बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - युद्ध राम कथा - युद्धनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, सप्तम और अंतिम सोपान
सुग्रीव ने रुककर शुक को देखा और आक्रोश से बोले, "रावण से कहना कि मैं और वह कैसे भाई हैं, इसे वह भूल जाए; किंतु विभीषण और रावण कैसे भाई हैं, इसे याद रखे। यह संदेश उसने अपने सहोदर भ्राता विभीषण को क्यों नहीं भेजा कि वे उससे मिलकर अपना मतभेद दूर कर लें। और दूत!" सुग्रीव का स्वर और भी ऊंचा हो गया, "अभी तक कोई नहीं भूला कि रावण लंका का निवासी नहीं है-वह बाहर का व्यक्ति है। रावण की राजसभा में एक भी सभासद लंका का मूल निवासी नहीं है। और जहां तक जाति की बात है, राम मेरी जाति के नहीं हैं; किंतु वे सब दीन-हीन, निराश्रित-दुर्बल लोग, जिन्हें रावण की राक्षसी सेनाएं मारती, काटती, पीटती, लूटती तथा पीड़ित करती रही है-वे सब मेरी जाति के ही हैं। राम की जाति को रावण नहीं जानता। राम की जाति मानवता की जाति है, यह बात तुम्हारे उस रावण की समझ में नहीं आएगी तुम अब जाओ, अन्यथा तुम्हारा कोई अनिष्ट हो जाए तो मैं उत्तरदायी नहीं होऊंगा।"
किंतु शुक वहां से टला नहीं। वह धृष्टतापूर्वक वहीं खड़ा रहा।
"एक निवेदन और है सम्राट्।" वह अत्यन्त वक्र वाणी में बोला, "यदि राम और लक्ष्मण को बंदी कर राक्षसराज को सौंप दें तो वे आपको समस्त वानर जातियों का एकछत्र सम्राट् स्वीकार कर लेंगे; अन्यथा...।" वह चुप हो गया।
"अन्यथा?" सुग्रीव ने पूछा।
"अन्यथा!" वह एक विषैली मुस्कान अपने अधरों पर ले आया, "अन्यथा स्वर्गीय सम्राट् बाली के न्यायोचित उत्तराधिकारी युवराज अंगद को वानरों के सम्राट् के रूप में प्रतिष्ठित कर, आपको भ्रातृवध के अपराध के दंडस्वरूप मृत्यु-दंड...।"
शुक की बात अभी पूरी नहीं हुई थी कि अंगद उस पर झपट पड़े। इससे पहले कि कोई उन्हें रोकता, उन्होंने शुक के मुख पर तीन-चार मुष्टि-प्रहार कर डाले। वह मुख से रक्त थूक रहा था कि राम ने आगे बढ़कर अंगद की बांह पकड़ ली।
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