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विविध उपन्यास >> नमो अन्धकारं

नमो अन्धकारं

दूधनाथ सिंह

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :116
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6470
आईएसबीएन :9788171193912

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नमो अन्धकारं...

Namo Andhakaram - Doodhnath Singh

गुरू का पैसार बहुत बड़ा है। वाणी में अद्भुत शक्ति है। अफ़वाहों का अतुल भंडार है गुरू के पास। कनफूँकों की कमी नहीं है। अगर गुरू को पता चल गया बेटा, कि तुम फरजी बनने के फेर में गुरू से ही ऐंड़ ले रहे हो तो समझ लो, ऐसी लँगड़ी लगेगी कि हमेशा के लिए गुड़ुम्।

कहीं कोई है, कोई है जिसका पता नहीं। जिसका तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा। चौबीसों घंटे पहरा देते रहो-तब भी नहीं। वह दिन और रात के समय के बाहर के समय में कहीं स्थित है। वहाँ तुम नहीं पहुँच सकते। वहाँ के दोनों निश्चिन्त-निरावृत्त विहार करते हैं। और तुम पर हँसते हैं। वह हँसी तुम्हें कभी सुनाई नहीं देगी। खोजते रहो जीवन-भर–उस अलक्ष्य-निराकार के पीछे पड़े रहो। ठेंगा दिखाता हुआ वह तुम्हारे सामने से गुज़र जाएगा और तुम्हारा जीवन इसी में चुक जाएगा।

गड़बड़ है। बहुत गड़बड़ है। कुछ भी हो सकता है। तुम पर कोई भी इल्ज़ाम आ सकता है। किसी पर भी। नहीं, संग-साथ ठीक नहीं। दरअसल, दुनिया एक हिलता हुआ पर्दा है। तुम देख सकते हो कि मुर्दे की बगल में कोई संभोग-रत है। या तुम यही कहोगे कि पर्दा हिल रहा है। अनरीयल-तुम चिल्लाओगे।

जैसे नक्काशीदार सोने के गहने पिघलाने के बाद एकसार हो जाते हैं। सिर्फ़ स्वर्ण-द्रव बच रहता है-अपनी सुनहली आभा में झिलमिल-झिलमिल करता हुआ, वही हाल प्रेम में लड़की का होता है। और शैव्या भी वही रह गई-अपनी नक्काशी के पास एक झिलमिल-सी आभा। कुछ भी जुड़ा नहीं उसमें, बल्कि प्रेम ने उसे विनष्ट कर दिया। पहले वह क्या थी और अब क्या है ! छुएँ तो बचपन हाथ नहीं लगेगा। एक बार नक्काशी खंड-खंड हुई तो फिर वापस नहीं आने की।



हमारे गुरू थोड़े मेहरे हैं। ‘प्रेमांशु’ (गुरू-गृह का नाम) के पेट खुलें और गुरू गंजी-पाजामे में हों तो आप लख सकते हैं। गुरू तखत से उठकर खड़े हो जाते हैं। अक्सर दोनों हाथ कमर पर रख लेते हैं, जैसे कंटाइन औरतें झोंटा-झोंटी के पहले रखती हैं। इस मोहिनी रूप में उनकी धजा देखते ही बनती है। मन्द-मन्द मुस्की में पतले और कामुक होंठ जरा चियरे हुए। वे तोड़ने वाली भेदक निगाहों से देखेंगे और खलीफ़ा (गुरू का बाल नौकर) को आवाज़ लगाते हुए अन्दर के कमरे की ओर बढ़ जाएँगे। तब आप उन्हें पीछे से गौर करिए। नितम्ब थोड़े भारी और चकमक-चकमक थिरकते। हरीश और मैं अगर होते हैं तो हरीश एक बार उनके नितम्बों की ओर देखता है और फिर मुझे। फिर वह फिस्-फिस् करके हँसता है।

‘वाक़ई।’ वह बोलता है। और फिर हम ठहाके लगाकर हँस पड़ते हैं।
‘क्यों हँस रहे हो ?’ गुरू लौटते हुए पूछते हैं।
‘गुरू, जरा पीछे घूमिए तो।’ हरीश कहता है।
‘क्यों ?’
‘घूमिए तो।’
गुरू पीछे घूम जाते हैं लेकिन गर्दन मोड़कर अपने पिछवाड़े निहारते हैं।
‘एकदम सही।’ हरीश बोलता है और हँसता हुआ सोफ़े में धँस जाता है।

‘गुरू को अगर पता चला तो ‘मठ’ से निकाल दिये जाओगे।’ हरीश कहता है। हम ‘ठीहे’ (कॉफ़ी-हाउस) पर आ बैठे हैं।’
‘मैं गुरू का खास जोगी हूँ।’ मैं कहता हूँ।

‘तुम्हारे जैसे कितनों को यही भरम है। इसी भरम में कितने ठिकाने लग चुके। गुरू बख़श्ते नहीं। कोई बंडल बाँधता मरेगा; कोई भरे प्लेटफ़ार्म पर पद्मासन लगाए बैठा है; किसी की भिनास हर तीसरे रोज़ फूटती है; कोई गली में लुढ़का है तो कोई हौली की खिड़की पर ऊँघ रहा है; किसी को लिवर-सिरोसिस, तो कोई राशन की लाइन में। और गुरू थिरकते हुए जस-के-तस। इसीलिए कहता हूँ, बहुत गुमान मत करो।’ हरीश मुझे समझाता है।
‘गुरू अर्द्धनारीश्वर हैं।’ मैं हरीश की बातों की अनसुनी करते हुए कहता हूँ।
‘मतलब ?’ हरीश चौंकता है।
‘मर्द के साथ-साथ औरत का मज़ा भी।’
‘तुम साले...!’ हरीश हँसता है।
‘क्या खूबसूरत कल्पना है हमारे ऋषियों की !’ मैं कहता हूँ।
‘डबल-सेक्स !’ हरीश और ज़ोर से हँसता है।
‘कल्पना करो, जब गुरू सेज पर लजाते होंगे।’
‘और गुरू जब बीच वाली उँगली टेढ़ी करके चिनचिनाते हैं तब ?’ हरीश कहता है।
हम दोनों ठनठना कर हँसते हैं।

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