लोगों की राय

भाषा एवं साहित्य >> हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में नारी

हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में नारी

हरिशंकर शर्मा

प्रकाशक : आराधना ब्रदर्स प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6459
आईएसबीएन :0000000000

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

143 पाठक हैं

शोध-कर्ता ने हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में चित्रित नारी-पात्रो का विस्तृत और पूर्ण अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।

Hazari Prasad Dwivedi Ke Upanyason Mein Nari - A hindi book by Harishankar Sharma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शोध-कर्ता ने हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में चित्रित नारी-पात्रों का विस्तृत और पूर्ण अध्ययन प्रस्तुत किया है। शोध प्रबन्ध मौलिक और महत्वपूर्ण है।
शोध-प्रबन्ध निश्चय ही एक मौलिक कृति है। शोध-कर्ता की भाषा प्रौढ़ और परिमार्जित है। उसे साहित्यिक मूल्यांकन की अच्छी समझ है। प्रबन्ध पूर्णतः विवेक-सम्मत एवं वैज्ञानिक है।

डॉ. दयाशंकर शुक्ल


जिसके अंचल की छाया में,
बना बज्र जैसा, कोमल तन।
कर जिसका पयपान हो गया,
पंचानन-सा निडर, हरिण मन।।
जिसकी गरिमा का, महिमा का,
रोम-रोम करता नित अर्चन।
जननि जसोदा जी को मेरा,
यह लघु ग्रन्थ-समर्पण।।


हरिशंकर शर्मा

उपोद्घात


प्रस्तुत प्रबन्ध का मूल विषय है, जो एक सार्वभौम और सार्वकालिक सामाजिक समस्या से सम्बद्ध है। नारी-समस्या समाज की वह जीवन समस्या है, जो परिवार-परिवेश, ग्राम-नगर सर्वत्र उपस्थित है। यह ऐसा ज्वलन्त प्रश्न है, जो प्रत्येक विचार-शील व्यक्ति को चिंतन करने के लिए विवश करता है। मेरा भी मन सदैव स्त्री-पुरुष-वैषम्य पर सोचता-विचारता रहा है। परिवार में ममतामयी जननी की स्वत्व-शून्यता, हम पुत्र-पुत्रियों की मिठाइयों, खिलौनों, वस्त्रादि की हठीली मांग की पूर्ति करने की उनकी अक्षम आकांक्षा, पितृ-तंत्र के समक्ष सिसकती शिशु-मनुहारें और मां की पंगु अनुनय आदि भाव बाल-मन में सुप्त रूप में पड़े रहे।

किशोर वय में परिवार-परिवेश में व्याप्त पुत्र-पुत्रियों के प्रति पक्षपात-पूर्ण व्यवहार के दृश्य उन सुप्त भावों को जगाने लगे। वयस्क होकर देखा कि रूढ़िग्रस्त और आडम्बर-युक्त समाज में पुरुष-स्त्री के यौन-अपराध के प्रति नारी दोष की पात्र और पुरुष दोष-मुक्त है। नारी को अपने विशिष्ट विग्रह के कारण, निरपराध होने पर भी कलंक ढोना पड़ता है। अनेक बार नारी को पुरुष की पशुता का शिकार होकर लांछनायें सहनी पड़ती हैं जिसका एक ही उपाय उस अबला के पास होता है- आत्मघात। वह या तो अवमानना लांछना, अनुताप की आग में आजीवन जले या आत्महत्या करे और प्राण-त्याग के बाद भी नाम के साथ कलंक छोड़ कर जाये।

शिक्षक के रूप में इस स्त्री-पुरुष भेद के स्तर को और भी निकट से देखने का अवसर मिला। कक्षाओं में मंद-बुद्धि अ-शिक्षा-कामी लड़कों की भीड़ और उनको एन-केन परीक्षा की बैतरिणी पार कराने का, उनके संरक्षकों का दुराग्रह तथा मेधाविनि और जिज्ञासु लड़कियों को शिक्षा का क्रम भंग, उनके पिता श्री की उनकी शिक्षा के प्रति उदासीनता आदि स्थितियों ने इस समस्या के विषय में सोचने को विवश किया।

शरदचन्द्र, प्रेमचन्द, प्रसाद आदि लेखकों की कथाकृतियों के अध्ययन-अध्यापन से नारी के प्रति करुणा और सहानुभूति के भावों ने पोषण पाया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का उपन्यास ‘बाण भट्ट की आत्मकथा’ को पढ़ा तो इसकी नारियों-भट्टिनी, निपणिका, महामाया, सुचरिता ने चित्त को आलोकित कर दिया, जिज्ञासा बढ़ी और उनकी चारु ‘चन्द्रलेखा’ ‘पुनर्नवा’ रचनाओं को पढ़ा गया। बाद की रचना ‘अनामदास का पोथा’ हृदय को नारी के प्रति श्रद्धा-पूरित कर गया। इन्हीं सब स्थितियों ने प्रस्तुत विषय पर कुछ सोचने-लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया।

नारी सृष्टि की सुन्दरतम वस्तु है। उसका रूप ही उसकी श्रेष्ठता को सिद्ध करने में पूर्ण समर्थ है फिर उसका आत्मगौरव, अकुण्ठ-सेवा और त्याग-वृत्ति उसे और भी महिमामयी बनाते हैं। उनकी मोहन छवि ने पुरुष चित्त को सदैव लुभाया है और उनकी सेवा-त्याग-वृत्ति ने अभिभूत किया है। भारतीय वाङ्मय में नारी-महिमा का गान हुआ ही है, भौतिकवादी सभ्यता का साहित्यकार भी उसके संग को प्रिय मानता है। गेटे का कथन है-


Society of women is foundation of good manners.


लावेल की चिन्तनधारा गेटे से भी आगे जाती है वे लिखते हैं-


Earth's noblest thing is a women perfact.


‘नारी’ विषय पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में अनेक शोध-प्रबन्ध स्वीकृत हो चुके हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पर भी अनेक समीक्षा-ग्रन्थ उपलब्ध हैं। उनके उपन्यासों पर छात्रोपयोगी आलोचनात्मक पुस्तकें बहुत लिखी जा चुकी हैं। इस प्रकार आचार्य द्विवेदी पर, अनेक उपन्यासों पर तथा नारी विषय पर कार्य हुआ है। किन्तु प्रस्तुत विषय पर मैंने एकत्र कार्य किया है। इस विषय से सम्बन्धित कुछ पुस्तकें जो मेरी दृष्टि में आईं उनकी संक्षिप्त चर्चा करना यहां आवश्यक है—

1. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत शोध-प्रबन्ध-हिन्दी उपन्यासों में नारी’ लेखक डॉ. शैल रस्तोगी, विश्वभूषण प्रकाशन साहिबाबाद से सन् 1977 में प्रकाशित हुई है। इसमें विभिन्न उपन्यासकारों की नारी-विषयक दृष्टि का उल्लेख है। इस शोध-प्रबन्ध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के लेखक को दो पृष्ठ प्राप्त हुए हैं। इसमें केवल उनके प्रथम उपन्यास बाण भट्ट की आत्मकथा की ही संक्षिप्त चर्चा हुई है। भट्टिनी और निपुणिका के रोमांस को प्रसाद की इरावती तथा वर्मा जी की कुमुद और गोरी की समानता के स्तर पर रखा है।

2. डा. यदुनाथ चौबे की पुस्तक- ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का समग्र साहित्य : एक अनुशीलन’ अनुभव प्रकाश कानपुर से मई 1980 में प्रकाशित हुई। यह पुस्तक बम्बई विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत शोध-प्रबन्ध का परिष्कृत रूप है। यह रचना चौबे जी का सराहनीय प्रयत्न है। परन्तु द्विवेदी जी के विविध एवं विपुल साहित्य को समेट पाना इस लघु-कलेवर कृति की सामर्थ्य के बाहर की बात हो गयी है। पुस्तक में लेखक की सार ग्राहणी प्रतिभा के दर्शन तो होते हैं किन्तु विषय-विश्लेषण के लिए कुछ और विस्तार वांछनीय था।

3. सन् 1983 में डा. उमा मिश्रा का हजारी प्रसाद द्विवेदी का उपन्यास-साहित्य : एक अनुशीलन शोध-प्रबन्ध अन्नपूर्णा प्रकाशन कानपुर से प्रकाशित हुआ। इस प्रबन्ध में आचार्य द्विवेदी के चारों उपन्यासों के तथ्यकथ्य को विवेचित किया गया है। इसमें नारी-पात्रों का सामान्य परिचय तो उपलब्ध है किन्तु नारी-चरित्र इसमें विश्लेषित नहीं हो पाया है। इस प्रकार आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों में नारी-पात्रों को स्वतन्त्र रूप से निरखने-परखने की आवश्यकता का अनुभव करके मैंने प्रस्तुत विषय को शोध हेतु चुना है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का व्यक्तित्व विशिष्ट है। वे भारतीयता का मूर्तिमन्त रूप हैं। वे संस्कृत, हिन्दी, धर्म, दर्शन, ज्योतिष, इतिहासादि विषयों की अथॉरिटी है। उनकी रचनाओं को पढ़ते, सोचते, लिखते समय उनके महान व्यक्तित्व से अप्रभावित बना रहना कठिन कार्य है। मैं प्रभावित भले ही हुआ होऊँ किन्तु अभिभूत होने से मैंने स्वयं को बचाया है, मैंने तटस्थ बने रहने का प्रयास किया है।

प्रस्तुत प्रबन्ध का प्रथम अध्याय द्विवेदी जी के व्यक्तित्व से सम्बन्धित है और द्वितीय अध्याय में उनके कृतित्व का विवरण है तृतीय अध्याय उपन्यासों के नारी-पात्रों का सामान्य परिचय से सम्बन्ध रखता है। चालीस से अधिक पात्रों का परिचय अपने में समेटने के कारण यह अध्याय अपेक्षाकृत कुछ विस्तार पा गया है। अध्याय चार में नायिका-प्रतिनायिका पर विचार किया गया है। पाँचवा अध्याय नारी के पारिवारिक रूपों के विश्लेषण से जुड़ा है तो अध्याय छै में उसके परिवारेतर स्वरूपों की चर्चा हुई है। अध्याय सात लेखक द्वारा नारी के रूप-निरूपण की विशिष्ट शैली से सम्बद्ध अध्याय विषय के उपसंहार का है। इस अध्याय में शोध की आवश्यकता उपयोगिता पर विचार प्रस्तुत किये गये हैं।

विषय-सामग्री जुटाने, उसे विश्लेषित करने और उसके लेखन के लिये चार वर्ष का समय कम नहीं था किन्तु पारिवारिक व्यस्तताओं एवं कुछ अन्य कठिनाइयों ने कार्य में व्यवधान भी उपस्थिति किये हैं। इसी कारण मैं इस कार्य को छै वर्षों में पूर्णता दे सका हूँ। शोध-कार्य के सम्पन्न होने में मेरे अनेक मित्रों ने प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग किया है और उन सब सहयोगियों के प्रति मैं आभार विनत हूँ। इन आभार-पात्रों में प्रथम नाम डॉ. सीताकिशोर खरे का है जिन्होंने सिनॉप्सिस तैयार कराके इस कार्य की नींव रखी। डा. श्याम बिहारी श्रीवास्तव से कार्य-विधि सम्बन्धी सुझाव यदा-कदा मिलते रहे हैं। प्रो. गोबिन्द नारायण दीक्षित समय-समय पर स्मरण कराके मेरे आलस्य को भगाते रहे हैं। प्रो. आशाराम शर्मा ने भी मुझे गतिशील बनाये रखा। पूर्व-प्राचार्य श्री राम किशोर ढेंगुला का भी मैं आभारी हूँ जिन्होंने शोध कार्य करने हेतु विभागीय अनुमति देकर कार्य को वैध बनाया। मार्ग दर्शक डा. हरिहर गोस्वामी के मधुर व्यवहार, मृदुल निर्देशन और प्रभावी प्रोत्साहन के विषय में कुछ भी लिखने में संकोच का अनुभव करता हूँ। अन्त में गुरुजनों के आशीर्वाद तथा शिक्षक साथियों, मित्रों हितैषियों की शुभ कामनाओं का सम्बल पाकर ही मैं कार्य-सिद्धि की सामर्थ्य पा सका हूँ। अतः इन सबके प्रति भी मैं अति आभारी हूं।


हरि शंकर शर्मा


...Prev |

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book