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राम कथा - अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6496
आईएसबीएन :81-216-0760-4

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान

सीता मुसकराईं, ''मुझे कहने की आवश्यकता नहीं है। आदेशों से पति-पत्नी के संबंध बदल नहीं जाते।'' सहसा स्वर विस्मय से भर उठा, ''कहीं आप अकेले जाने की बात तो नहीं सोच रहे?''

राम का विषाद धुल गया। सीता के व्यवहार ने उनका आत्मविश्वास लौटा दिया था। मां के रोने ने उन्हें विह्वल कर दिया था; सीता के व्यवहार से वे फिर स्थिर हो गए। हँसकर बोले, ''नहीं सारा कुटुंब साथ चलेगा। आदेश मुझे मिला है तो मैं ही जाऊंगा।''

राम ने प्रातः से अब तक की घटनाएं विस्तार से सीता को सुनाईं।

सीता ध्यान से सुनती रहीं; किंतु सुन लेने के पश्चात् भी उनका निर्णय नहीं बदला, ''मैं कैसे मान लूं कि पति-पत्नी में भी आदेश केवल एक व्यक्ति को दिया जा सकता है। किसी कारण से कभी मुझे भी ऐसा ही कोई आदेश मिले, तो क्या आप मुझे, अकेली को वन भेजकर स्वयं राजप्रासाद में रह जाएंगे?''

''तुम्हारी बात भिन्न है। तुम स्त्री हो।...''

सीता ने राम की बात बीच में काट दी, ''हमारा समाज यह भेद करता है, पर आप स्त्री-पुरुष के अधिकारों की समानता के समर्थक हैं राम। आप कैसे कह सकते हैं कि आपका मेरे प्रति जो कर्त्तव्य है, वही मेरा आपके प्रति नहीं है?''

''ठीक है। तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध तुम्हें अयोध्या में छोड़कर नहीं जाऊंगा; पर कुछ बातें विचारणीय हैं। मां को बड़ी दुखी मनः स्थिति में छोड़कर जा रहा हूँ। पति-पत्नी एकरूप हैं इसलिए एक ही समय में दो कार्य करने के लिए विभक्त हो जाते हैं। मेरी अनुपस्थिति में, मेरे स्थान पर, मेरी मां की देखभाल करो।''

''बहुत बढ़िया!'' सीता के अधरों पर एक तीखी मुस्कान थी, ''विवाह के पश्चात के इन चार वर्षों में कुछ वृद्धाओं और सारी प्रजा द्वारा लगाए गए बंध्या होने के आरोप को इसीलिए तो झेलती रही हूँ कि आप कर्त्तव्य की पुकार पर बन जाएं, तो मैं सोलहों श्रृंगार किए, मणि-माणिक्य के आभूषण पहने सेवक-सेविकाओं तथा परिजनों से घिरी, माता कौसल्या की सेवा का नाटक करने के लिए, पीछे रह जाऊं। आप दिन-दिन भर बाहर जनता के कार्यों में व्यस्त रहे, और पीछे मैं यह सोच-सोचकर तृप्त होती रही कि मेरे पति आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी नहीं हैं। उनमें परदुख-कातरता है। मैं अपने भीतर दमित ऊर्जा को सड़ते देखती रही और आपसे कहती रही कि मुझे अधिक कार्य मिले, जिससे मेरा अस्तित्व भी सार्थक हो सके। आपने सदा यही कहा कि अभी अवसर नहीं आया।...और आज, जब अवसर आया है कि मैं आपके साथ दंडक वन जाऊं; पीड़ित तथा त्रस्त जन-सामान्य के सीधे संपर्क में आऊं; उनके लिए कुछ कर, अपने अस्तित्व को उपयोगी बनाऊं, तो आप मातृ-भक्ति, सास की सेवा के झूठे बहाने की आड़ में मुझे सड़ने-गलने के लिए यहां छोड़ जाना चाहते हैं। इससे तो कहीं अच्छा होता, मैं माता कौसल्या की बात मान, उनकी गोद में पौत्र डाल उनके मन को सन्तोष देती।''

''सीते!'' राम ने अनुराग-भरी दृष्टि से सीता को निहारा, ''मुझे गलत मत समझो। अयोध्या में नागरिक सुविधाओं और सुरक्षा के वातावरण में रहकर, जन-कल्याण का कार्य करना और बात है; राक्षसों, दस्युओं, हिंस्र पशुओं से भरे उस बीहड़ वन में समय बिताना और बात है। क्या तुम्हारे लिए वनवास सुविधाजनक होगा?''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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