लोगों की राय

बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - संघर्ष की ओर

राम कथा - संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6499
आईएसबीएन :21-216-0761-2

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

137 पाठक हैं

राम कथा पर आधारित उपन्यास, तीसरा सोपान

धर्मभृत्य विद्रूप-मिश्रित मुस्कान चेहरे पर ले आया, "राक्षस क्या होता है भद्र राम! यहां अनेक खानें हैं! उनके स्वामी विभिन्न जातियों के हैं। राक्षस भी हैं, देव भी, यक्ष भी हैं और आर्य भी-पर वे सब धनाढ्य हैं। उनमें कहीं कोई अंतर है क्या? धन और स्वर्ण ने उनकी आंखों पर जो चर्बी चढ़ाई है, उससे वे मनुष्य की यातना देख ही नहीं पाते। उनकी संवेदनशीलता समाप्त हो गई है। वे सब राक्षस हो गए हैं। खानों के स्वामी ही क्यों, सारे भूपति, वणिक्-व्यापारी, सामंत, नित्यप्रति युद्ध की विभीषिका छेड़ने वाले सेना-व्यवसायी, अर्थ लोलुप, धर्माधीश-सब- के-सब राक्षस हो गए हैं। वे शक्तिशाली हैं, संगठित हैं, उन्हें महाशक्तियों का संरक्षण प्राप्त है। वैसे देव और राक्षस महाशक्तियां एक-दूसरे की विरोधी हैं; किंतु निःसहाय जनता के शोषण के लिए, अपना स्वार्थ साधने के लिए वे परस्पर सहयोग भी करती हैं-।"

"फिर क्या हुआ मुनिवर?" लक्ष्मण ने पुनः पूछा।

"इन सारी घटनाओं की सूचना कुलपति ऋषि शरभंग को भी हुई। स्वयं को सर्वथा असहाय पाकर, कुछ कर्मकर उनके पास भी गए। दे अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे। मांडकर्णि पर तो उन्होंने धिक्कार भेजा ही, वे देव अग्नि पर भी कुपित हुए। उन्होंने शपथ ली कि वे अग्निमित्र की खान के ही नहीं, समस्त खान कर्मकरों को संगठित करेंगे। उनका नेतृत्व वे स्वयं अपने हाथ में लेंगे और तब तक संघर्ष चलाएंगे, जब तक खानों पर स्वयं कर्मकरों का ही स्वामित्व स्थापित न हो जाए।"

"ऋषि और मुखर की मुद्राएं उत्साहित हो उठीं।

"ऋषि ने कर्मकरों की बस्तियों में जाना आरंभ किया। उन्होंने श्रमिकों को अपनी ओर आकृष्ट किया, उनके विश्वास-पात्र बने और आंदोलन के लिए कुछ समितियां भी बनाईं।" धर्मभृत्य तनिक रुककर बोला, "और भद्र राम। इसके पश्चात् उन्होंने आत्मदाह कर लिया।"

"फिर वहीं समस्या।" राम जैसे अपने-आप से बोले, "ऋषि शरभंग ने आत्मदाह क्यों किया...?

सहसा मुखर की उबासी ने राम का ध्यान आकृष्ट किया।

देर हो गई मुखर?" राम मुस्कराए, "अच्छा अब सो जाओ।"

अगले दिन धर्मभृत्य के आश्रम के प्रथम अतिथि अनिन्द्य तथा उसकी पत्नी थे। धर्मभृत्य, लक्ष्मण तथा मुखर तीनों ही बाहर गए हुए थे। आश्रम में ब्रह्मचारी तथा सीता और राम थे। वे लोग राम और सीता से मिलने आए थे। राम ने देखा, यद्यपि बे नहा-धोकर स्वच्छ वस्त्र पहनकर आए थे, फिर भी उनकी निर्धनता छिप नहीं रही थी। हां, अनिन्द्य सजग और सचेत था तथा उसकी पत्नी इस समय भयभीत नहीं थी। वे दोनों ही, रूप-रंग की दृष्टि से कल की अपेक्षा कहीं अधिक आकर्षक लग रहे थे।

प्रणाम कर अनिन्द्य बोला, "मैं आर्य से क्षमा मांगने आया हूं। कल मैंने आपके साथ अपमानजनक व्यवहार किया।" वह सीता की ओर मुडा, "आर्या! मुझे याद भी नहीं है कि मैंने आपको क्या-क्या कहा, किंतु सुधा...उसने अपनी पत्नी की ओर इंगित किया, "कहती है कि मैंने आपके प्रति अभद्र और अशिष्ट व्यवहार किया था। कृपया आप दोनों ही मुझे क्षमा करें।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book