अभिमन्यु। ‘इलाके का सरस्वती कंठाभरण’, ‘सरपंच का बेटा’, ‘पटवारी’ व ‘जन्मभूमि’ रचानायें सोचने को विवश करती है। इन कविताओं की राह में होकर सीताकिशोर गुजरे हैं और गुजरते वक्त की पीड़ा भोगी है।

प्रकाशक

सब का सीताकिशोर

दतिया सेंवढ़ा सड़क से दूर, औलट बसे गांव-छोटा आलमपुर में एक सामान्य परिवार में सीताकिशोर पैदा हुए। एक बहन और तीन भाई, एक बड़े और एक भाई छोटा- ये बीच के मंझले। मंझले के प्रति आम धारणा ‘माल एडजेस्टमेन्ट’ की रहती है। बचपन में ही गांव के पेड़ से गिरकर हाथ तोड़ा, जिस पर गांव के किसी हड्डी-विशेषज्ञ ने ऐसी खपच्चियाँ बाँधी, कि ‘गेंग्रीन’ के कारण हाथ ही हटा देना पड़ा। पर पढ़ने की ललक वाला कायस्थ का बेटा दबोह के मिडिल स्कूल से मिडिल पास होकर प्राइमरी स्कूल का अध्यापक हो गया।

बिल्कुल विपरीत परिस्थितियों में जन्मा, बढ़ा और पूरी दृढ़ता से खड़ा हुआ, अपने आप में अलग-सा अद्भुत प्राणी, पर एक जुझारु व्यक्तित्व का धनी सीताकिशोर चार रोटी और एक कटोरी दाल-सब्जी के लिए रोटियों की गणित नहीं बना। यद्यपि इनके पिता रामभरोसे घर में सामन्ती शौकों का जाल फैला चुके थे, बड़े भाई उस जाल में फंसे निष्क्रिय हो चुके थे, धीरे-धीरे अस्सी-नब्बे बीघा जमीन बिला गई, घर में और पास पड़ोस में बड़ी बहन की शानदार शादी की चर्चा जब-तब हो उठती थी, सीताकिशोर ने जब घर सम्हालने का जिम्मा लिया, तब बहुत कुछ खो चुका था, घर में भाभी, बेफिक्र भाई और उनके बच्चे थे, छोटा भाई पढ़ रहा था सीताकिशोर बिना गृहणी के गृहस्थ बन गए औऱ आज तक बने हुए हैं, गांव के विवश होते लोगों की जमीनों को वक्र-दृष्टि से गुपक लेने वाले भेड़ियों के जबड़ों में समायी जमीन निकाली अपने दोनों भाइयों को समर्थ किसान बनाया और उनके बच्चों को पढ़ा-लिखा कर सशक्त किया।

बहुत कम लोग होते हैं, जिन्हें विरोध से शक्ति मिलती है, पर सीताकिशोर ने शक्ति और उर्जा दोनों प्राप्त की सीताकिशोर ने आस-पास के बारह गाँव के हम उम्र और छोटे बच्चों में पढ़ने की ललक जगाई, वे पढ़े और कुछ उनमें से अध्यापक बने और सीताकिशोर से उनकी घनिष्ठता बढ़ी इन गाँवों में होली के दिनों में फागों के फड़ कभी इस गाँव कभी दूसरे गाँव जमा करते थे, इन फड़ों में सक्रियता के कारण, हाथरस के मानस-शास्त्री के जब तब मानस प्रवचनों के आयोजनों से सीताकिशोर की लोक प्रियता पूरे क्षेत्र में जोड़-तोड़ करते रहने वालों की आँखों में खटकी।

बड़े सपने देखे बिना प्रगति के नये प्रतिमान नहीं बनते पर हमें सीताकिशोर के किसी सपने का आभास तक नहीं हुआ था। जो इन्हें, आलस्य और प्रमाद से शिथिल कर सके साहिर लुधियानवी कहते हैं, ‘कौन रोता है किसी और की खातिर’’ पर मैंने सीताकिशोर को वक्त-बे-वक्त, बैंक, डाकखाने की ओर जाते-आते देखा है। शादी-ब्याहों में भरपूर सहयोग करते पाया है, आफको शायद सुनकर आश्चर्य हो कि मैंने इस एक हाथ वाले को इधर उधर से आये दस-दस आदमियों को अपने हाथ से बनाकर छक कर के खिलाते देखा और उसके बाद अपने लिए कभी रोटी और अक्सर दाल, सब्जी माँग कर खाते पाया, सामाजिक सरोकारों में भागीदारी ऐसी, बिना किसी हड़बड़ी के बड़े-बड़े आयोजन आनन-फानन के सुघड़ ढंग से पूरे किए। डॉ. हरीश नवल ने सेंवढ़ा में अक्षर अनन्य महोत्सव पर बोलते हुए कहा कि ‘‘दिल्ली जैसे विशाल और सम्पन्न शहर में मैंने इस क्षमता और मेल-मिलाप के सफल आयोजन नहीं देखे जो यहाँ देख रहा हूँ। और आश्चर्य यह साधन हीनता के बाद पत्र-पाण्डुलिपियों के संग्रह और सर्वेक्षण के अन्य साध्य दो वाल्यूम इस सेंवढ़ा जैसी अजानी जगह में तैयार हुए जो हमारे कालेज और दिल्ली विश्वविद्यालय में सम्मान सहित संदर्भ-ग्रन्थों में शामिल हैं, दूसरा आश्चर्य कि यहाँ दो हजार वर्ग मीटर क्षेत्र में चार पी.एच.डी और कितने ही डी.लिट् रह रहे हैं आस-पास के शोद्यार्थी बिना सीताकिशोर के सम्पर्क और सन्निद्ध में रहे अपना शोध कार्य पूरा नहीं करते या कर नहीं पाते, ठीक भी है ‘मुश्किलें कब ठहरी, जब हो चट्टानी इरादा’ इन्होंने अन्य कार्यों की तरह शोध कार्य का क्षेत्र भी साथियों को देते हुए अपना नाम अन्त में रखा।

इस भूमि-पुत्र को अपनी जमीन से जुड़े रहने और अपने साथियों में विशिष्ट न दिखने में सुख मिलता है, इनकी बोली और वेश भूषा, चाहे कालेज में पढा़ई के दिन हों या अध्यापन के ऐसी ही बनी रही, कोई बदलाव नहीं आया। इनकी ग्रामीणता ने इनका साथ नहीं छोड़ा। शायद इसी लगाव के कारण दतिया जिले की बोली के सर्वनाम, अव्यय और कारक-चिह्नों के भाषा वैज्ञानिक अध्ययन को इन्होंने अपनी पी-एच.डी., का विषय बनाया और ग्वालियर संभाग की व्यवह्त बोली- रूपों पर डी.लिट् शोध प्रबंध लिखा, सामान्य बातचीत में तो होती ही है, पर लेखन और भाषण में भी बोली के शब्द बरवश उभर पड़ते हैं।

फड़ की फागों में सामने बैठी गा रही पार्टी के उठाये प्रश्नों का जवाब तो होता ही है, कुछ निरुत्तर कर देने वाले सवाल भी होते हैं, जिससे इनकी पार्टी सबल रहे। इसलिए दोनों ओर कम से कम एक-एक ऐसा आशु-कवि रहता है जो तत्काल रचना कर सके। लोक गीतों के रचयिता भी ऐसे ही आशुकवि होते हैं वे अपनी इन रचनाओं पर अपना कोई कापी राइट भी नहीं रखते। उनकी रचनाएं सब की होती हैं, लोक की होती हैं और लोक-कंठ ही उन्हें सुरक्षित रखता है। सीताकिशोर की काव्य यात्रा ऐसे ही लोक कवि के रूप में प्रारम्भ हुई, पर वहीं थमी नहीं रही। इन्होंने बड़े प्यारे गीत लिखे, जिनमें सभी रंग हैं और जिसने सुने उसने सराहे फागों का रचयिता फागुनी बयार से तो अपने को बचा ही नहीं सकता था। अतः गीतों में प्रेम की चिकनाहट तो थी ही पर सामाजिक सरोकारों के कारण शोषण, असामानता औऱ भेदभाव का विक्षोभ भी इस सह्दय व्यक्ति को कचोटता रहता था। जिसके कारण इनके कुछ गीतों में तीखे धारदार और नुकीले व्यंग्य का भाव भी भरपूर है, फिर दोहे लिखने की झक सवार हुई तो उसमें भी वेदना, अकुलाहट और सामान्य पिसतें लोगों के जीवन के क्षण-क्षण की कड़वाहट और उभरी देखिए कवि का दर्द-

मेहनत बैरागिन भई भओ ईमान फकीर।
रोटी रन-रन की भई, फूट गई तकदीर।।
मन मसोस रह जात जब भूखे पेट मजूर।
अपराधी आँखें बनत, जब-तब बिना कसूर।
निर्मलता में बोर कैं, आँसू की तस्वीर।
स्थापित श्रम नेकरी, अपनी घर में पीर।।

यह ‘घर में स्थापित अपनी पीर’ सीताकिशोर का स्थाई भाव सदैव रहा है। हमारे कुछ मित्रों को भारी कष्ट है कि एक समर्थ कवि, जिसने मंच के कवियों में न केवल जगह बनाई बल्कि मंच के मान्य और लब्ध प्रतिष्ठ कवियों में समाहित था आपके संपर्क में शुष्क भाषा विज्ञान के क्षेत्र में पैठ गया। पर कवि की सहृदयता और सामाजिक पीड़ा का अहसास उसका साथ कभी नहीं छोड़ने वाला।
दैनिक समाचार पत्र कॉलम राइटिंग में इन्होंने ‘सूत्र सरोज के’ टीका सीताकिशोर की, तथा रहीम के दोहे, व्याख्या सीताकिशोर की लिखकर गद्य-लेखन में अपनी क्षमता दिखाई और जब सामान्य से जुड़े और उसके सुख-दुख का अहसास लिए सरोज और ‘रहीम’ सीताकिशोर को रुचिकर और विचारणीय लगे। ‘पानी पानीदार है’ के अधिकतम दोहों का कथ्य इसी अहसास का प्रकटीकरण है, चंबल और ग्वालियर संभाग का मुख्य रूप में ग्रामीण क्षेत्र डाकू समस्या से ग्रसित है सम्पन्न और विपन्न दोनों समुदायों के कुछ चतुर-चालाक दलाल जैसी वृत्ति वाले लोगों को छोड़कर शेष अधिकांशतः डाकू और पुलिस के दो पाटों के बीच पिसने को विवश हैं।
देखिए-


जाल बिछो जंजाल कौ, गांव-गांव धर-कोर।
नियम और कानून की धर दई घिचीमरोर।।
बागी हैं, बंदूक है, बोली है, है ज्ञान।
हवा रोज पूंछत फिरत, कितै गयो ईमान।।
स्वारथ से ईमान ने करके कही प्रणाम।
बने विभीषण तुम रहो, हमें न होने राम।।


इस डाकू समस्या का हर पहलू और हर अध्याय इन्होंने देखा-परखा है। घर में जवान होती बिटिया, होने वाली शादी ब्याह या औसर-काज होने के पूर्व की आशंकाएं और भय दोहों में मुखर है। स्त्री, गरीब, पुलिस और पटैल-सब की मानसिकता को उजागर करते हुए दोहे रचे गये हैं। स्त्री और गरीब की तार-तार होती जिन्दगी का वर्णन बड़े मार्मिक और चुटीले शब्दों में लिखा है। इस तरह सात सौ से अधिक दोहों में इस क्षेत्र का दुख दर्द मुखरित हुआ है। ‘न दैन्यं न पलायनम’ की भावना से जीने वाले और अपनी परिस्थितियों से दमभर जूझते हुए अपने-अपने आस-पास को उन्नति के पथ पर अग्रसर करने वाले सीताकिशोर अपने सक्रिय जीवन को स्वस्थ रहकर गति देते रहें- ऐसी भावना के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूं।


-जोश और जोखिम किए जब जिन्दगी के नाम,
तूफानी लहरें भी कर गयीं झुक कर सलाम।


"इस दौर से भी गुजरे हैं हम" में कवितायें संकलित हैं, वे जिन्दगी के आस-पास की तलाश करती हैं, इन कविताओं में भूख है, पसीना है, मेहनत की पक्ष धरता है और है चालाकियों के चक्रव्यूह में फंसा अभिमन्यु। ‘इलाके का सरस्वती कंठाभरण’ ‘सरपंच का बेटा’ ‘पटवारी’ ‘जन्मभूमि रचनायें सोचने को विवश करती हैं। इन कविताओं की राह में होकर सीताकिशोर गुजरा है और गुजरते वक्त की पीड़ा उसने भोगी है।
-65, हाउसिंग बोर्ड कालोनी
दतिया (म.प्र.)


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