बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अवसर राम कथा - अवसरनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान
ऐसा करने के लिए पुष्कल पर अभियोग लगाना आवश्यक है; और अभियोग, न यह हो सकता है कि पुष्कल वैधानिक चर्चा करता है, न यह हो सकता है कि वह कैकेयी का संबंधी है। और फिर, कैकेयी को सूचना मिलते ही, वह ऐसा विरोध खड़ा कर सकती है, जिसका सामना न दशरथ कर सकते हैं, न दशरथ की सेना...इस उलझी हुई राजनीतिक गुत्थी को तो कोई राजनीतिक चाल ही सुलझा सकती है...राजनीतिक चाल!
गई रात तक दशरथ विभिन्न योजनाएं बनाते-बिगाड़ते रहे...तत्काल कुछ करना उचित नहीं होगा। दो-चार दिन रुक जाना चाहिए, अन्यथा संदेह की संभावना है। जब तक ध्यान इस ओर नहीं गया था बात और थी; किंतु अब सम्राट् को प्रत्येक घटना में या तो षड्यंत्र की गंध आती है, या अपना अपमान दिखाई पड़ता है : प्रत्येक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के वक्तव्य में या तो सत्ता हस्तगत करने का दुष्प्रयास दिखाई पड़ता है या सम्राट् के महत्त्व का अवमूल्यन। चिंता पीछा ही नहीं छोड़ती-तनाव किसी समय भी कम नहीं होता।
इस उचाट अवस्था में कभी-कभी मन में आता है कि सब कुछ छोड़-छाड़कर, कहीं दूर भाग जाएं; जहां न चिंता हो, न परेशानी, न तनाव, न क्षोभ। वृद्धावस्था में संघर्ष की शक्ति उनमें नहीं रह गई। संघर्ष उनमें उत्साह और ललक नहीं जगाता-खीझ और द्वेष, कटुता और हताशा उत्पन्न करता है, किंतु तभी इस विरक्ति की तीव्र प्रतिक्रिया जागती है। दशरथ अपने आपको, संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं-क्या उनके मन में भी कोई षड्यंत्रकारी घुस गया है? आखिर इस प्रकार के भावों का क्या अर्थ है? ये दशरथ के भाव नहीं हैं। विरक्ति दशरथ के लिए नहीं है, भोग लेने पर विषय और अधिकार के प्रति वैराग्य स्वीकार करना दशरथ की प्रकृति नहीं है। उन्हें तृप्ति नहीं होती। यही कर सके होते तो कैकेयी से विवाह की क्या आवश्यकता थी! न कैकेयी से विवाह हुआ होता...न यह स्थिति आती। अनेक स्त्रियों के होते कैकेयी को नहीं छोड़ सके, तो सिंहासन कैसे छोड़ दें। दशरथ अपने हाथ का अधिकार नहीं छोड़ेंगे। हाथ ढीले हो गए अधिकार खिसकता दिखाई दिया; तो वे उसे दांतों से पकड़ेंगे। दांत झड़ गए, तो मसूड़ों से पकड़ेंगे...जब तक बन पड़ेगा, वे अधिकार का भोग करेंगे, उसकी रक्षा करेंगे...।
अधिकार भोग करना है तो विरोधियों को मार्ग से हटाना होगा...यही राजनीति है। उसमें नीति क्या अनीति क्या? सिद्धांत क्या? और आदर्श
क्या? राजनीति के सारे सिद्धांतों, आदर्शों तथा नैतिकता का एकमात्र सूत्र है...विरोध-उन्मलन। विरोधी का उन्मूलन भी...।
दशरथ का मन हुआ, जोर से खिलखिलाकर, हँस पड़े-ऐसी हंसी जिसकी क्रूरता लोगों के कलेजे दहला दे।...उनके विरोधियों को मालूम हो कि सत्ता का विरोध क्या अर्थ रखता है, और उसका कितना मूल्य चुकाना पड़ता है...।
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