लोगों की राय

बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अवसर

राम कथा - अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6496
आईएसबीएन :81-216-0760-4

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

213 पाठक हैं

राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान

ब्रह्मचारियों ने उनकी अगवानी की। उनके पीछे-पीछे सब लोग ऋषि की कुटिया के द्वार पर आए। राम एक बार फिर जैसे असमंजस में पड़ गए : इतने सारे शस्त्रों का वे क्या करें?

तभी कुटिया के भीतर से ऋषि का स्वर सुनाई पड़ा, ''वत्स! भीतर आ जाओ। इन शस्त्रों को भी साथ ले आओ।''

राम ने कुटिया में प्रवेश किया। उनके पीछे सीता तथा लक्ष्मण आए, और अन्त में भारद्वाज शिष्यों ने प्रवेश किया।

''अपना सामान उस कोने में रख दो राम!''

सारे शस्त्र, कुटिया के कोने में व्यवस्थापूर्वक रख दिए। ऋषि ने आँखें भरकर शस्त्रास्त्रों को देखा, और मुड़कर पूछा, ''कैसे हो पुत्र!''

''आपकी कृपा है ऋषिवर!''

राम ऋषि के सम्मुख पालथी मारकर बैठ गए। उनकी बाईं ओर

सीता बैठीं, दाई ओर लक्ष्मण! दूसरी पंक्ति में भारद्वाज शिष्य बैठ गए।

आश्रम के ब्रह्मचारी बड़े आश्चर्य से उन शस्त्रास्त्रों को देख रहे थे; जैसे या तो पहले कभी उन्होंने इतने सारे शस्त्र न देखे हों, अथवा राम की इस सशस्त्र यात्रा का प्रयोजन उनकी समझ में न आया हो।

राम ने बात आरंभ की, ''आपको हमारे आने की सूचना कैसे मिली पूज्य? हम सब चकित हैं कि आप अपने परिवेश में घटित घटनाओं के प्रति कितने सजग हैं; और उनका पूर्ण ज्ञान आपको कैसे रहता है। मेरी धारणा थी कि शायद आप परिवेश से असंपृक्त, उदासीन, अपनी समाधि में लीन होंगे।''

वाल्मीकि हंसे, ''प्रसन्न हूँ राम! कि तुमने इसे मेरी आध्यात्मिक शक्ति का चमत्कार नहीं मान लिया। नहीं तो आज अनेक बाजीगर भगवान बने बैठे हैं।...पुत्र! हमारा परिवेश पूर्णतः सुरक्षित नहीं है। अतः हम निःशंक नहीं हो सकते। हमें अपने आस-पास घटित होने वाली घटनाओं की खोज-खबर रखनी पड़ती है। प्रायः भारद्वाज के आश्रम से हमारा संपर्क बना रहता है। हमं  प्रभावित करने वाली प्रत्येक घटना की सूचना हमें मिलती रहती है। इसी प्रकार दूसरी दिशा में चित्रकूट के आश्रमों से भी हमारा संपर्क रहता है।''

तभी उनकी दृष्टि अपने एक शिष्य पर पड़ी। वह आँखें फाड़े, तथा प्रायः अपना मुख खोले, कुटिया के कोने में पड़े, शस्त्र भंडार को देख रहा था। ऋषि हँस पड़े, ''क्यों वत्स मुखर! क्यों चकित हो?''

मुखर को अपनी स्थिति का भान हुआ। झेंपकर बोला, ''गुरुवर! चकित हूँ कि आपने आश्रम में शस्त्रों के निर्माण, शिक्षण, आत्म-रक्षा के साधनों की ओर एकदम ध्यान नहीं दिया; और राम अपने साथ पूर्ण शस्त्रागार लेकर यात्रा कर रहे हैं।''

राम हंसे, ''हम क्षत्रिय हैं मित्र! हमें आत्मरक्षा के लिए ही नहीं, न्याय और सत्य के पक्ष में, अन्य शोषितों के लिए भी शस्त्रों का प्रयोग करना पड़ता है। निःशस्त्र यात्रा हमारे लिए प्रयोजनहीन हो जाती है।''

लक्ष्मण अब मौन नहीं रह सके। बोले, ''ऋषिवर! एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। अन्यथा न मानें तो अपनी जिज्ञासा प्रकट करूं।''

''बोलो वत्स!'' ऋषि की मुद्रा उल्लसित शांत थी, ''कोई भला आदमी, किसी जिज्ञासा को अन्यथा नहीं मानता।''

''आपने अभी अपने परिवेश को असुरक्षित बताया है; फिर भी आपने अपनी रक्षा का कोई प्रबंध क्यों नहीं किया?''

वाल्मीकि के चेहरे पर हास, प्रायः लुप्त हो गया। वे गंभीर हो उठे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book