बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - संघर्ष की ओर राम कथा - संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, तीसरा सोपान
"बताओ शुभबुद्धि!" सीता हंसीं, "उत्पादक श्रम के रूप में तुम्हें क्या काम मिला है?"
"कुछ लोग खान में काम करेंगे, कुछ खेती में दीदी!" वह प्रसन्नतापूर्वक बोला।
"मैं समझ गया।" भूलर ने उल्लसित स्वर में कहा, "राम चाहते हैं कि श्रमिक और ऋषि-मुनि में कोई भेद न रहे; और राक्षस तो कोई बन ही न पाए।"
"ठीक समझे!" सीता बोलीं, "अब मैं जाऊं?"
"जाइए दीदी! हम मन लगाकर पढ़ेंगे।"
लक्ष्मण पिछले कई घंटों से धातु-कर्मियों के साथ लगे, उन्हें नये ढंग का काम सिखा रहे थे। भट्ठियां तो उनके पास पहले भी थीं, किंतु उन भट्ठियों से लक्ष्मण का काम नहीं चल रहा था। उन्होंने भट्ठियों को
कुछ बड़ा भी करवाया था और उसके आकार-प्रकार में अपनी आवश्यकतानुसार कुछ परिवर्तन भी करवाए थे। भट्ठी बन जाने के पश्चात् उसमें कच्चा लोहा पिघलाया गया था और उसके पश्चात् उसे विशेष सांचों में ढालकर शस्त्र बनाए जा रहे थे। धातुकर्मी अपने काम में पर्याप्त दक्ष थे, केवल उनकी पद्धति में थोड़े-से सुधार की आवश्यकता थी-वह लक्ष्मण ने कर दी थी।
"क्यों शतरूप! अब आगे काम अपने-आप कर लोगे?" लक्ष्मण ने पूछा, शतरूप आश्वासन देते हुए मुस्कराया-भर।
लक्ष्मण, शतरूप के कुटीर से बाहर निकल आए। उन्होंने आकाश की ओर देखा-सूर्य काफी चढ़ आया था-उन्हें बस्ती में पहुंचना था। आज कुटीर-निर्माण का कार्य अवश्य होना चाहिए था, अन्यथा बस्ती के लोगों को एक ओर तो गंदी झुग्गियों में रहना पड़ता; और दूसरी ओर रात में सुरक्षा के लिए पुनः आश्रम में शरण लेनी पड़ती। अनावश्यक असुविधा। वे झपटते हुए बस्ती में पहुंचे।
कुटीर-निर्माण-कार्य पूरी गति से चल रहा था; किंतु लक्ष्मण को देखकर आश्चर्य हुआ कि इस समय वहां एक भी पुरुष उपस्थित नहीं था। पूरा-का-पूरा काम बस्ती की स्त्रियां ही कर रही थीं। वे बड़े सहज भाव से, प्रसन्न-मन अपना काम करती जा रही थीं। अर्द्ध गोलाकार क्षेत्र में बनने वाले कुटीरों की एक पंक्ति बनती जा रही थी।...
लक्ष्मण, एक कोने में चुपचाप बैठे मुखर के पास जाकर रुक गए।
"यह क्या हो रहा है?"
"कुटीर-निर्माण!" वह मुस्कराया।
"वह तो ठीक है।" लक्ष्मण भी मुस्कराए, "किंतु सारे पुरुष कहां भाग गए?"
"खान में काम करने का समय हो गया था।" मुखर बोला, "वे लोग अपने काम पर चले गए हैं।...पर सौमित्र! ये स्त्रियां बहुत प्रशिक्षित मालूम होती हैं। मुझे न तो ये काम करने दे रही हैं, और न ही कुछ बताना पड़ रहा है। वे अपने-आप ही काम करती जा रही हैं।"
"तो तुम यहां बैठे क्या कर रहे हो?" लक्ष्मण मुस्कराए।
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