लोगों की राय

बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - दीक्षा

राम कथा - दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6497
आईएसबीएन :21-216-0759-0

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

314 पाठक हैं

राम कथा पर आधारित उपन्यास, प्रथम सोपान

और जब दशरथ अपने पिता के पश्चात् राजसिंहासन पर बैठे तो कौसल्या के सम्मुख उनकी अपनी स्थिति और भी स्पष्ट हो गई। वह दरबार के विशिष्ट उत्सवों में साम्राज्ञी थीं; राज्य के उत्तराधिकारी की मां भी र्थी; रघुवंश की वधू भी थी; किंतु न तो यह दशरथ की कांता थी, न प्रेमिका और न संगिनी।

उन्हीं दिनों दशरथ ने मगध की राजकुमारी सुमित्रा से विवाह कर लिया। सुमित्रा अद्भुत सुन्दरी थी। उसे देखकर आंखें चौंधिया जाती थी। उसे देखकर दशरथ की पसन्द की प्रशंसा करनी पड़ती थी। किंतु, दशरथ ने भी उसका रूप ही देखा था, मन वह नहीं देख पाए थे। सुमित्रा प्रज्वलित अग्नि थी, पूर्ण तीव्रता से जलती हुई अग्निकाष्ठ। वह आलोक भी देती थी और ताप भी। उसने पहले दिन ही स्पष्ट कर दिया कि एक पत्नी और पुत्र के होते हुए दशरथ का इस प्रकार पुनः विवाह करना उसे एकदम पसन्द नहीं था। अधीनस्थ मगध-नृप ने दशरथ की सैनिक शक्ति से भयभीत होकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया था और सुमित्रा यहां आ गई थी। वह दशरथ की धर्मपत्नी थी और रहेगी, किंतु न वह उनकी कांता प्रेमिका बन सकती है, न बनना चाहती है।

और कौसल्या को कितना प्रेम, कितनी सहानुभूति तथा करुणा दी थी सुमित्रा ने! कौसल्या के प्रति इसी करुणा के भाव में डूबी हुई सुमित्रा का तिरस्कार दशरथ नहीं कर सके; क्योंकि स्वयं सुमित्रा ही उनका तिरस्कार करती रही। वह पत्नी तथा कुलवधू की मर्यादा को मानकर चलती रही, किंतु रही सदा निडर सिंहनी के समान।

इस बीच दशरथ अनेक स्त्रियों के सम्पर्क में आए। उन्होंने अनेक विवाह किए, किंतु जैसे उन्हें संतोष नहीं हुआ। वह अपने भीतर जैसे किसी असंतोष के कारण छटपटा रहे थे। अपने को स्थिर नहीं कर पा रहे थे। अपनी किसी भीतरी मजबूरी से भटक रहे थे। इसी भटकन में सम्राट् दशरथ ने दिग्विजय के लिए देश-विदेश में सैनिक अभियान चला दिए।

कोसल की सेना जिधर जाती, अपनी पदाघातों से पर्वतों को पीसकर चूर्ण बना देती थी। दशरथ की तलवार ने भूगोल की बाधाओं को खंड-खंड करके फेंक दिया था। देवासुर-संग्राम में देव-पक्ष से लड़ने वाले दशरथ, पृथ्वी पर इद्रं और कुबेर से कम महत्त्वपूर्ण नहीं माने जाते थे।

ऐसे समय में कोसल की सेनाएं कैकय देश में घुस गई। वीर तथा प्रतापी माना जाने वाला कैकय-नरेश भी दशरथ के सम्मुख सर्वथा अक्षम सिद्ध हुआ। कैकय-नरेश ने आत्मसमर्पण किया और दशरथ की सेनाओं ने राजगृहपुर को पूर्णतः अवरोध में ले लिया।

कोई नहीं जानता था कि कैकय-नरेश तथा उनके परिवार का भविष्य क्या है। वे बंदी होंगे, अथवा उनका वध होगा। उन्होंने दशरथ

के विरुद्ध लड़ने की मूर्खता की थी, दशरथ उन्हें कदाचित क्षमा नहीं करेंगे।

तभी दशरथ के मंत्रियों ने उचित अवसर जानकर कैकय-नरेश से पूछा, '"क्या वह दशरथ से संधि करना चाहते हैं?'' कैकय-नरेश के लिए इससे अधिक प्रसन्नता का प्रस्ताव और क्या हो सक्ता था। वह तुरन्त सहमत हो गए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book