बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - दीक्षा राम कथा - दीक्षानरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, प्रथम सोपान
गुरु गंभीर हो गए, ''राम! तुम्हें यहां लाने के अनेक कारण हैं, पर वे सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। मैं अंतिम लक्ष्य के लिए तुम्हारी जैसी तैयारी चाहता हूं, उसकी पूर्णता जनकपुर में ही होगी। वत्स! यदि यहां मेरी योजना सम्पन्न हो गई, तो फिर मैं तुम्हें और कहीं नहीं ले जाऊंगा। तुम्हें स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिए अकेला छोड़कर, अपने आश्रम लौट जाऊंगा...''
रुककर गुरु ने राम की ओर देखा। राम पूरी गंभीरता से उनकी बात सुन रहे थे। गुरु ने अपनीबात आगे बढ़ाई, ''अब यह रहस्य की बात नहीं है कि सीरध्वज की पुत्री सीता, भूमि-पुत्री है। कहते हैं कि यह अज्ञातकुलशीला कन्या, सीरध्वज को अपने राज्य के किसी खेत में हल चलाते हुए प्राप्त हुई थी। तुम समझ सकते हो राम! ऐसी कन्या, जो खेत में पड़ी हुई मिले, भूमि-पुत्री और अज्ञातकुलशीला ही हो सकती है। सीरध्वज राजा होने के साथ, ऋषि भी माने जाते हैं, जो अनुचित नहीं है। सीरध्वज वस्तुतः तपस्वी हैं। कोई अन्य नृप होता, तो उस बच्ची को कभी अंगीकार न करता, किंतु सीरध्वज के मन में करुणा है, मानव के लिए प्यार है। इसीलिए वह उस अज्ञातकुलशीला कन्या को त्याग नहीं सके। उन्होंने उसे पुत्रीवत् पाला। किन्तु तब सीरध्वज ने यह नहीं सोचा था कि जब वह कन्या युवती होगी, तो जाति-पांति, कुल-गोत्र और ऊंच-नीच की मान्यताओं में जकड़े, इस समाज में, उसके विवाह की समस्या कितनी जटिल होगी; और यह समस्या तब और भी जटिल हो जाएगी, जब सीता अद्भुत रूपवती होगी। आज सीता चामत्कारिक रूपवती युवती है, जिसके सौन्दर्य की चर्चा आर्य सम्राटों के प्रासादों के भी बाहर, आर्यावर्त के बहुत परे तक राक्षसों, देवताओं, गंधर्वों, किन्नरों, नागों आदि के राजमहलों में भी हो रही है। किन्तु पुत्र! सीरध्वज जनक के सामने एक बहुत बड़ी दुविधा है। आर्य सम्राटों और राजकुमारों में से कोई भी उपयुक्त पुरुष, उस अज्ञातकुलशीला कन्या का पाणिग्रहण करने को प्रस्तुत नहीं है; और अपनी पोषित पुत्री सीता को, जनक आर्येतर जातियों में दे नहीं सकते, देना नहीं चाहते। उनमें पिता का हृदय और आर्य सम्राट् का अहं दोनों ही हैं। इसलिए जनक ने एक अद्भुत खेल रचा है पुत्र!...कहते हैं, किसी समय महादेव शिव ने युद्ध से निरस्त होकर अपना धनुष सीरध्वज के पूर्वजों को प्रदान किया था। राम! वह धनुष साधारण धनुष नहीं था। वह शिव का धनुष था, और शिव अनेक दिव्यास्त्रों के निर्माता हैं। 'धनुष' शब्द से तात्पर्य इतना ही है कि उस यंत्र से विभिन्न प्रकार के दिव्यास्त्र प्रक्षेपित किए जा सकते हैं। शिव का वह तथाकथित धनुष आज भी सीरध्वज के पास पड़ा है। किंतु वह पड़ा ही है, उपयोग में नहीं आ रहा क्योंकि उसके संचालन की विधि कोई नहीं जानता, स्वयं सीरध्वज जनक भी नहीं। उस धनुष (अजगव) को लेकर, देवताओं, राक्षसों, मनुष्यों-सभी जातियों में अनेक चिंताएं, शंकाएं, संदेह तथा प्रश्न हैं। यह ठीक है कि आज उस धनुष के संचालन की विधि कोई नहीं जानता, किंतु सदा ऐसा ही तो नहीं रहेगा। भविष्य में जब कभी कोई जाति यह विधि सीख लेगी, वह उसे हस्तगत करने का प्रयत्न करेगी; और यदि वह ऐसा करने में सफल हो गई तो वह जाति, अन्य जातियों के लिए अजेय हो जाएगी।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह