बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अवसर राम कथा - अवसरनरेन्द्र कोहली
|
4 पाठकों को प्रिय 213 पाठक हैं |
राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान
सीता का ध्यान, न राम की भाव-शून्य आकृति की ओर था, न उनके मस्तिष्क में विपरीत दिशाओं में बहने वाले परस्पर टकराते हुए झंझावातों की ओर। वह अपने उल्लास की लहर में बहती हुई बोलीं, ''मैंने मां को समाचार दिया। प्रसन्नता के मारे उनकी जो स्थिति हुई, उसके विषय में आपको क्या बताऊं! पहले तो खड़ी-खड़ी देखती रहीं। फिर बढ़कर, मुझे वक्ष से लगा लिया। भींच-भींचकर प्यार करती रहीं; और अन्त में मेरे कंधे पर सिर रखकर रो पड़ीं। बोलीं 'सारा जीवन मैंने इसी अवसर की प्रतीक्षा की है बहू! जानती थी सम्राट् की ज्येष्ठ पत्नी होने के नाते मैं साम्राज्ञी हूँ, मेरा पुत्र सम्राट् का ज्येष्ठ पुत्र है; राम योग्य, वीर, कर्त्तव्यपरायण और लोकप्रिय है। फिर भी, आज तक स्वयं मुझे कभी यह विश्वास नहीं हुआ कि किसी दिन मेरा राम सचमुच युवराज बनेगा। यदि मैं बताऊं कि इस राजप्रासाद में किस-किस प्रकार मेरा अपमान और उपेक्षा हुई हैं, तो कोई मेरा विश्वास नहीं करेगा।...किंतु आज मैं कितनी प्रसन्न हूँ। मेरा राम युवराज होगा, मेरे सारे दुःख दूर हो जाएंगे। मेरी बहू इस कुल में वैसी उपेक्षित नहीं रहेगी जैसी मैं रही। मेरे पोते वैसे निराश्रित नहीं होंगे जैसा अपने शैशव में मेरा राम हुआ...।' मैं कैसे बताऊं राम! कि कितनी प्रसन्न थीं मां। उन्होंने तुरन्त माता सुमित्रा और देवर लक्ष्मण को समाचार भिजवाया। वे सब लोग अत्यन्त प्रसन्न थे। मां, भगवान से निरन्तर प्रार्थना कर रही हैं कि वह उनके पुत्र का युवराज्याभिषेक सकुशल करवा दें, ताकि इस राजप्रासाद में युधाजित का आतंक समाप्त हो। मां रात-भर निराहार साधना करेंगी। उन्होंने मुझे भी प्रातः तक उपवास करने को कहा है। उनके मन में अब भी अनेक आशंकाएं हैं।''
सीता अपनी बात कह चुकीं। राम तब भी कुछ नहीं बोले।
''क्या बात है, आप अतिरिक्त रूप से मौन हैं।''
''मुझे लगता है सीते!'' राम मन्द स्वर में बोले, ''इस कुटुम्ब में अनेक संदेह, शंकाएं, आशंकाएं, विरोध, द्वन्द्व, ईर्ष्याएं, स्वार्थ, द्वेष और जाने क्या-क्या विषैले जीव-जंतुओं के समान मौन सो रहे थे। आज मेरे युवराज्याभिषेक की चर्चा से, वे सारे जीव-जन्तु जाग उठे हैं। परस्पर लड़ेंगे। इस राज-प्रासाद में बहुत कुछ विषैला हो जाएगा। इधर मां के मन में आशंकाएं हैं; उधर पिताजी के मन में। और मैं कैसे कह दूं सीते! कि मेरे मन में कोई आशंका नहीं है!''
परिचारिका प्रकट हुई, ''पूज्य सुमंत, राजकुमार के दर्शनार्थ उपस्थित हैं।'' राम चौंके। सुमंत के आने का अर्थ है सम्राट् का असाधारण बुलावा, पर अभी तो सम्राट् से मिलकर आए हैं।
सीता का चेहरा भी कांतिहीन हो उठा। सुमंत क्यों आए हैं? क्या कहलवाया है सम्राट् ने...
''हां राम!'' सुमंत ने अभिवादन किया, ''सम्राट् ने मुझे आदेश दिया है कि मैं आपको यथाशीघ्र उनके समीप ले चलूं। मैं रथ लेकर आया हूँ।''
राम ने एक अर्थपूर्ण दृष्टि सीता पर डाली। सीता स्तंभित खड़ी थीं।
सम्राट् ने राम को अपने महल में बुलाया था।
सुमंत द्वार पर ही रुक गए, और राम ने भीतर जाकर पिता को प्रणाम किया। इस बार दशरथ उन्हें उतने हारे हुए नहीं लगे। थोड़ी
देर पूर्व, सभा-भवन में देखे गए, और अब उनके सम्मुख बैठे सम्राट् में पर्याप्त अन्तर था; किंतु पूरी तरह स्वस्थ वह अब भी नहीं लग रहे थे। दशरथ ने राम को अपने समीप रखे गए मंच पर बैठने का संकेत किया।
''तुम्हें आश्चर्य होगा राम! कि मैंने तुम्हें इतनी जल्दी पुनः क्यों बुला लिया! आश्चर्य की बात तो है, किंतु इस समय मैं आपे में नहीं हूँ! मैं कितना भी प्रयत्न करूं, अपने मन की उथल-पुथल तुम्हें नहीं दिखा सकता। अपने जीवन में दुर्बलताओं के हाथों बंधकर, मैंने अनेक अन्यायपूर्ण कार्य किए हैं। पर अब मैं नहीं चाहता कि किसी भी दबाव में, तुम्हारे स्थान पर किसी और को युवराज पद दूं। कल तुम्हारा युवराज्याभिषेक होना आवश्यक है। मैंने थोड़ी देर पूर्व तुम्हें प्रश्न पूछने से मना किया था। प्रश्न अब भी मत पूछना पुत्र! पर मेरी बात मानो। गुरु वसिष्ठ तथा अपनी माता के कहे अनुसार, आज रात धार्मिक आचरण तो करो ही; किन्तु राम! साथ ही आज रात अपनी रक्षा के प्रति असावधान मत रहना। मैं चाहता हूँ तुम्हारे सुहृद, तुम्हारे शुभाकांक्षी, तुम्हारे प्रिय लोग, आज रात जगकर तुम्हारी रक्षा करें, या तुम्हें घेरकर सोएं।''
|